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अपने पुत्र रामसिंह को जन्म देने के बाद से ही, रानी सीता जू चिरगांव वास पर थीं। यहाँ उन्होंने एक सुरक्षित गढ़ी का निर्माण करवा कर, रामपुर बस्ती को आकार दिया। दुर्योग से, 1696 में ही दतिया के राजगढ़ महल में एकांत निवास कर रही रामचंद्र की माँ का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। उस समय वे लगभग परित्यक्ता का जीवन जी रही थीं और अपने परिवार से पूरी तरह कटी हुई थीं। मां की मृत्यु की खबर पाकर रामचंद्र एवं सीता जी दतिया पहुंच गये, परंतु दलपत राव दक्षिण में बड़े दायित्वों का निर्वाहन करने की उलझनों में दतिया नहीं पँहुच सके।
इस पर खिन्न होकर, रामचंद्र ने शहंशाह औरंगजेब को पत्र लिखकर, अपने पिता दलपत राव पर, अपनी मां की षड़यंत्र पूर्वक हत्या कराने का आक्षेप लगाया।
औरंगजेब ने इस वाकये को गंभीरता से लेते हुए, एक जांच दल गठित कर, अकीदत खां को जांच अधिकारी बना कर दतिया भेज दिया। तारीखे दिलकुशाँ के लेखक, मुगल वाकया निगार भीमसेन कायस्थ, दलपत राव के परम मित्र एवं सहयोगी थे। उन्होंने दलपत राव के कहने पर, स्वयं दक्षिण से दतिया पहुंचकर, एक ओर तो तहकीकात कुनिन्दा को वस्तुस्थिति से अवगत कराया तथा दलपत राव के पक्ष में जांच का रुख मोड़ कर शहंशाह को संतुष्ट कर दिया, वहीं दूसरी ओर राव रामचंद्र को भी ऊंच-नीच समझा कर, वापस सतारा भेज दिया। भीमसेन ने वापस दक्षिण पहुंचने पर दलपत राव को वस्तुस्थिति से आगाह किया एवं पिता- पुत्र के समझौते में बिचौलिए की भूमिका भी निभाई। इस कार्य में ओरछेश उद्योत सिंह का भी बड़ा योगदान रहा। अंततः पिता-पुत्र में समझौता हुआ और दलपत राव ने राव रामचंद्र को 1698 में नमून गढ़ (या समू गढ़) का किलेदार बनाया । इस किले के किलेदार इससे पूर्व दलपतराव स्वयं थे।
इधर रानी सीता जू ने अपना डेरा दतिया के राजगढ़ महल में स्थाई रूप से जमा कर, जनमानस में घुसपैठ आरंभ कर दी थी। उन्होंने अपने पिता भरतपाल परमार एवं तमाम अन्य रिश्तेदारों को दतिया बुलाकर अपने साथ बसा लिया था।
रानी सीता जू ने 200 पैदल एवं 50 घुड़सवारों की एक निजी सेना भी तैयार कर ली थी। सेना के लिए राजगढ़ महल के ठीक नीचे, उत्तर में, छावनी ( रिसाला ) का भी निर्माण करा लिया था। इस छोटी सी फौज के रिसालदार जागीरदार खड़क सिंह थे। रिसाला परिसर में ही सीता जू ने एक विशाल शिव मंदिर का भी निर्माण कराया।
रानी सीता जू ने धीरे-धीरे प्रजा में अपनी पकड़ बनाना आरंभ कर दी थी। दूसरी तरफ उन्होंने भारती चंद के भाई करण जू एवं छोटी रानी के दत्तक पुत्र नारायण जू को भी भेंट - उपहार, लालच देकर अपनी तरफ मिला लिया था। 1698 में पिता पुत्र के समझौते की खबर पाने के बाद, सीता जू ने एक बड़े उत्सव का आयोजन किया तथा कर्णसागर तालाब पर दसावतार मंदिर एवं रानी घाट का निर्माण करवाकर कार्तिक मेला आरंभ कर दिया। धीरे-धीरे , लगभग हर दूसरे तीसरे माह, किसी ना किसी बहाने से, सीता जू नगर में उत्सव आयोजित कर, प्रजा में प्रभाव बढ़ाने लगीं। राज्य के सरदारों पर भी इसका असर पड़ा और वे रानी सीता जू का दरबार करने लगे।
साल 1699 तक आते-आते रानी सीता जू का प्रभाव दतिया में पर्याप्त बढ़ चुका था। अब वे, युवराज एवं दतिया के प्रशासक भारतीचंद के समानान्तर दरबार चलाने लगी थीं। सीता जू के बढ़ते प्रभाव से घबराकर, भारतीचंद ने दलपतराय को सूचित किया, तो दलपत राव ने मुगल कमान दार पीर अली की कमान में एक टुकड़ी दतिया किले की सुरक्षा में तैनात करवा दी। पीर अली औरंगजेब की निजी सेना का अफसर था। जब 1699 के अंत में राव रामचंद्र नमून गढ़ छोड़कर, दतिया किले पर कब्जा करने पहुंचे, तब तक औरंगजेब के अफसरान दतिया किले में पहुंच चुके थे, उन्होंने बादशाह का हवाला देकर रामचंद्र को किले पर कब्जा करने से रोक दिया और इस तरह एक बार फिर रामचंद्र राव की बगावत विफल हो गई।