Mujahida - Hakk ki Jung - 10 in Hindi Moral Stories by Chaya Agarwal books and stories PDF | मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 10

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 10

भाग. 10
फिज़ा ने सी.ए. सी.पी.टी. का फार्म डाल दिया था। इसके लिये उसे बाहर जाने की जरूरत नही पड़ी थी। घर में बैठ कर लैपटाप पर ही सब काम हो गया था। ये देख कर शबीना और मुमताज खान बड़े हैरत में थे। उनका हैरत में होना भी जायज था। उनके जमाने में ये सब कहाँ था। एक-एक फार्म भरने के लिये कितना झमेला करना पड़ता था। तमाम फोटोस्टेट कराओ फिर जमा करने के लिये घण्टों लाइन में खड़े रहो। आजकल सब आनलाइन जो गया है। कितना आसान लग रहा था सब। शबीना का दिल चाह रहा था दुबारा पढ़ाई शुरू कर दे। उसकी इस बात पर घर में सब हँस पड़े थे। खान साहब ने चुटकी लेते हुये कहा था- "फिर तो मैं भी मेमसाहब का शौहर कहलाऊँगा।" शबीना लजा गयी थी और खान साहब ठहाका लगा कर हँस दिये। अमान और फिज़ा ने भी अब्बू के सुर में सुर मिलाया।
अब फिज़ा को कोचिंग के लिये बाहर जाना ही था। जिसकी फीस बगैहरा का इन्तजाम मुमताज खान ने पहले ही कर दिया था। सुबह बारह से चार बजे तलक की क्लास थी। फिज़ा अपनी स्कूटी से अकेले ही जाती थी। जब तक वह लौट कर नही आ जाती शबीना का दिल धौकनी की तरह चलता रहता। कितनी बार वह बालकनी से बाहर झाँकती। शबीना ने बहुत चाहा कि कोई फिज़ा के साथ जाने वाला मिल जाये मगर हमेशा मुमताज खान उसे चुप करा देते। वह भी चाहते थे फिज़ा मजबूत बने।
फिज़ा जी जान से जुट गयी। उसने खूब दिल और दिमाग लगा कर तामील ली। रात-रात भर किताबों से दीदे जोड़े पड़ी रहती। जिस पर शबीना चिल्लाती भी थी- "इस तरह पढ़ेगी तो सेहत खराब हो जायेगी। कुछ अपना भी ख्याल रखा कर।"
"अम्मी जान कुछ नही होगा मुझे, देखना जब मैं सी. ए. बन जाऊँगी तब आप ही सब तरफ बखानती फिरोगी। नाज़ करोगी अपनी फिज़ा पर...है न..?" कह कर फिज़ा इतरा कर मुँह बनाती।
"आमीन...अल्लाह करे ऐसा ही हो....तेरी हर बात सच साबित हो..मगर अब ज्यादा मत बोल...कई बार अपनी ही नज़र लग जाती है, ला मैं तेरा सदका उतार दूँ।" शबीना फौरन उसके ऊपर से चप्पल निसार दी और फिज़ा को गले से लगा लिया।
कितना सुकून था अम्मी जान के आगोश में? फिज़ा जैसे जन्नत को महसूस कर रही थी। उसे अपनी अम्मी की नज़दीकी में एक अलैदा सी खुशबू आती थी और उसे ऐसा लगता था जैसे वह उनकी हिफाज़त में है। कोई उसका कुछ नही बिगाड़ सकता। पूरी दुनिया उसे छोटी दिखाई देती। वह थोड़ी देर और इसी अहसास में रहना चाहती थी। अल्लाह का शुक्र है जो दुनिया की सबसे ज्यादा महोब्बत करने वाली अम्मी जान से नवाजा है हमें।
