Mamta ki Pariksha - 134 in Hindi Fiction Stories by राज कुमार कांदु books and stories PDF | ममता की परीक्षा - 134

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ममता की परीक्षा - 134



"नहीं !"
कहते हुए साधना के चेहरे पर दृढ़ता के भाव थे जिन्हें देखकर गोपाल का मन आशंकाओं से भर उठा। साधना ने आगे कहना जारी रखा, "मैं आपको अहसास कराना चाह रही हूँ सामाजिक मर्यादाओं की, जिसकी अदृश्य डोर से हम सब बँधे हुए हैं। सुशीला जी जैसी भी हैं, लेकिन समाज की नजरों में वह आपकी ब्याहता पत्नी हैं और इस नाते उनकी जिम्मेदारी से आप इतनी आसानी से मुकर नहीं सकते ..!" कहते हुए अचानक साधना फिर से भावुक हो गई थी और उसका वाक्य अधूरा रह गया था।

बहुत सी बातें अनकही भी लोग समझ लेते हैं और यही हुआ था यहाँ भी। गोपाल साधना के मन की बात समझ गया था। वह समझ गया था कि जब तक उसके साथ सुशीला का नाम जुड़ा है, वह उसको स्वीकार नहीं करेगी.. और फिर साधना ही क्यों ? उसकी जगह कोई भी औरत हो, वह भी यही करेगी।

बाहर अँधेरा गहरा गया था। गोपाल को लग रहा था जैसे यह अँधेरा उसके जीवन का एक अहम हिस्सा बन गया हो जो शायद जीवन पर्यंत उसके साथ रहने की ठान चुका है।

इतनी देर से खामोश जमनादास आगे बढ़ा और बोला, "तुम सही कह रही हो साधना ! कोई भी सभ्य भारतीय नारी किसी नारी के साथ अन्याय नहीं कर सकती। मुझे लगता है हमें थोड़ा और इंतजार करना चाहिये। मुझे पूरा यकीन है कि भगवान के घर शायद अभी देर भले है लेकिन अँधेर नहीं होगा। इस गहन अँधेरे के बाद खुशियों का सूरज फिर से अवश्य निकलेगा।"
फिर वह अमर से मुखातिब होते हुए बोला, "अमर बेटे ! मुझे गोपाल को छोड़ने उनके घर तक तो जाना ही होगा सो चलो पहले तुम दोनों को सुजानपुर छोड़ देता हूँ और वहीं से फिर आगे शहर की तरफ निकल जाऊँगा। सुबह जल्दी वकील धर्मदास से भी मिलना है।"

अमर अभी कुछ कहता कि तभी बिरजू आगे बढ़कर बोल पड़ा, "सेठजी ! आप काहें परेशान हो रहे हैं ? गाँव की उ कच्ची ऊबड़खाबड़ सड़क पर आपकी तबियत भले न खराब हो, लेकिन आपकी ई कार कहीं खराब हो गई तो हम सबकी तबियत खराब कर देगी।" अंतिम वाक्य उसने इस अंदाज में कहा था कि उस भावुक माहौल में भी सब हँस पड़े।

अमर ने भी उसका समर्थन करते हुए कहा, "आप हमारी चिंता बिल्कुल न करें ! हमारे लिये ये दूरी कुछ भी नहीं। पापा को छोड़कर आप भी आराम कीजिये। कल पता नहीं कितनी दौड़धूप करनी पड़े। अब आप निकलें ! हम भी थोड़ी देर मम्मी के पास रहेंगे और फिर यहाँ से निकल लेंगे। कल सुबह दस बजे तक हम पुलिस थाने पर पहुँच जाएँगे। आप वकील साहब को लेकर सीधे वहीं आइयेगा।"
कल का पूरा कार्यक्रम तय करके सेठ जमनादास और गोपाल दोनों शहर की तरफ चल दिये।

