रामरति अपने पिता की पहली पत्नी की बिटिया थी। बात बहुत पुरानी हैं। हो सकता है सौ साल से भी अधिक पुरानी हो।
उन दिनों समाज के सिद्धांत और रीति रिवाज कुछ अलग ही थे। रामरति की बहुत ही छोटी अवस्था में शादी हो गई थी । संभवत शादी के समय रामरति केवल 11 साल की थी । यह पूर्ण विश्वास के साथ कहा जा सकता है की 11 साल की अवस्था में बच्चे या बच्ची को शादी का कोई ज्ञान नहीं होता । शादी होती क्या है? इस अवस्था में शाादी का महत्व समझ से परे होता है ।
शादी हो गई और शादी के पश्चात दूसरे रसम रिवाज गोना आदी भी हो गया । यह सब कुछ 2 साल के अंदर हो गया। मां तो थी ही नहीं। बाप ने सोचा चलो एक बच्ची की शादी हो गई।
रामरति अब केवल 13 साल की होगी की उसका 15 वर्षीय पति महामारी में गुजर गया। हो सकता है राम रती के कम आंसू निकले हों, क्योंकि वह शादी के बंधन को भली-भांति समझी ही नहीं थी। परंतु बाप के आंसू अधिक निकले थे। रामरति की ससुराल अपने गांव से केवल 30 किलोमीटर दूर थी । आवागमन के साधन ना होने के कारण 30 किलोमीटर बहुत दूर लगता था । रामरति के पिता को जब यह ज्ञात हुआ की उनका दामाद नहीं रहा है मानो उनके ऊपर पहाड टूट पड़ा।
उस समय की सामाजिक मान्यताएं बहुत ही क्रूर थी। दूसरी शादी करना असंभव था। राम रती के भाग्य में विध्वा होना लिखा था। खैर ! विधाता को जो मंजूर था, वही हुआ।
मायके से दूर एक 14 वर्षीय बालिका विधवा हो गई । अभी पूरी जवानी पड़ी थी और पूरा जीवन भी । एक 14 वर्षीय बालिका अपनी खेलने और खाने की अवस्था में विधवा हो गई। उपरवाले को यही मंजूर था। आज के संदर्भ में एक 14 वर्षीय बालिका को मां लाड-प्यार से सुबह उठाती है। परंतु उस समय की बालिकाओं की तकदीर में यह नहीं था। संभवत उस समय के बालकों को प्रकृति ने कर्मठ बनाया था। विधाताने रामरति के भाग्य में कुछ और ही लिखा था।
रामवती विधवा हो चुकी थी और मायके में बाप के अलावा और कोई नहीं था। ध्यान रहे की मां से मायका होता है और सास से ससुराल। एक मां ही अपनी बिटिया की व्यथा को अच्छी तरह समझ सकती है और एक बिटिया ही अपने दिल की बात अपने मां से कह सकती है। खेद है कि मायके में मां नहीं , जिससे रामरति अपने दिल की व्यथा साझा कर सके।
ससुराल में देवर ननंद आदि थे परंतु जिसके सहारे रामरति आई थी वह चल बसा था। हमेशा के लिए चला गया । रामरती को हमेशा के लिये आंसू बहाने के लिए छोड गया। परंतु इस छोटी सी आयू में रामरति यह नहीं समझी कि एक दिन ऐसा भी आएगा कि आंसू भी सूख जाएंगे। रामरति की अल्प आयु और अल्प बुद्धि थी परंतु वह एक असहनीय दुख से भी घिरी हुई थी ।
दिन बीत गए। समयके साथ आंसू भी सूख गए। समय भी बीत ता गया और राम रती के बाबा ने उस के पिता की दूसरी शादी कर दी। दूसरी मां के आने पर रामरति को अब मायका लगने लगा। उन दिनों सौतेली मां जैसा कुछ भी नहीं था। रामरति अभी अपनी बाल्यावस्था में ही थी कि एक दिन वह मां से मिलने आई। मां भी उसी भावना से मिली जिस भावना से रामरति की मां मिलती। दोनों बड़े भाव वीहोर से मिले। एक दूसरे से लिपट कर बहुत रोए । ऐसा लगा कि कई वर्षों के आंसू बह गए । मां और बिटिया का संबंध ही कुछ और ही होता है । (यहां पर लेखक सौतेली मा का प्रयोग नहीं कर रहा है)
होले होले समय बीत ता गया । रामरति अब धीरे-धीरे संसार को समझ रही थी। वह समझ गई थी कि अब यहीं पर ही रहना है। मायके में तो एक अतिथि के रूप में ही आना जाना होगा । रो के रहो या हंस के, रहना यही है । परिस्थितियों के साथ समझौता करना जीवन का दूसरा
नाम है।