इधर अमान का दाखिला तो पुणे हो गया था। पहले अटैम्प में ही उसे सरकारी कालेज मिल गया था, इसीलिये खान साहब ने भी उसे भेजने में कोई कोताही नही बरती थी। खुद वहाँ जाकर सब इन्तजाम करके आये थे। उसके रहने का, खाने का सब इन्तजाम पी. जी. में हो गया था। वहाँ किसी चीज की कोई कमी नही थी। उसने अमान को चिढ़ाया भी था ' तेरे जाने के बाद मेरी पढ़ाई अच्छे से होगी और मैं सुकून से रहूँगी।' तब अमान ने भी चिढ़ कर उसकी हाँ -में -हाँ मिलाई थी। ये कह कर- " हाँ ठीक है ठीक है, मैं भी वहाँ सुकून से रहूँगा। आप सारा दिन मुझे दौड़ाती जो रहती हैं। देखता हूँ फिर आपका काम कौन करेगा?" दोनों में खूब मीठी नोक-झोंक हुई थी। भाई-बहन झगड़े न, ऐसा तो इस संसार में कोई मुल्क, शहर या जगह नही होगी। शायद दुनिया का सबसे सच्चा रिश्ता होता है ये।
झगड़ना या नाराजगी, ये सिर्फ कहने की बात थी उसके जाते समय वह उसके गले लग कर फूट-फूट कर रोई थी और अमान भी रोया था। बिल्कुल उसी तरह जैसे विदाई के वक्त रोया जाता है। वह भी कभी घर से बाहर अकेला नही रहा था। ये पहला मौका था जब वह घर से दूर जा रहा था। पहले उसे लगा था अकेले रहने में मौज होगी दोस्तों के साथ बगैर रोक -टोक घूमना फिरना होगा। मगर जैसे-जैसे दिन करीब आते गये उसे घर से दूर जाने का गम सताने लगा था।
अमान का सारा सामान पैक हो चुका था। अब्बू जान उसे पहुचाँने पुणे तक गये थे। अब फिज़ा घर में बिल्कुल अकेली रह गई थी। कहने को तो अम्मी जान थीं मगर गुफ्तगूं करने वाला, झगड़ा करने वाला कोई नही था। इसीलिए जब से अमान घर से गया था घर सूना हो गया था। अक्सर घर काट खानें को दौड़ता। अलबत्ता धीरे-धीरे फिज़ा ने भी अपना पूरा रुख अपनी सी. ए. की पढ़ाई की तरफ कर दिया।
सब कुछ माशाअल्लाह दुरुस्त चल रहा था। फिज़ा ने जम कर मुतालाह किया था। इम्तिहान करीब आ गये थे। शबीना भी उसकी पढ़ाई को पूरी तरजीह देती थीं इसीलिए उसने फिज़ा को हमेशा चौके -चूल्हे से दूर ही रखा। कभी -कभार पढ़ते-पढ़ते ऊब जाने पर वह खुद ही शबीना की मद्द कर लिया करती थी, तो शबीना भी हँस कर रजामंदी दे देती थी। मगर हिदायत भी जरुर देती-" फिज़ा हमें जरुरत नही है मद्द की, जाओ तुम जाकर मुतालाह पर ध्यान दो। ये चौका चूल्हा हम पर छोड़ दो। हमें तो अब ताउम्र यही करना है। क्यों तुम अपना वक्त बर्बाद करती हो? तुम्हारा ख्याब हमारा ख्याब है। जब तुम सी. ए. बन जाओगी तो हमारा सिर फक्र से ऊँचा हो जायेगा और हम शान से कुनबे में घूमेंगें।"
अम्मी जान की इस तरह की बातों से फिज़ा के जिस्म में गुदगुदी सी होती थी। वह ख्यावों की दुनिया में पहुँच जाती और तसब्बुर करती जैसे उसने उस मुकाम को हासिल कर लिया है वह सी. ए. बन चुकी है और वह एक शानदार आफिस में बैठी हुई है। शहर के पाॅश एरिया में उसका आलीशान आफिस होगा। बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ उसके हुनर और काबलियत को देख कर उससे अपना आडिट करवायेंगी। वही वक्त होगा खुद को साबित करने का, जब हम अपने वालदेन का सिर फक्र से ऊँचा करेंगे। अम्मीजान, अब्बू जान और अमान सब कितने खुश हैं। सोचते-सोचते अपने ख्यावों का सदका वह खुद ही उतार लेती।
