रामानुजन की स्वाभाविक पूजा आदि में अभिरुचि का उल्लेख पहले हुआ है। नामगिरी देवी के प्रति उनके परिवार का एवं उनका विशेष अनुराग था ही। वह अंत तक नागगिरी देवी को ही अपने शोध कार्य एवं सूत्रों की प्रदायिनी बताते रहे। इसलिए उनके जीवन में यह विधा विशेष स्थान रखती है। उन्होंने परिवार के परिवेश में रामायण एवं महाभारत के कथानक बड़े मनोयोग से पढ़े-सुने थे। कदाचित् उपनिषदों में उठाए गहन प्रश्न एवं उनके समाधानों को उन्होंने गहराई से आत्मसात् किया था।
अंग्रेजी में श्रीनिवास रामानुजन की जीवनी लिखने वाले श्री कैनिगेल का कहना है कि रामानुजन का आध्यात्मिक पक्ष बड़ा प्रबल था। अपने पचियप्पा कॉलेज में पढ़ने के दिनों में उन्होंने एक बीमार बच्चे के माता-पिता को बच्चे के स्थान परिवर्तन की सलाह इसलिए दी थी, क्योंकि उनका मानना था कि ‘मृत्यु पूर्व निश्चित स्थान एवं समय के संयोग के बिना नहीं होती’, और स्थान परिवर्तन से उसे स्वास्थ्य लाभ हो सकता था। इसके अतिरिक्त एक बार स्वप्न में उन्होंने एक हाथ को रक्त से सने लाल पट पर अंडाकार आकृतियाँ बनाते हुआ देखा था। गणित के इल्पिटिक फलनों पर रामानुजन ने काफी कार्य किया है।
अंकों में वह रहस्य एवं अध्यात्म देखते थे। वह सत्ता को शून्य और अनंत के रूप में कल्पित करते थे। उनके विचार से शून्य पूर्ण सत्य का निर्विकार प्रतिरूप है और अनंत उस पूर्ण सत्य से प्रक्षेपित विचित्र सृष्टि गणित का थोड़ा सा ज्ञान रखने वाले व्यक्ति भी यह जानते हैं कि कुछ संख्याओं को गणित में अनिश्चित माना जाता है और उनका मान विभिन्न परिस्थितियों में अलग-अलग हो सकता है। ऐसी एक स्थिति 0 x ∞, अर्थात् शून्य एवं अनंत के गुणा की भी है। यह गणित में अनिश्चित है। इसका फल कोई भी संख्या हो सकती है। रामानुजन इसे ब्रह्म एवं सृष्टि से जोड़ते थे, अर्थात् ब्रह्म एवं सृष्टि के गुणों से कोई भी फल (अंक अथवा संख्या) हो सकता है।
अंकों के रहस्य के बारे में वह बहुत सोचते थे। अपने एक मित्र को संख्या 2n–1 के बारे में उन्होंने बड़ी रोचक बातें बतलाई थीं। उनके अनुसार यह संख्या आदि ब्रह्म, विभिन्न दैवी एवं अन्य आध्यात्मिक शक्तियों का निरूपण करती है। जब n = 0 तब यह संख्या शून्य है, जिसका अर्थ है अनित्यता, जब n = 1 तब इसका मान 1 अथवा आदि ब्रह्म है और जब n = 2 है तब इसका मान 3 देवों को प्रस्तुत करता है तथा n = 3 लेने पर इसका मान 7, सप्त ऋषियों को। 7 की संख्या को वह अंकों के रहस्यवाद से काफी महत्त्व का मानते थे।
आगे के अध्यायों में उनके इंग्लैंड (कैब्रिज) प्रवास-काल का उल्लेख विस्तार से होगा। वहाँ उनकी भेंट भारत के प्रसिद्ध सांख्यिकिक श्री पी. सी. महालनोबिस से हुई और वे दोनों भारतीय बहुधा मिलकर बातें किया करते थे। महालनोबिस का कहना था कि “रामानुजन दार्शनिक प्रश्नों पर इतने उत्साह से बोलते थे कि मुझे लगता उन्हें गणित के सूत्रों को जी-जान से सिद्ध करने में लगने के स्थान पर अपने दार्शनिक सूत्रों के प्रतिपादन में लगना चाहिए था।”
रामानुजन ने एक बार अपने मित्र से पूरी निष्ठा से कहा था—
“यदि कोई गणितीय समीकरण अथवा सूत्र किसी भगवत् विचार से मुझे नहीं भर देता तो वह मेरे लिए निरर्थक है।”
यह विचार उनके उत्कृष्ट अध्यात्म का परिचायक है। उनका जीवन भारतीय आध्यात्मिक परंपरा के अनुरूप पूर्ण समर्पण का था—गणित में ब्रह्म का, आत्मा का एवं सृष्टि के साक्षात्कार का।
सत्य तर्क का विषय नहीं होता, परंतु तर्क के विपरीत भी नहीं होता। जो सत्यद्रष्टा रहस्य और तर्क में सामंजस्य स्थापित करने में सफल हो जाता है वह भारतीय परंपरा में ऋषि है। एक ऋषि की भाँति वह अपने सूत्रों के द्रष्टा थे, जिनको उन्होंने अलौकिक दृष्टि से देखा और अपनी तार्किक बुद्धि से प्रतिपादित अथवा सिद्ध किया।
वैज्ञानिकगण शोध को दो भागों में बाँटते आए हैं—खोज (Discovery) और आविष्कार (Invention)। खोज में गुप्त को प्रकट करने की प्रक्रिया होती है और आविष्कार में नए सृजन की। पहले में रहस्योद्घाटन की प्रक्रिया है और दूसरे में वैचारिक विश्लेषणस्वरूप प्राप्त ठोस परिणाम की। रामानुजन को बहुत निकट से जानने वाले प्रो. हार्डी ने उनके कार्य को सृजन-प्रक्रिया की देन मानकर सराहा है। कैनिगेल ने उनकी जीवनी लिखने के लिए लेखनी उठाने से पूर्व उनके व्यक्तित्व एवं मानसिक-सामाजिक परिवेश का गहन अध्ययन किया था। वह उनके दिए सूत्रों को खोज की श्रेणी में रखकर उनके आध्यात्मिक पक्ष को प्रबल मानते हैं। क्लिष्ट सूत्रों का त्रुटिहीन प्रतिपादन हार्डी के विश्वास का आधार है तो ऐसे बहुत से क्लिष्ट सूत्र जिनका प्रतिपादन वह अपने जीवन में नहीं दे पाए और उनमें से कुछ पर बाद में कार्य हुआ है और चल रहा है, कैनीगल की धारणा को दृढ़ करते हैं। वास्तविकता यह है कि रामानुजन में दोनों ही पक्ष—आध्यात्मिक रहस्यवाद एवं विश्लेषणात्मक सृजन-बुद्धि—का अनोखा संगम था।