अमन कुमार त्यागी
-‘बेटे लाठी मारने से पानी अलग नहीं हो जाता है।’ मान सिंह ने अपने बड़े बेटे को समझाने का प्रयास किया।
-‘और वो मुझे मार डाले तब।’ नरेश ने शिक़ायती लहजे में कहते हुए अपने बाप की तरफ़ देखा।
-‘ऐसा नहीं है, और वैसे भी अपना मारे छाँव में डाले ग़ैर मारे धूप में डाले’, मेरी इस बात को गांठ बांध ले, कलुआ तेरा छोटा भाई है गैर नहीं है।’ मान सिंह ने पुनः समझाने का प्रयास किया।
-‘मतलब साफ़ है, मुझे अब चैकस रहना पड़ेगा।’ नरेश के मुँह से अनायास ही निकला।
-‘चल अब माफ़ कर दे उसे, वो छोटा है। कहा भी जाता है, बड़न को क्षमा चाहिए छोटन को उत्पात।’ मान सिंह अपने बड़े बेटे को बार बार समझाने का प्रयास कर रहे थे। मगर मान सिंह का बड़ा बेटा नहीं समझ पा रहा था कि उसका बाप उसे समझा रहा है या धमकी दे रहा है। बाप के द्वारा किए जा रहे छल को वह बहुत अच्छी तरह समझ रहा था। अब छोटे के फंसने की बारी आई थी तो सारी समझदारी दिखाई जा रही थी जबकि कल इसी बाप मान सिंह ने कलुआ के कहने में आकर उसे घर से निकाल दिया था। तब न कोई अपना था और न ही कोई छोटा या बड़ा था। अख़बार में संबंध विच्छेद का विज्ञापन छपवाया सो अलग।
नरेश ने मान लिया था कि न तो उसका कोई भाई है और न ही कोई माँ या बाप। बहनों की तो बात ही छोड़ दो, बहनों ने भी कितनी ही बार नरेश की आंखों के सामने कलुआ को राखी बांधी और नरेश देखता रहा था टुकर-टुकर।
अजीब से हालात पैदा हो गए थे। आज कलुआ को पुलिस एक ठगी के मामले में उठा कर ले गई तो मान सिंह को अपने बड़े बेटे की याद आई। वह अपने बड़े बेटे को इसलिए मना रहे थे ताकि वह थाने जाकर कलुआ को छुड़ा लाए। मगर नरेश था कि जैसे इसी मौके की तलाश में था। उसने अपने बाप मान सिंह से स्पष्ट कहा- ‘‘चोर जार ठग, ये ना किसी के सग।’ यह कहावत आप ही सुनाते थे न पिता जी।’’
-‘हाँ, सुनाता तो था।’ मान सिंह को न चाहते हुए भी हाँ करनी पड़ी। तब मुस्कुराता हुआ नरेश बोला-तो भला चोर ठग और जार से मेरा क्या रिश्ता?’
-‘क्या मतलब?’ मान सिंह ने नरेश की और देखा।
-‘मतलब साफ़ है पिता जी! कलुआ में वो सभी ऐब हैं जिनके लिए यह कहावत बनी है।’ नरेश ने कहकर अपना पीछा छुड़ाना चाहा।
-‘कुछ तो शर्म कर, भाई है वो तेरा, कल जब सभी अख़बारों में ख़बर छपेगी तो क्या बेइज्ज़ती नहीं होगी?’ मान सिंह ने तुरूप का इक्का मारना चाहा।
-‘हाँ होगी, मगर मेरी नहीं बल्कि आपके चहेते बेटे की वजह से आपकी होगी। मेरा क्या? मुझे तो बेइज्ज़त करके पहले ही घर से निकाल चुके हो।’ नरेश ने रूखा सा जवाब दिया, जिसकी मान सिंह ने कल्पना भी नहीं की थी।
-‘वो बुरा वक़्त था बेटे! मेरी अकल मारी गई थी, अब सब भूल जा और कलुआ को घर ले आ।’ मान सिंह ने हथियार डालते हुए कहा।
-‘वाह यह अच्छा है, गुल खावे और गुलगुलों की आन करे। मुझसे नफरत करेंगे और काम भी मुझी से लेंगे, वाह री किस्मत...।’ नरेश मन ही मन बड़बड़ाया।
-‘चला जा बेटा, नहीं तो पुलिस... जा उसका बुरा हाल हो रहा होगा... झूठा फंसाया गया है उसे।’ मान सिंह ने मनौति की तो नरेश का भी दिल पसीज आया।