कुछ देर रुकने के बाद अमर और बिरजू भी पैदल ही सुजानपुर की तरफ बढ़ गए।

जब दोनों सुजानपुर पहुँचे, रात गहरा गई थी। रामलाल जी घर के बाहर खटिये पर बैठे उनका ही इंतजार कर रहे थे। दालान में एक बल्ब अपनी पीली रोशनी बिखेर रहा था, लेकिन बाहर तो चाँद की चाँदनी का जलवा ही अपने चरम पर था। चाँद की दूधिया रोशनी में एक खटिये पर बैठी रजनी का दूधिया बदन दूध सा चमक रहा था जिसे अमर ने दूर से ही पहचान लिया था।

रजनी का ख्याल आते ही उसके मन में खुशी की एक लहर दौड़ गई और पीछे का सब घटनाक्रम याद कर उसे खुद पर गर्व सा महसूस होने लगा। आखिर हो भी क्यों नहीं ? रजनी जैसी रूपसी उसकी इस कदर दीवानी बन जाएगी यह उसने सोचा ही नहीं था।

आज तो वह उसके प्यार के सहारे ही अपनी ऐशो आराम की जिंदगी को ठुकराकर अभावों से भरे इस छोटे से गाँव में पड़ी हुई है। नरम मखमली सोफे की अभ्यस्त एक खटिये पर बैठी रजनी दूर आकाश में चमक रहे चाँद को ही एकटक निहार रही थी। उसकी मनोदशा को भाँपकर अमर कुछ सोचकर मुस्कुरा उठा। अब तक अमर और बिरजू उसके नजदीक पहुँच चुके थे।

आहट सुनकर रजनी का ध्यान उनकी तरफ गया। उनपर नजर पड़ते ही उसके हृदय में खुशी की तरंगे हिलोरें मारने लगीं जिसे अमर ने उसके चेहरे पर स्पष्ट महसूस कर लिया था। उसकी खुशी व बेकरारी को महसूस करके अमर के होठों पर भी हल्की मुस्कान तैर गई।

कुल मिलाकर आज का दिन उसकी जिंदगी का सबसे अहम दिन साबित हुआ। जमनादास के रूप में उसकी जिंदगी का सबसे बड़ा खलनायक आज उसका सबसे बड़ा मददगार साबित हुआ था। उन्हीं की मदद से वह अपने पिता गोपाल तक पहुँच पाया था और अब तो उसका प्यार, उसकी जिंदगी रजनी भी उसके करीब थी। उसे ऐसा लग रहा था जैसे आज अचानक उसे एक साथ कितनी ढेर सारी खुशियाँ मिल गई हों।
तभी बसंती का ख्याल आते ही उसका चेहरा गंभीर हो गया।

उसके मन में एक विचार बिजली की गति से कौंधा, 'क्या वह बसंती को इंसाफ दिलवा पायेगा ? अब जबकि उसे पता है कि उसकी लड़ाई उसके अपनों से ही है, क्या वह अपना कर्तव्य निभा पायेगा ?'
तभी उसके अवचेतन मन ने सरगोशी की, 'अपने ? कौन अपने ? तू उस बेगैरत बेहया औरत को अपना समझने लगा है जिसकी इज्जत उसका पति भी नहीं करता ?'
तभी उसकी अंतरात्मा चीख उठी, 'हाँ, उसी औरत की बात हो रही है। मत भूलो कि वह औरत चाहे जैसी भी है, लेकिन है तो तुम्हारी माँ समान, सौतेली ही सही लेकिन माँ तो है .. और एक माँ कभी गलत नहीं होती। क्या गलत किया उसने अपने बेटे को बचाकर ? उसकी जगह कोई भी माँ होती तो वह भी यही करती। अपने बेटे को बचाने का हरसंभव प्रयास करती, और उस औरत ने भी वही किया। ..और फिर इसकी इजाजत भी तो हमारे पूर्वज ही देते हैं जिन्होंने कहा है 'युद्ध और प्यार में सब जायज है। उसने अपने बेटे के खिलाफ चल रही कानूनी लड़ाई जीतने के लिए ही तो वह सब किया है जिन्हें हम अनैतिक कहते हैं।'

