भाग. 9
अप्रैल सन उन्नीस सौ चौरानवे, अल्लाह के फ़ज्लोकरम से मुमताज खान के घर बेटी का जन्म हुआ था। जिसका नाम उन्होंने फ़िजा रखा था। फिज़ा के जन्म की यह तारीख मुमताज खान के लिये बहुत मायने रखती थी। बहुत खास थी उनके लिये यह तारीख। वह इसे कभी नही भूल सकते थे। इसीलिए आज उनके घर जम कर रौनक थी। वह खुशियाँ मना रहे थे घर में बेटी आने की। वैसे तो फिज़ा से पहले भी उनके घर एक औलाद आ चुकी थी। जो जन्म के कुछ घण्टों बाद ही खुदा को प्यारी हो गयी थी। उसके बाद फिज़ा और फिर अमान की पैदाइश हुई। उन्हें एक बेटी की चाहत थी जो अल्लाह ने कबूल कर ली थी। दूसरे खास होने की बजह यह भी थी कि उसी दिन मुमताज खान बरसों से चल रहे अपनी जमीन का मुकदमा जीत गये थे। वही मुकदमा जो बरसों से अटका हुआ था अचानक से जीत हासिल कर लेना खुशियों का सबब बन गया था। जिसकी उन्हें बिल्कुल भी उम्मीद नही थी। कई वकील बदल के देख लिये थे मगर कोई नतीजा नही। असलम जैसे बड़े भू माफिया से निबटना हर किसी के बस का था भी नही। चाहते हुये भी गाँव के लोग उसके खिलाफ गवाही देने से डर रहे थे। उसने गाँव में अपनी नापाक हुकूमत का ठंका पीट रखा था। इसीलिए मुमताज खान और शबीना गमज़दा रहने लगे थे।
दर असल उनकी सौ बीघा खेतीहार जमीन शहर से थोड़ा दूर एक गाँव में थी जो उनकी पुश्तैनी जमीन थी। बाप दादाओं के जमाने से उस पर खेती होती आ रही थी। खान साहब कहाँ शहर से रोज आवा-जाही कर पाते सो उसे बटाई पर उठा दिया गया। बटाईदार फसल कटने के बाद आकर ईमानदारी से उनका हिस्सा चुकता कर जाता इसलिये खान साहब भी जमीन की तरफ से लापरवाह हो गये थे। उन्होने कभी ख्याब में भी नही सोचा कि उनकी पुश्तैनी जमीन को कोई खतरा हो सकता है। मगर इस बात की भनक कुछ लोगों को लग गयी थी। सड़क से लगी होने के कारण उसकी कीमत बाकि जमीनों से ज्यादा थी। दूसरे कुछ भू माफिया वहाँ पर नयी कालोनी काट रहे थे। उनकी नजर उस जमीन पर बहुत वक्त से लगी हुई थी। जैसे-जैसे मुमतान खान का आना-जाना कम होने लगा वहाँ के कुछ अराजक तत्व बेखौफ़ हो गये और उन्ही में से असलम नाम के एक गुण्डे ने गेहूँ की फसल कटते ही उस पर पूरी तरह कब्जा कर लिया था। रातों रात नीवें खुदवा दी गयीं। गाँव से खबर आने पर खान साहब बुरी तरहा बौखला गये और फौरन रवाना हो लिये। बड़े बुजुर्गों ने बैठ कर इस मुश्किलात पर मशवरा भी किया मगर कई बार बातचीत करने के बाद भी जब वह नही माना, तो हार कर उन्हें मुकदमा ठोकना पड़ा।
अजमल ने पुलिस महकमे से लेकर वकील तक सबके मुँह में उसने नोट ठूँस दिये थे। उसकी पहुँच ऊपर तक थी। इस तरह के लोग हर जगह अपनी पकड़ बना कर ही रखते हैं। जिसकी बजह से मुमताज खान ने उम्मीद छोड़ दी थी। वैसे शहर में उनकी अच्छी साख थी। सभी उनकी इज्ज़त करते थे और साथ देने को भी तैयार रहते थे। मगर जान बूझ कर ओखली में सिर देना कौन चाहता है? सब जानते थे अजमल किस तरह का इन्सान है। ऐसे इन्सान से दुश्मनी लेना भारी पड़ सकता था।