नरेश को तैयार होते देख, मान सिंह एक बार फिर बोल उठे- ‘उसके साथ एक और है, उसे भी छुड़ाने का प्रयास करना, बड़ा अहसान मानेगा वो हमारा।’ उनकी बात सुनकर नरेश को हंसी आ गई। अनायास ही उसके मुँह से निकला-‘सुघड़ भलाई सुसरा ले, बैल खोल बहू के दे।’
सर्दियों के दिन थे। अर्ध रात्रि होने को थी। नरेश ने जैकेट पहनी और अपने दो-चार साथियों के साथ पहुँच गया थाने। उसने कोतवाल और दूसरे पक्ष से बात की, सच्चाई को जानने का प्रयास किया और पुलिस यह वादा करके कि यदि उसका भाई दोषी होगा तो वह स्वयं उसे थाने लेकर पहुँचेगा। जिस पर कोतवाल मान गया और उसने जाँच में सहयोग करने के आश्वासन व कुछ लिखा-पढ़ी के बाद दोनों लोगों को छोड़ दिया।
रात्रि में देर से सोने के कारण सुबह आंख भी देर से ही खुली। जब नरेश जागा तो उसे बाहर दरवाजे से आवाज़ें आती प्रतीत हो रही थीं। वह उठकर बैठ गया और सुनने का प्रयास करने लगा। उसकी माँ उसकी पत्नी से कह रही थी-‘कुल मिलाकर आदमी धक्का दे दे, धोख़ा नहीं दे। नरेश ने थाने में जो कहा वो हमारे कलुआ को कतई अच्छा नहीं लगा। अब परेशान है वो, दोबारा पुलिस ने बुलाया तो क्या जवाब देंगे समाज को।’
इधर नरेश की पत्नी जवाब दे रही थी- ‘न कर न डर, जब कुछ करा ही नहीं है तो डरना ही क्या?’
फिर तीसरी आवाज़ आई। यह आवाज़ नरेश की बहन की थी-‘चल छोड़ अम्मा! जब घर में ही विभिषण है तो फिर दुश्मन की क्या ज़रूरत है?’
अबकी बार नरेश की पत्नी ने जवाब दिया-‘जितनी सोच है उतनी ही बात करोगे ना, लंका में सब बावन गज के ही हैं। फिर मत कहना अगर कुछ हो जाए तो।’ कहते हुए उसने दरवाज़ा बंद कर लिया।
बाहर से फिर आवाज़ आई-‘मुझे तो लगता है, मुँह में राम और बगल में छुरी वाली बात है, इन्होंने ही पहले पुलिस से पकड़वाया है और फिर अहसान दिखाने के लिए छुड़वा दिया, वरना पुलिस छोड़ती है किसी को बिना पैसे लिए हुए?’
नरेश उनकी बातें सुनकर अंदर ही अंदर तिलमिला रहा था, परंतु करता भी क्या? उसे उनके द्वारा की जाने वाली इन बातों का पहले से ही अहसास था। मगर वह तो नेकी कर कुए में डाल रहा था। उसे इस बात का नहीं पता था कि मदद पात्र की करनी चाहिए कुपात्र की नहीं।
पत्नी ने बाहर हुई वार्ता की जानकारी नरेश को देनी चाही तो उसने यह कहकर शान्त कर दिया कि उसने सब सुन लिया है। इनसे कोई अच्छी उम्मीद की भी नहीं जा सकती। कहते हुए वह उठा और दरवाज़ा खोलकर बाहर खड़ा हो गया। ऐसी सर्दी में वही सूरज गर्माहट देता है जो मई-जून में तपाता है। अभी उसे खड़े हुए कुछ ही समय हुआ था कि तभी उसे उसके पिता जी और उनके साथ एक अन्य व्यक्ति आते दिखाई दिए। नरेश का मन हुआ कि वह बचकर घर में चला जाए परंतुु फिर वह उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए अपने किराए के घर के सामने ही खड़ा रहा। पिता जी का घर कुछ आगे था जिसमें से उसे कोई पांच साल पहले बेइज्ज़त करके निकाल दिया था।
-‘पिता जी नमस्ते!’ समीप आते ही उसने नमस्ते की तो पिता जी ने अनमने ढंग से नमस्ते का जवाब दिया।
-‘अब तो सब ठीक है ना?’ नरेश ने पिता जी से जानना चाहा।