तभी उसका अवचेतन मन मुस्कुराया, 'तू बहुत भोला है अमर ! तू उस औरत को बहुत कम करके आँक रहा है। खैर, तेरी मर्जी के आगे मैं अधिक कुछ नहीं कहूँगा। बस तुझे इतना याद दिलाना चाहता हूँ कि कुरुक्षेत्र में जब सेनाएँ आमने सामने आ गई थीं, तब अर्जुन के मन में भी यही विचार आये थे। वह भी यही सोच रहा था कि क्या वह अपनों के ऊपर ही शर संधान कर पाएगा ? और सब जानते हैं उसके बाद क्या हुआ था।'

उसकी अंतरात्मा भी कहकहे लगा उठी, 'सही कहा ! सब जानते हैं उसके बाद क्या हुआ था...उसके बाद ही वह सब हुआ था जिससे इंसानियत कराह उठी थी, खून की नदियाँ बह निकली थीं। क्या रथी, क्या महारथी, क्या इंसान, क्या पशु सब इस लड़ाई में खेत रहे थे जिसे हम आज भी महाभारत के नाम से याद करते हैं। उस लड़ाई के बाद मिले नतीजे का ही परिणाम है कि उसके बाद फिर कभी कोई ऐसा भीषण संग्राम इस पृथ्वी पर नहीं हुआ। लड़ाई जब अपनों के बीच हो तो वह साधारण लड़ाई नहीं रहती, वह महाभारत बन जाती है। क्या तुम एक और महाभारत करवाना चाहते हो ?'

उसका अवचेतन मन कराह उठा, 'फिर बसंती का क्या होगा ? क्या उसको सिर्फ इसलिए इंसाफ नहीं मिलेगा क्योंकि आरोपी अब मेरे अपने निकल आये हैं ? क्या बसंती से मेरा कोई रिश्ता नहीं ? ....क्या बसंती से मेरा कोई रिश्ता नहीं ...? क्या बसंती से ....!' ये वाक्य उसके कानों में बार बार गूँजने लगा।

अचानक उसने कानों पर अपने दोनों हाथ रख लिए और जोर से चीख पड़ा, "नहीं ...…!"
और यही वह वक्त था जब साथ ही चल रहे बिरजू ने उसे कंधे से पकड़कर झिंझोड़ दिया, "क्या हो गया है तुम्हें भैया ?.. क्या ...नहीं ?"
झेंपते हुए अमर मुस्कुरा उठा, "कुछ नहीं बिरजू ! बस यूँ ही मन कहीं भटक गया था।"

अमर की चीख सुनकर रजनी और रामलाल जो कि उसके काफी नजदीक थे उठकर खड़े हो गए और बिरजू को दिया गया अमर का जवाब सुनकर थोड़ा आश्वस्त हुए थे।
दोनों रामलाल का अभिवादन कर उनके सामने की खटिया खींच कर उसपर बैठ गए।
रजनी उठकर घर के अंदर चली गई थी। अमर ने संक्षिप्त में उन्हें पूरे दिन भर की भागदौड़ का ब्यौरा समझा दिया, लेकिन गोपाल से मिलने की बात उसने पूरी चतुराई से गोल कर दिया था। उसकी बातों के मध्य बिरजू भी सहमति दर्शाते हुए बीच बीच में कुछ कह देता। वह अमर द्वारा गोपाल का जिक्र न करने की वजह समझ रहा था और इसीलिए खामोश भी था।

अभी उनकी बात खत्म भी नहीं हुई थी कि अंदर से आती रजनी ने उन्हें खाने के लिए बुलाया।

कुछ देर बाद भोजन करके सब अपने अपने खटियों पर लेटे खर्राटे भर रहे थे।

लेटने को रजनी भी आँगन में खटिया बिछाकर उसपर लेटी हुई थी, लेकिन खर्राटे तो दूर की बात उसकी तो पलकें भी भारी नहीं हुई थीं। नींद उसकी आँखोँ से कोसों दूर थी। अलबत्ता बगल वाली खटिये पर लेटी बिरजू की अम्मा के खर्राटे अवश्य बार बार उसे परेशान कर रहे थे जिससे वह कई बार तो झुँझला उठती, लेकिन फिर मौके की नजाकत समझकर खामोश हो जाती और फिर उसकी निगाहें दूर गगन में चमक रहे चाँद का मुआयना करने लगतीं।

क्रमशः