मुमतान खान के पास पुशतैनी जमीन के अलावा शहर के बीचोंबीच आठ दुकानें थीं जिसका अच्छा किराया हर महीने आता था। घर में किसी भी चीज की कोई कमी नही थी। खेती और दुकानों की देखभाल के अलावा मुमताज खान का बाकि वक्त किताबी मुतालाह में गुजरता था। खान साहब पढ़े लिखे काबिल इन्सान थे। उनकी सोच भी पुराने लोगों के माफिक नही थी। अक्सर लोग कोई नया काम शुरू करते या शादीब्याह का मामला हो तो मुमताज खान से मशवरा जरुर किया करते थे। उनके फैसले की कद्र महोल्ले में सबको थी, चाहे वह बच्चा हो या जवान। खान साहब ने वहाँ रहते हुये खासी इज्जत कमाई थी। उन्होंने अपना वक्त गप्पे मारने में कभी जाया नही किया। खाली वक्त में वह आस-पास के छोटे बच्चों को कुरान की तालीम भी दिया करते थे।
मुमताज खान की बीवी शबीना एक घरेलू किस्म की महिला थी। चौके चूल्हे से लेकर घर के रख रखाब में खूब माहिर थी। पढ़ी-लिखी तो बहुत ज्यादा नही थी मगर दुनियावी इल्म उन्हे बखूबी था। उनके सलीके और अदब के खान साहब भी कायल रहते थे। यही बजह थी कि मियाँ-बीवी में अच्छी जमती थी। शबीना अपने मायके की बहुत ज्यादा रईस तो नही थी मगर उसके भाई और अब्बूजान सब ठीकठाक जिन्दगी जी रहे थे। ठीक-ठाक भी नही कहा जायेगा। यूँ कहें कि पैसे की किल्लत रहती थी तो गलत नही होगा। बावजूद इसके उन्होंने कभी किसी की मदद नही ली।
आज ये अल्लाह का करम ही था कि इधर फिज़ा का जन्म हुआ और उधर मुकदमें का फैसला उनके पक्ष में हुआ। असलम को आठ दिन के अन्दर ही कब्जा हटाने का नोटिस जारी हो गया। भले ही यह एक इत्तेफाक रहा हो मगर कहीँ न कहीँ उनके दिल में ये बात घर कर गयी थी कि उनकी बेटी नसीबों वाली है और उसी के आने से मुकदमें पर फतह हासिल हुई है। खान साहब खुशी से फूले नही समा रहे थे। उन्होने जुम्मन को पाँच सौ का नोट निकाल कर दिया और कहा- 'जाओ ये आप रख लो बच्चों को हमारी तरफ से मिठाई खिला देना।" जुम्मन चच्चा हमारे घर के नौकर नही थे बल्कि एक सदस्य की तरह थे, वह भी भर-भर दुआयें दे रहे थे।
अमान और फिज़ा चूकिं बराबर के ही थे इसलिये दोनों में प्यार के साथ-साथ लड़ाईयाँ भी खूब होती थी। ज्यादातर लड़ाई अमान ही शुरू करता था कभी फिज़ा का मोबाइल छुपा देता तो कभी उसकी पसंदीदा किताब। फिज़ा कभी रोती चिल्लाती तो कभी उसकी पीठ पर मुक्का जड़ देती। दोनों लड़ते जरुर थे मगर एक दूसरे के बगैर रह भी नही पाते थे। भाई-बहन की ये महोब्बत और झगड़े अमूमन हर घर में ही देखी जाती है। शबीना दोनों को समझाती मगर डाँट हमेशा अमान की ही पड़ती। जिसके पीछे ये हवाला दिया जाता 'कि बहन है, बड़ी है, तमीज से पेश आओ।' फिज़ा इस बात पर खूब इतराती और अमान नाराज़ होकर बैठ जाता।