-‘हाँ, सब ठीक है, ये मिश्रा जी चले गए थे सुबह थाने, पचास हज़ार में सब मामला ठीक कर लिया है। बुरे वक़्त में काम आ गए।’ नरेश ने मिश्रा जी की तरफ़ देखा तो मिश्रा जी ने आंख दबाकर चुप रहने का इशारा कर दिया। अब नरेश को माजरा समझते देर नहीं लगी। पिता जी सुबह से ही धुत्त हो गए थे, मिश्रा जी के कंधे पर हाथ रखकर बड़ी शान के साथ घर की ओर बढ़े, मानो किसी जश्न की तैयारी हो। नरेश कुछ देर सोचता हुआ खड़ा रहा और फिर घर में आकर फ्रैश होने के लिए चला गया। वह सोचता रहा और दैनिक चर्या से निवृत्त होता रहा। अभी उसने टाॅवल से हाथ पौछे ही थे कि तभी मिश्रा जी ने दरवाज़े पर दस्तक दी। नरेश ने दरवाज़ा खोला और बैठक में उन्हें बिठाकर पत्नी से चाय बनाने को कहा।
-‘चाय नहीं पीनी अब, आज तो सुबह से ही.... चल रही है।’ मिश्रा जी ने बताया तो नरेश चुप होकर बैठ गया।
कुछ देर की शांति के बाद मिश्रा जी ने चुप्पी तोड़ी-रात तुम गए थे थाने, मुझे पता है और थानेदार तुम्हारी तारीफ़ भी करता है, इमानदारी से पत्रकारिता करने की तुम्हारी पहचान को तुम्हारे परिवार वाले आज तक ख़त्म नहीं कर पाए हैं।’ मिश्रा जी ने बोलना शुरू किया तो बोलते चले गए। नरेश ने शांत रहकर सुनना ही बेहतर समझा।
-‘सुबह-सुबह तुम्हारे पिता जी का फोन पहुँचा और उन्होंने तुरंत घर आने का आदेश सुना दिया। मैं समझ गया कुछ मामला है, अब भईया मुझे तो तलाश रहती ही है, मैं चला आया। आकर पता चला कि कलुआ का कोई मामला था। मैंने कोतवाल साहब को फोन पर बात करी और इन्हें बता दिया कि कोतवाल साहब पचास हज़ार रुपए माँग रहे हैं, नहीं तो फिर उठा लेंगे।’ बताते हुए मिश्रा जी के होठों पर मुस्कान तैर गई। इसी मुस्कान के साथ उन्होंने बताना जारी रखा-‘कलुआ से तुम्हारे पिता जी ने कुछ पैसे लिए और तब तक पी जब तक दारू गले तक नहीं आ गई।’
सुनकर नरेश ख़ामोश रहा। मिश्रा जी ने पुनः बताना शुरू किया-‘अब दस बजे कलुआ पैसे लाकर दे देगा।’
-बदनाम तो कोतवाल ही होगा न, पैसे लेने के मामले में?’ नरेश ने जैसे ही कहना चाहा तो मिश्रा जी ने बात बीच में काटकर कहा-‘तुम इन्हें नहीं जानते हो नरेश, तुम्हारा भाई बहुत चालाक है, वह नहीं चाहता कि उसे बचाने में कहीं तुम्हारा नाम आए, वह किसी भी सूरत में कोतवाल के साथ बैठकर चाय पीना चाहता है ताकि लोगों को लग जाए कि कोतवाल से उसके अच्छे संबंध हैं। और इतना काम मैं करा दूंगा ... पचास हज़ार खपाने के लिए कुछ तो करना ही पड़ेगा।’
-‘यह बात मुझे क्यों बता रहे हो?’ नरेश ने पूछा।
-‘बस तुम्हें शांत रहना है, तुम से कुछ छिपाया नहीं जा सकता है और तुम्हारी बुराई किए बिना इनसे कुछ निकालना संभव नहीं है। अब बेइज्ज़ती वाली बात तो है ही ना, जिसे घर से निकाल दिया उसी से मदद मांगी जा रही है।’ कहते हुए मिश्रा जी उठे और जाने लगे-‘चलता हूं, उसने पैसे का इंतजाम कर दिया होगा। आज शाम कोतवाल से मिलवा भी दूंगा।’
मिश्रा जी के जाने के बाद नरेश शांत मन से उठा और पत्नी को सारी बात बताते हुए समझाया-‘तुम्हें कोई प्रतिक्रिया देने की ज़रूरत नहीं है, ये लोग हमें फिर बदनाम करने का प्रयास करेंगे, ग़लती हो गई है... रात इनकी बात मानकर। कुपात्र के काम आने का मतलब है अपने लिए गड्ढा खोदना।’