सो डेढ़ सौ साल पहले लड़कियां शादी के पश्चात केवल किसी त्योहार या सावन में मायके जाती थी और वह भी जब उन्हें भाई लेने आता था । मायके जाना उत्सव से कम नहीं था। ' मां भी बेटी का बहुत बेसब्री से इंतजार करती थी कि आज उसकी बेटी घर आ रही है। महीने भर पहले से ही मां तैयारी में लग जाती थी और विचार करती थी कौन-कौन सी चीज अपनी लाडली बेटी को खिलाऐगी। कितनी बड़ी और कितनी गहरी ममता, प्यार तथा मोहब्बत थी उन दिनों। संभवत है यह आज देखने को ना मिले।
आज रामरति का भाई आ रहा है क्योंकि कुछ दिन पश्चात ही सावन का महीना आने वाला है। राम रती के मन में प्रसंता और उत्साह अपनी चरम सीमा पर है । उसका भाई अब बड़ा हो गया है और फौज में एक बड़ा अफसर बन गया है। आने जाने का माध्यम केवल एक बैलगाड़ी थी। जैसे ही बैलगाडी ने गांव की सीमा में प्रवेश किया रामरति बहुत भावुक हो गई। उसने भाई से कहा के अब तू मुझे बैलगाड़ी से उतार दे। शमशेर के मना करने पर भी रामरति नहीं मानी और बैलगाड़ी से उतर गई। जैसे ही उसके पैर गांव की मिट्टी पर पड़े उसकी अश्रु धारा बहने लगी। गांव में दूर से ही रोने के तरीके से ज्ञात हो जाता है की किसी की बहन या बेटी आई है। इस समय राम रती के मन में पुरानी यादों का जीवन के उतार-चढ़ाव का एक चक्र चल रहा था जो आंसुओं में परनीत हो रहा था। टूटे फुटे घर कि सामने एक चारपाई पड़ी हुई थी और कुछ पग दूर घर के डगर में मां रामरति का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। रामरति कई सालों के पश्चात घर आई थी। मां और रामरति का मिलन के दृश्य का वर्णन नहीं किया जा सकता। इसका वर्णन तो केवल कृष्ण या सुदामा ही कर सकते हैं। प्रेम तथा भावनाओं से मिला हुआ मिलन दिव््य हुआ करता है।
रामरति कुल मिलाकर छः बहने और दो भाई थे। भाई सबसे छोटे थे।शमशेर बड़ा भाई था और फौज में एक अफसर था। वह घर की हर प्रकार से सहायता करता था। उसने अग्रिम वेतन लेकर अपनी तीन बहनों तथा अपने छोटे भाई की शादी की थी। उस समय एक सामाजिक नियम था कि नौकरी करने वाला बेटा मां के लिए वेतन का कुछ अंश हर महीने भेजता था । इस नियम में बहुत बड़ा और गहरा सिद्धांत छिपा हुआ है । जिस मा ने जन्म दिया है उसका परउपकार बेटा कभी भी उतार नहीं सकता। आज की युवा पीढ़ी यह नहीं समझ सकती। हालांकि यह विषय इस कहानी से अलग है परंतु इसका महत्व बताना आवश्यक है । जीवन में पैसा बहुत महत्वपूर्ण है परंतु उससे भी महत्वपूर्ण मां का आशीर्वाद । मां के आशीर्वाद में बहुत बड़ा राज छुपा हुआ है और वह रहस्य है की मां का आशीर्वाद वैतरणी को भी पार करा देता है। संसारज्ञतो चीज ही क्या।
मां बाप शमशेर को बहुत चाहते थे। शमशेर ने अपना पूरा जीवन मां-बाप को समर्पित कर दिया था । मां के शरीर छोडते ही मां की आत्मा अपने लाडले को देखने लद्दाख पहुंची। किन्हीं कारणवश शमशेर अपनी मां के अंतिम दर्शन न कर पाया था । यही हाल शमशेर के पिता के देहांत के समय हुआ, वह उस समय भी उपस्थित ना हो सका। यह फौजी की देश भक्ति है ।
शमशेर केवल मां-बाप का लाडला नहीं था वरन रामरति का सबसे प्रिय और लाडला भाई भी था। रामरति शमशेर से कम से कम 25 साल बड़ी थी। वह शमशेर को इतना प्यार करती थी कि उसने शमशेर का नाम अपने हाथ पर गुदवा रखा था। ससुराल में जाकर वह अपनी हम उम्र की लड़कियों को अपना हाथ बडे गर्व से दिखाती थी कि यह मेरे भाई का नाम है, मैं उसे बहुत प्यार करती हूं।