ये सब एक ख्याव नही बल्कि हकीकत सा लगता जिसमें उसका दिल से लेकर जिस्म तक सब रोमान्चित हो जाता और वह खुद में ही मुस्कुरा उठती।
देखते-देखते तीन महीने निकल गये। आज फिज़ा का सी. पी. टी का नतीजा आने वाला था। उसकी मेहनत का अन्जाम, जिसमें उसने दिन-रात एक कर दिया था। इसमें उसके अलावा उसके वालदेन के भी ख्याब थे जो उड़ने के लिये पँख फड़फड़ा रहे थे। फिज़ा सुबह से कई बार नैट खोल कर देख चुकी थी। अमान भी अपनी पढ़ाई छोड़ कर नतीजे के इन्तजार में डटा था। सुबह जब फोन पर बात हुई थी तब उसने कहा था-"फिज़ा तू फिक्रमंद न हो अल्लाह के करम से सब अच्छा ही होगा।" जिसे सुन कर उसे तसल्ली तो मिली थी साथ ही दिल धक-धक भी कर रहा था।
शबीना का दिल भी किसी काम में नही था। कहने को तो वह यही जता रही थी कि जैसे वह बेफ्रिक है मगर अन्दर ही अन्दर उसे फिज़ा से ज्यादा बेसब्री थी। उसके कान फोन की घण्टी पर लगे हुये थे और वह नतीजे की खुशी के लिये तरस रहे थे। कभी वह फिज़ा को देखती तो कभी उस खबर का इन्तजार करती। मगर अभी नतीजे आने में वक्त था। उसकी बेचैनी बढ़ने लगी। घर में कोई किसी से बात नही कर रहा था बजह साफ थी सभी अपनी-अपनी तरह से परेशान थे, बेताव थे और बेसब्र थे जहाँ चुप्पी अपना काम बखूबी कर रही थी।
फिज़ा ने फिर से लैपटाप खोला था। सुबह से कई बार खोल चुकी थी। अभी लैपटाप की स्क्रीन भी नतीजों से नबाकिफ़ थी। बिल्कुल खामोश पड़ी थी। वह तो समय से ही आने थे। उसे उनकी बेतावी से क्या लेना?
मोबाइल फुल चार्ज था । कहीँ ऐसा न हो कोई फोन पर खबर दे और बैटरी चली जाये। इस डर के चलते उसे पूरा चार्ज किया गया था। उतावली होकर ऐसी बेअक्ली की बातें फिज़ा खूब सोच रही थी।
मुमताज खान का फोन घनघना उठा। फोन अमान का था, उसने पहले मुँह लटका कर ठिठोली की और बताया कि- ' फिज़ा आपा का रोल न. कहीँ दिखाई नही दे रहा है।' सुन कर फिज़ा एकदम रो पड़ी। बस अमान तो यही चाहता था। वह उसे चिढ़ा कर खुश हुआ। दूर रह कर भी झगड़ा किया जा सकता है उसने महसूस किया और ये भी कि जैसे वह दोनों आमने-सामने लड़ रहे हों। इसी अहसास ने किसी हद तक उसके अकेलेपन को भर दिया था। बस बहुत हुआ, फिर अगले ही लम्हा उसने दिल में शरारत सूझी उसने कहा- 'अगर फिज़ा आपा पास हो जातीं तो मेरा ईनाम क्या होता?' जिसे सुन कर पहले तो फिज़ा रोने लगी फिर संभल कर बोली- 'हम तुझसे कभी नही झगड़ेगे अमान, तू जो कहेगा मानेगें। काश! हम पास हो जाते?' अब अमान के सब्र का बाँध खुद ही टूट गया वह खुशी से चहकते हुये बोला- "अब्बू जान एक बड़ी खुशखबरी है। अपनी फिज़ा ने सी.पी.टी क्लीयर कर लिया है। सबसे अच्छी बात है कि अच्छे नम्बरों से किया है। अब उसे सी. ए. बनने से कोई नही रोक सकता।"
इतना सुनते ही खान साहब उसकी कही हुई बात की तशरीह करते हुये और मुबारकां... मुबारकां.... कहते हुये अन्दर दौड़े।
क्रमश: