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1701 में रामचंद्र राव ने विचित्र कुँवरि से पांचवी शादी की। इससे पूर्व सीता जू के अलावा, वे तीन और शादियां कर चुके थे। सीता जू के बाद की गई चारों शादियाँ सीता जू की सहमति-परामर्श के अनुसार, राजनीतिक कारणों से की गई थीं। इससे राव रामचंद्र का कुनबा बड़ा होता गया। समर्थन तथा प्रभाव भी बढ़ता गया। विचित्र कुँवरि से 3 पुत्र, रघुनाथ सिंह, अजीत सिंह एवं बुध सिंह का जन्म हुआ।
1701 की इस घटना के बाद रामचंद्र वापस लौट गए, जबकि सीता जू ने रामचंद्र राव की चारों रानियों के परिजनों सहित, दूरदराज के रिश्तेदारों को भी बुला कर, दतिया तथा दतिया के आसपास के ग्रामों में बसाना शुरू कर दिया। इसी समय सीता जू ने अपने पिता तथा उनके कुटुंब के सुरक्षित आवास के लिए, दतिया नगर के पश्चिमोत्तर सिरे की एक पहाड़ी पर, रणनीतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण भरतगढ़ महल का निर्माण कराया। वर्ष 1705 तक में रानी सीता जू 500 पैदल एवं 300 सवारों की एक सशक्त घरेलू फौज का संगठन कर चुकी थीं।
यह फौज अलग-अलग टुकड़ों में, नगर के अलग-अलग भागों के अलावा सीतापुर नामक गांव बसाकर रखी गई थी। इस फौज के सैनिक अच्छी तनख्वाह पाते थे और निर्माण मजदूरों का स्वांग करते हुए, किसी न किसी निर्माण कार्य में संलग्न रहते थे। रानी सीता जू ने इसी फौज के सहयोग से रामसागर एवं " सीतागढ " ( खोड़न ) दुर्ग तथा भरतगढ़ का निर्माण कराया।
1705 में भारतीचंद सीता जू की बढ़ती फौज और जन प्रभाव के दबाव में, अपनी हत्या की आशंका से घबड़ा कर, एक बार फिर दक्षिण में अपने पिता के पास, मुगल सेवा में पहुंच गए। दक्षिण जाने से पूर्व भारतीचंद प्रशासक का दायित्व पृथ्वीसिंह रसनिधि को सौंप गए। इस तरह पृथ्वीसिंह सेवढ़ा से दतिया किले में आकर रहने लगे।
सीता जू ने भारतीचंद के पलायन के पश्चात 1 वर्ष तक शांति से किसी नई घटना की प्रतीक्षा की, किंतु जब कुछ नहीं हुआ तो 1706 में उन्होंने राव रामचंद्र को दक्षिण से वापस बुला भेजा। 1706 के अंत में राव रामचंद्र दक्षिण से बीमारी का बहाना बनाकर दतिया आये और गुपचुप तैयारियों में लग गए। इस बीच सीता जू ने भगवान रामराजा के दर्शनों के बहाने कई बार ओरछा यात्राएँ कीं। बार-बार के आवागमन से सीता जू के संबंध ओरछा महाराज उद्दोत सिंह की बेरछा वाली रानी रूपकुँवरि से बहुत ही मधुर और घनिष्ठ हो गए। सीता जू ने रानी से, रामचंद्र के राज्यारोहण में मदद का कौल-करार भी ले लिया। दूसरी तरफ दलपत राव से असंतुष्ट महाराजा छत्रसाल के पास अपने पिता के हाथों पत्र भेज कर, समय पड़ने पर सहायता की गुहार लगाई, जिसे महाराजा छत्रसाल ने राजनैतिक कारणों से स्वीकार कर लिया।
यह खबरें पृथ्वीसिंह को मिलीं, तो भयभीत होकर, जनवरी 1707 में, वह भी दतिया छोड़ पिता के पास के पास जा पहुँचे। इसी समय वर्ष 1707 के फरवरी माह में अहमदनगर में औरंगजेब की मृत्यु उपरांत मुगल शहजादों में उत्तराधिकार का संघर्ष आरंभ हो गया। दलपत राव ने इस संघर्ष में शहजादा आजमशाह का पक्ष ग्रहण किया। 20 जून 1707 को आगरा से पूर्व में, दिल्ली की ओर, 20 मील की दूरी पर, जाजऊ नामक स्थान पर, शहजादा आजमशाह और शहजादा मुअज्जम बहादुर शाह में भीषण युद्ध हुआ। इसी युद्ध के दौरान तोप का एक गोला महाराजा दलपत राव के हाथी के हौदा में आकर फटा जिससे दलपतराम वीरगति को प्राप्त हुए। इस युद्ध में दलपत राव के साथ कवि जोगीदास जसौंदी, भारतीचंद तथा पृथ्वीसिंह के अलावा बड़ौनी जागीरदार छत्रसाल (शुभकरण के बेटे एवं पृथ्वीराज बड़ौनी के दत्तक पुत्र) के दोनों बेटे जय सिंह तथा विजय सिंह भी थे। भारतीचंद ने पिता का दाह संस्कार जाजऊ में ही किया। जाजऊ में दलपत राव की छतरी एवं बगीचा बना हुआ है।
इस युद्ध में दलपत राव का मनसब 5000 जात 5000 सवार था। किंतु युद्ध इतना भीषण था कि दलपत राव की सेना पूरी तरह छिन्न-भिन्न हो गई। किसी तरह 1000 पैदल तथा 500 सवार एकत्र कर,भारतीचंद दतिया पहुंचे और स्वयं को राजा घोषित कर दिया। स्वयं को फौजी संघर्ष की स्थिति में न पाते हुए, राव रामचंद्र आगरा पहुंचकर नए शहंशाह बहादुरशाह से मिले। परंतु वहाँ मदद के लिए दो टूक इन्कार कर दिया गया। निराश रामचंद्र दतिया लौट आये।
राव रामचंद्र की आगरा से वापसी के पश्चात अपनी पूर्व तैयारियों के मद्देनजर, रानी सीता जू ने एक बार फिर अपने पिता एवं हरकारों को, अपने पति के साथ पन्ना तथा ओरछा भेजा। सूचना पाकर महाराज उद्दोतसिंह ने अपने दीवान के युवा पुत्र रघुवंशी कायस्थ एवं समथर वाले सरदार नौनेशाह गुर्जर की अगुवाई में 500 पैदल तथा 200 घुड़सवार दतिया के लिए रवाना कर दिए। दूसरी तरफ महाराजा छत्रसाल ने भी 250 घुड़सवार की एक टुकड़ी दतिया भेज दी। अब रानी के पास भी 1000 पैदल तथा 800 घुड़सवार थे। इनमें 50 घुड़सवारों का राव रामचंद्र का निजी दस्ता भी शामिल था।