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उधर, महाराजा छत्रसाल, बुंदेलों को एक सूत्र में बांधकर, मुगलों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए, बुंदेलखंड का चतुर्दिक विस्तार करने में व्यस्त थे। महाराजा छत्रसाल के इस अभियान में राव रामचंद्र का भी पर्याप्त योगदान रहा। इस क्रम में, सन 1721 मैं राव रामचंद्र ने बुंदेली एकता का प्रदर्शन करते हुए, महाराजा छत्रसाल के बुलावे पर, मौदहा के युद्ध में, इलाहाबाद के सूबेदार मोहम्मद शाह बंगश के विरुद्ध भीषण वीरता का प्रदर्शन कर, बंगश के सिपहसालार दिलेर खाँ को मार गिराया। इस युद्ध में ओरछा महाराज उद्दोत सिंह तथा चंदेरी के दुर्जन सिंह भी शामिल रहे।
1722 में गोहद के जाट सरदार बदन सिंह ने दतिया सेवड़ा के मध्य स्थित 84 ग्राम क्षेत्र (अब इंदरगढ़) पर आक्रमण कर, भारी लूटपाट की। महारानी सीता जू ने खबर भेज कर रामचंद्र को वापस बुलाया और हालात से अवगत कराया। महाराजा राव रामचंद्र ने बदनसिंह को लाँच घाट पर घेर कर बुरी तरह पराजित किया। युद्ध में हार कर बदन सिंह नदी पार करके वापस भाग गया। मोहम्मद खाँ बंगश ने 1723 में रामचंद्र को उरई जागीर में देने का लालच तथा मुगल सूबेदार होने का भय दिखला कर अपनी तरफ मिलाने का प्रयास किया, किंतु रामचंद्र यह प्रस्ताव अस्वीकार करके महाराजा छत्रसाल का साथ देते रहे। चौरासी ( इंदरगढ़ ) पर आक्रमण के बाद, सजग रानी सीता जू ने पुत्र रामसिंह को भेजकर भर्रौली में गढ़ी का निर्माण कराया, अपने रिश्तेदारों एवं समथर से बुलाकर, तमाम गुर्जरों, सेना के अन्य क्षत्रिय परिवारों को, उक्त क्षेत्र के गांवों में बसाकर अपनी पकड़ मजबूत की।
राव रामचंद्र, पन्ना महाराज छत्रसाल के साथ मोहम्मद बंगश के विरुद्ध युद्धों में संलग्न रहे, किंतु 1726 में रामसिंह पिता का साथ छोड़कर, वापस दतिया चले आये। 1726 से 1727 तक 1 वर्ष वे दतिया ही रहे। जल्दी राजा बनने के इच्छुक रामसिंह को, पिता की गैरमौजूदगी में, मां की हुकूमत नागवार गुजरने लगी तो वे मनमानी पर उतारू हो गये। इस बीच उन्होंने कुछ ऐसी घटनाओं को अंजाम दिया, जिनके दंड स्वरूप 1727 में ही रानी सीता जू ने अपने पुत्र रामसिंह को युवराज पद से हटाकर, रामसिंह के पुत्र गुमानसिंह को युवराज घोषित कर दिया। इस पर रामसिंह ने अपने पुत्र की भी जान लेने की कोशिश की। सीता जू ने इस कृत्य को अक्षम्य मानते हुए रामसिंह को देश निकाला दे दिया। जिसके बाद रामसिंह ने झांसी के पास मैरी गांव में अपना डेरा जमा लिया।
दुर्भाग्यवश 1728 में गुमानसिंह को तत्समय असाध्य, संक्रामक खसरा रोग (स्मॉल पॉक्स) ने गंभीर रूप से बीमार कर दिया। वैद्यों की सलाह पर रानी सीता जू ने उन्हें रामसागर के सीतागढ़ ( खोड़न दुर्ग ) में स्वास्थ्य लाभ हेतु रखा। कुछ माह बाद गुमानसिंह का देहांत हो गया। गुमान सिंह की मृत्यु के समय उनकी पत्नी पद्म कुँवरि गर्भवती थीं। दाह संस्कार से पूर्व, राजपरंपरा के अनुरूप, गुमानसिंह के दाएं पैर के अंगूठे से, गर्भस्थ शिशु का, मां के पेट पर तिलक करा कर, सीता जू ने उसे युवराज घोषित कर दिया। और नामकरण हुआ इंद्रजीत।
