Datiya ki Bundela kshatrani Rani Sita ju - 8 in Hindi Women Focused by Ravi Thakur books and stories PDF | दतिया की बुंदेला क्षत्राणी रानी सीता जू - 8

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दतिया की बुंदेला क्षत्राणी रानी सीता जू - 8

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लेकिन रानी ने सीधा हमला करके खून खराबा करने के बजाय, युक्ति पूर्ण कब्जे की योजना बनाई। जबकि अपने पराक्रम की धुन में, रामचंद्र सीधा आक्रमण करने के पक्ष में थे। ऐसे में नौनेशाह ने रानी की सोच को उचित ठहरा कर रामचंद्र को शांत किया। दूसरी ओर भारतीचंद के राज्य अभिषेक की तैयारियाँ जोरों पर थीं। नई सेना पाकर गर्वोन्मत्त भारतीचंइद, आसन्न संकट से बेखबर थे। और फिर, राज्याभिषेक के ही दिन, अर्धरात्रि में रामचंद्र राव ने अचानक चारों ओर से हमला कर, प्रतापगढ़ दुर्ग को अपने कब्जे में लेकर भारतीचंद को बंदी बना लिया।
इस कार्य में रानी सीता जू के उन भीतरी सहयोगियों ने किले के फाटक खोल कर मदद की, जिन्हें वे बहुत पहले ही अपनी ओर मिला चुकी थीं। भारतीचंद को भरतगढ़ महल के एक भाग में नजरबंद कर दिया गया । वह अगले 3 माह तक सपरिवार वहीं रहे।
किले पर कब्जा करने के अगले दिन भारतीचंद की सेना ने भी समर्पण कर के राव रामचंद्र को अपना राजा स्वीकार कर लिया। तीसरे दिन राव रामचंद्र का राज्याभिषेक संपन्न हुआ।