रामरति ने अब अपनी परिस्थितियों के साथ समझौता कर लिया था। उसको यह भली-भांति ज्ञात हो गया था की इस संसार में बैठकर कोई किसी को नहीं खिला सकता है। उसे ससुराल में रहकर कोई ना कोई काम अवश्य करना पड़ेगा। किसान के घर में पूरे 12 महीने एक ही प्रकार की दिनचर्या चलती है। सुबह उठो गाय बैल भैंसों की देखरेख करो खेत पर जाओ पशुओं के लिए चारा लाओ आदि आदि। रामरती के भाग में बस अब यही लिखा था। रामरति बड़े मनोभाव से अपने घर का पूरा काम करती थी । खेतों से पशुओं के लिए चारा लाना कुट्टी काटना आदि।इसे वह एक प्रकार से पूजा-पाठ के समान करती थी। उसके लिए यही मंदिर था। वैसे भी उन दिनों मंदिर में जाने का कोई अधिक प्रचलन नहीं था। घर का काम करना सबसे बड़ा मंदिर था। संभवतः अदृश्य शक्ति ने रामरति को केवल इस कार्य के लिए ही भेजा था। यहां यह समझ लेना आवश्यक है कि घर के कामकाज के लिए रामरति को किसी भी प्रकार से आर्थिक सहायता नहीं मिलती थी।
तीज त्योहार होली दिवाली आदि पर्व पर रामरति को नए कपड़े अवश्य मिल जाते थे और इसके साथ कुछ पैसे भी। रामरति का वैसे तो कोई खर्चा नहीं था परंतु संसार में पैसे की आवश्यकता किस को नहीं ? अर्थशास्त्री कौटिल्य कहते हैं की बिन पैसा सब सून। कौटिल्य के अनुसार पैसे में रजाई से भी अधिक गर्मी होती है। इसलिए जीवन के हरे क्षेत्र में पैसे की आवश्यकता होती है। रामरति इस सिद्धांत से अछूती नहीं थी । उसे भी पैसे की आवश्यकता थी ।
रामरति को पैसे का मुख्य साधन उसका भाई था । शमशेर अपनी बहन को हर रक्षाबधन तथा प्रत्येक भाई दूज पर पैसे तथा उपहार अवश्य भेज ता था । यहां पर एक और छुपी हुई शक्ति को समझ लेना आवश्यक है । बहन को और बहन के बच्चों को आर्थिक मदद करना बहुत बड़ा उपकार का या दान का कार्य है । आपकी बहन कितनी भी अमीर हो परंतु आप उस को उपहार स्वरूप कुछ देते हैं तो वह अवश्य आपके दान के खाते में लिखी जाएगी और वह वहां स्वर्ण अक्षरों में लिखी जाएगी। इसलिए, बहन कैसी भी हो उसे किसी न किसी रूप में सहायता अवश्य करते रहिए ।
रामरति इन पैसों को एकत्र करती रहती थी । अब समय बदल गया था। रामरति के मायके से चार कोस दूर तक बस आ जाती थी। जब कभी भी किराए के लिए पैसे एकत्र हो जाते थे रामरति अवश्य अपने मायके मां से मिलने आ जाया करती थी। वहां पर वह अपनी पुरानी स्मृतियों को याद कर लिया करती थी। उसका मायके आने से जीवन में नई शक्ति तथा स्फूर्ति पैदा हो जाती थी। ससुराल मैं तो जीवन एक प्रकार का यंत्रवत रहता था।
विधाता की सबसे विचित्र यह बात है कि उसने किसी भी प्राणी के मुकद्दर में हमेशा दुख ही नहीं लिखा है। यदि रात्रि है तो दिन भी है । दुख है तो सुख भी है। रामरति के जीवन में एक बहुत बड़ा मोड़ आया। उसकी देवरानी के दो जुड़वा पुत्र हुए। रामरति की देवरानी उसे बहुत सम्मान और आदर दिया करती थी। देवरानी रामरति की स्थिति से बहुत विचलित थी। परंतु जिस दिन देवरानी के दो जुड़वा पुत्र हुए उसने यह निश्चित कर लिया की वह एक पुत्र रामरति की गोदी में अवश्य देगी । दोनों पुत्र स्वस्थ थे और सुंदर। उन दिनों आपस में भेदभाव आपस में मनमुटाव, आपस में बैर भाव आदि नकारात्मक सोच परिवारों में बहुत कम हुआ करती थी। घर में यदि तरकार नहीं बनी है तो पूरा परिवार बड़ी प्रशंसा से चटनी से भोजन कर लिया करता था परंतु अभाव महसूस नहीं करता । भगवान को धन्यवाद देकर भगवान को अर्पित करके भोजन किया जाता था। रामरति की देवरानी ने एक दिन पंडित जी को बुलाकर सतनारायण की कथा करवायी तथा अपना एक पुत्र रामरति की दे दिया।
रामरति को अपने जीवन में दूर दूर तक ऐसा सोचा भी नहीं था । कि एक दिन उसकी देवरानी उसे इतना बड़ा उपहार देगी। रामरति की प्रसन्नता की कोई सीमा नहीं रही। वह प्रसन्नता के कारण कुछ समय के लिए अपने अतीत को भूल गई और सुखमय जीवन व्यतीत कर ने लगी। उसे भी मां बन ने का सौभाग्य प्राप्त हो चुका था।
तुलसीदास ने सही कहा है कि जहां सुमति है वहां समाप्ति है
LM Sharma