गुमानसिंह की मौत की खबर पाकर राम सिंह दतिया लौट आये। आखिरकार मां ने उन्हें माफ करके पिता के पास भेज दिया। दो वर्ष बाद, 1730 के गादीपुर युद्ध में, मुगल वजीरों तथा पिता का साथ देते हुए, असोथर के जागीरदार भगवंत सिंह खींची के विरुद्ध लड़ाई में रामसिंह ने वीरगति प्राप्त की। इस युद्ध में भगवान सिंह खींची के पिता भी मारे गये। असोथर किले पर रामचंद्र का कब्जा हो गया। रामसिंह की समाधि गादीपुर में ही बना दी गई।
1632 में राव रामचंद्र ने एक बार फिर मोहम्मद खाँ बंगश के विरुद्ध जैतपुर युद्ध में, महाराजा छत्रसाल के पुत्र जगतराज का साथ देकर, विजय श्री दिलाई।
1731 में महाराजा छत्रसाल ने पेशवा बाजीराव को अपनी मदद के लिए आमंत्रण दिया, तो, अब तक गैर राजपूतों के लिए बंद यह मार्ग, मराठों के लिए खुल गये। यहाँ आने के बाद मराठों ने, क्षेत्रीय रियासतों-जागीरो में हमले- लूटपाट-कब्जे आरंभ कर दिये।
यह वह समय था, जब दतिया के पूर्व राजाओं भगवान राय, शुभकरण, दलपत राव तथा इनकी संतानों के पराक्रम का बुंदेलखंड से दक्षिण तक डंका बजता था। किंतु 1733 आने तक मराठा सरदार, नजदीकी राजाओं से कर वसूलने पर आमादा हो गए थे। झांसी के मराठा सरदार ने, बाजीराव के हवाले से, चार लाख रुपये कर के रूप में दतिया से भी मांगे, परंतु सीता जू ने राव रामचंद्र की अनुपस्थिति में 'कर' देने से साफ इनकार कर दिया। 1734 से 35 के मध्य, जबरन 'कर' वसूलने के लिए, मराठा सरदार पीला जी जाधव (गायकवाड़) ने झांसी से सटे दतिया के गांवों पर आक्रमण करके लूटपाट की। लेकिन राव रामचंद्र के आगे मराठे टिक नहीं सके और उन्हें भारी नुकसान उठा कर वापस भागना पड़ा। इस युद्ध में राव रामचंद्र के साथ, खान दौरान तथा वजीर कमरुद्दीन भी शामिल रहे।
अगर रामचंद्र कुछ वर्ष और रहते तो शायद किस्से कुछ और ही होते मगर दतिया का दुर्भाग्य, 1736 में रामचंद्र ने कड़ा जहानाबाद में छुपे भगवंत सिंह खींची पर आक्रमण किया, आमने-सामने के युद्ध में भगवंत सिंह मारे गए, किंतु विजय प्राप्त करने के बावजूद गंभीर रूप से घायल राव रामचंद्र की भी कड़ा के किले में दूसरे दिन ही मृत्यु हो गई। उनका स्मारक कड़ा में ही बनवाया गया।
1736 में राव रामचंद्र की मृत्यु के पश्चात, इंद्रजीत का राज्याभिषेक हुआ तत्समय वे 8 वर्ष के थे। आजी रानी सीता जू संरक्षक बनीं। इस तरह अगले 15- 16 वर्षों तक सीता जू का राजकाज में सीधा हस्तक्षेप रहा।
हालांकि इन 15-16 वर्षों के बाद भी इंद्रजीत अपनी आजी राजमाता (परदादी) की सलाह से ही कदम उठाते रहे।राजा इंद्रजीत भी अपने पूर्वजों की ही तरह बहादुर तथा पराक्रमी थे, किंतु वे यह भी जानते थे कि सीता जू की बदौलत ही वे राजा बन पाये।