राजधानी नगर दतिया की सुरक्षा व्यवस्था नौने शाह गुर्जर को प्रधान सेनापति बनाकर सौंप दी गईं। किले प्रतापगढ़ दुर्ग की अंदरूनी सुरक्षा व्यवस्था की कमान, रघुवंशी कायस्थ को सौंप कर, उन्हें पूर्व दीवान नवल सिंह बेढ़कर का प्रभार दे दिया गया। राव रामचंद्र के राज्याभिषेक के पश्चात ओरछा एवं पन्ना की सेनाएं वापस लौट गईं किंतु रानी सीत जू के आग्रह पर नौनेशाह एवं रघुवंशी कायस्थ को ओरछा महाराज ने दतिया महाराज की सेवा में दे दिया। इस पर रानी सीता जू ने नौनेशाह गुर्जर को समथर के 5 गाँव जागीर मैं दिए तथा उनके पुत्र मर्दन सिंह को समथर का किलेदार बना दिया।
राव रामचन्द्र एक अत्यंत पराक्रमी महान योद्धा और दुस्साहसी व्यक्ति थे, परंतु अच्छे रणनीतिकार अथवा कुशल राजनीतिज्ञ नहीं थे। कूटनीति से तो दूर-दूर तक नाता नहीं था। यह गुण, रानी सीता जू में ईश्वर प्रदत्त थे। यही कारण है कि सारे महत्वपूर्ण फैसले रानी सीता जू के कथनानुसार ही होते थे।
रानी सीता जू का 15 वर्ष की आयु में विवाह हुआ। विवाह के तुरंत बाद ही सत्ता हथियाने की उठापटक और षड़यंत्रों का सिलसिला आरंभ हो गया। 16 वें वर्ष में पुत्र के जन्म के साथ ही उन्होंने राज्य अधिकार वापसी के प्रयास आरंभ किए। 18वें वर्ष में अपनी सास मां के देहांत का सहारा लेकर ससुराल में वापसी की और इसके बाद क्षमता, सामर्थ्य, प्रभाव, समर्थन तथा सहयोग संचित करने का, अगले 11 वर्षों तक का संघर्षपूर्ण समय, तब कहीं जाकर 29 वर्ष की आयु में राजरानी पटरानी बनने के राजयोग का सपना साकार हो सका। और यहीं से महारानी सीता जू की वास्तविक कहानी प्रारंभ होती है।
प्रत्यक्षतः तो राजा रामचंद्र ही थे परंतु उनका अधिकांश समय युद्ध भूमि में ही बीता, इसीलिए दतिया पर अप्रत्यक्ष रूप से वास्तविक हुकूमत सीता जू की ही रही। रामचंद्र, सीता जू के बुद्धि कौशल के कायल हो चुके थे, इसलिए सीता जू का हर निर्णय सहज ही शिरोधार्य कर लेते थे। गद्दी हस्तगत करने में सीता जू की भागीदारी वैसे भी अनदेखी करने लायक नहीं थी।
भारतीचंद के, सत्ता हथियाने के प्रयास, इसके बाद भी खत्म नहीं हुए। जब 1708 में वह बादशाह बहादुर शाह के पास गए और उसने इन्हें भी दो टूक जवाब देकर टरका दिया। हताश होकर भारतीचंद दतिया वापस आ गये। फर्रूखसियर के काल में भी वे उनसे मिले, फर्रूखसियर ने आश्वासन तो बहुत दिये पर किया कुछ नहीं। इसके बाद भी भारतीचंद शांत नहीं बैठे। वे कभी पन्ना तो कभी ओरछा, भागदौड़ करते ही रहे। वर्ष 1711 में गंभीर बीमारी से उनकी मृत्यु हो गई, तब कहीं जाकर दतिया राज्य के सत्ता संघर्ष का यह अध्याय समाप्त हुआ। लोगों में ऐसी धारणा है कि हर वक्त सिंहासन पर मँडराते खतरे को दूर करने में भी रानी सीता जू के ही किसी षड्यंत्र की भूमिका रही थी।
रानी सीता जू वह स्वर्णिम व्यक्तित्व थीं जिन्होंने जीवनपर्यंत एक ओर अपने परिवार तथा बुंदेली रियासतों से राजगद्दी बचाने के लिए संघर्ष किया, वहीं दूसरी ओर मुगलों, मराठों तथा जाटों की लूटपाट एवं हड़प नीतियों से, दतिया राज्य और अपनी प्रजा को सुरक्षित रखने के लिए, साम- दाम- दंड- भेद की चतुराई पूर्व कूटनीति से कार्य किया।
प्रजा की सुख समृद्धि के लिए रानी सीता जू ने, नगर सौंदर्यीकरण, निर्माण कार्य, विभिन्न बाजार, हस्तशिल्प आदि के कुटीर उद्योग तथा आवागमन के मार्ग एवं सुरक्षार्थ गढ़ी-किले-चौकिया, सराय इत्यादि बनवाये। रानी सीता जू के समय में ही, मंदिरों- आश्रमों पर सदाव्रत बँटने की परंपरा शुरू की गई (लंगर नुमा भोजन वितरण ) । दूरदृष्टि सीता जू ने अपने पुत्र रामसिंह को युवराज बनवाने के साथ-साथ गुमान कुँवर के पुत्रों, रघुनाथ सिंह आदि को खासगी बँगरा नदीगांव की जागीर देकर, सिंहासन की आगामी दावेदारी को राजधानी से दूर धकेल दिया। इसी तर्ज पर, उन्होंने अपने देवर सेनापति को रामपुर जागीर देकर संतुष्ट किया, साथ ही करण जू को भी 5 गांव जागीर में दिये। इसी समय सीता जू राव रामचंद्र के साथ बृज यात्रा पर निकलीं और वहीं से आगरा में बहादुरशाह के दरबार मैं पहुंचकर हाजिरी दी। बेगमों ने रानी को उपहार दिये, तो बादशाह ने रामचंद्र को दलपत राव वाला मनसब वापस दे दिया।
राज्य की व्यवस्थाओं से संतुष्ट होने के पश्चात सीता जू ने 1710 में अपने पुत्र राम सिंह का विवाह कराया। अगले ही वर्ष 1711 में रामसिंह के पुत्र गुमानसिंह का जन्म हुआ। उधर 1711 से 1713 के बीच मुगल बादशाहों ने अपनी राजधानी दिल्ली में स्थाई कर ली थी। फर्रूखसियर मुगल तख्त पर बैठ चुका था। मुगलों से लंबे समय से असंबद्धता खतरे की आशंका उत्पन्न कर रही थी। नया बादशाह, बहादुरशाह के समय से ही भारतीचंद का समर्थन प्रदर्शित करता रहा था, लेकिन बाद में उपहार/खिलअत रामचंद्र को भी पहुंचा चुका था। सीता जू ने सभासदों से सलाह मशवरा करके रामचंद्र को दरबार में भेजा, किंतु इस ताकीद के साथ कि सदा सतर्क और सशस्त्र रहें।अकेले भी कहीं ना जायेंं । 1713 में जब रामचंद्र दिल्ली दरबार मैं उपस्थित हुए, तो सशस्त्र होकर ही दरबार में पहुंचे। जबकि तमाम आशंकाओं के कारण, उस समय मुगल दरबार में अस्त्र-शस्त्र ले जाने पर कड़ी पाबंदी थी। सख्ती से जबाब तलबी हुई, लेकिन रामचंद्र का जवाब सुनकर बादशाह खुश हो गया। रामचंद्र ने कहा, 'क्षत्रिय के जन्म के साथ ही उसके सिरहाने तलवार रख दी जाती है, मरने के बाद भी उसके सीने पर तलवार रखी जाती है, इस तरह, पैदा होने से मरने तक, तलवार ही उसका जीवन होता है। इसीलिए इसे त्यागा नहीं जा सकता। फर्रूखसियर ने राव रामचंद्र को पुराने मनसब सहित मान्यता देते हुए, सम्मान में एक तलवार तथा खिलअत देकर विदा किया।
1714 से 1721 तक रानी सीता जू निर्माण एवं विकास के कार्यों में ही संलग्न रहीं। सीतासागर बांध (अब तालाब), बालाताल (अब नयाताल), तरणताल, लक्ष्मण ताल, बालाजी मंदिर धर्मशाला, नरगढ़ की गढ़ी, कंचन मढ़िया, राजगढ़ जीर्णोद्धार तथा अतिरिक्त सहन निर्माण इत्यादि। इसी बीच अयोध्या तथा वृंदावन- मथुरा से, पूर्व में मुगलों द्वारा तोड़े गए मंदिरों की प्रतिमाएँ दतिया लाकर, उनके मंदिर भी बनवाये। हालाँकि कुछ मंदिर उन्होंने बाद के वर्षों में बनवाये। राव रामचंद्र, इन वर्षों में करेरा से नदीगाँव तक, इटावा से एरच तक राज्य के विस्तार एवं सुरक्षा व्यवस्थाएँ सुदृढ़ करने में जुटे रहे।