उसे कभी नही लगा वह लड़की है। क्यों की खान-पान और तामील से लेकर कभी भी किसी भी चीज का कोई भेदभाव नही किया गया था। वह बड़े-बड़े ख्याब लेकर जी रही थी।
जैसे-जैसे फिज़ा बड़ी होने लगी उसका रुप रंग निखरने लगा वह वला की खूबसूरत हो गयी थी। चौदह-पन्द्रह बरस की उम्र तक उसके पुराने कुर्ते कसने लगे थे, दौड़े-छूटे आइने के चक्कर लगते, बात-बात पर बेवजह लजाने लगी थी और उन कुर्तो का कसाव शबीना से छुपा नही था। जिसकी चिन्ता हर वालिदा की तरह उन्हे भी सताने लगी थी। एहतियातन उसके बाहर फि़जूल में निकलने पर या रिश्तेदारी में अकेले जाने में रोक लगने लगी थी। रोक लगाने का मकसद पुरानी सोच नही थी बल्कि तजुर्बे से शबीना ये जानती थी कि जमाना कितनी लिबलिबी सोच रखता है। जरा भी यकीन नही किसी का, जवान तो जवान उम्र दराज इन्सान भी नापाक इरादे लिये घूम रहा है। सफेद झक दाढ़ी को भी इस बात का लिहाज नही कि उसके पैर कब्र में लटकें हैं, छिछोरी हरकतें करने से बाज नही आता। दिलफेक नजरिया रखने वाले और जिस्म के भूखें भेडिओं की कमी नही है। इस बात का पुख्ता सुबूत अखबार की खबरों से मिल जाता है। कई बार फिज़ा के साथ होने के बावजूद भी उसने यह महसूस किया नौजवान तो एक बार को लिहाज कर जाते हैं या यूँ कहें डरते हैं। मगर उम्र दराज बेखौफ रहते हैं। वह जानते हैं वह शक के दायरे से बाहर हैं। उन पर कोई भी ऊँगली उठाने से गुरेज करेगा। इसी का फायदा उठा कर वह आँखें सेकते हैं। उम्र की नकाब उनके चेहरे पर पड़ी रहती है और तजुर्बा उन्हे बचाये रखता है। इन्ही बजहों से शबीना डरती थी। वरना तो फिज़ा की तालीम को लेकर उसके वालदेन बड़े ही संजीदा थे।
वह चार्टेट अकाउंटेंट बनना चाहती थी। मगर कुछ लोगों ने ये कह कर डरा दिया सी.ए. करना हर किसी के बस का नही है। बहुत मुश्किल तालीम है उसकी। दिन-रात मुतालाह में एक करना पड़ता है। पहले तो वह इस बात से डर गयी मगर फिर फिज़ा को शबीना ने हौसला दिया।
शबीना एक हौसलेमन्द और तजुर्बे कार औरत थी। उसने फिज़ा को समझा कर कहा था- "मुश्किल काम ही इन्सान करते हैं। अगर एक इन्सान भी ऐसा है इस दुनिया में, जो इसे कर सकता है तो तुम भी कर सकती हो।" अपनी अम्मी की बातों से फिज़ा के अन्दर हिम्मत भर जाती थी। वह फैसला लेने में खुद को मुकम्मल पाती। शबीना बहुत ज्यादा इल्मदार तो नही थी मगर दुनियावी तजुर्बा उसे बहुत था।
अमान बी टेक कर रहा था और फिज़ा सी.ए.। दोनों की लाइन अलग-अलग जरुर थीं मगर साथ बैठ कर मशवरा जरूर करते। अपनी-अपनी राय एक-दूसरे को देते और दोनों एक दूसरे के लिये अल्लाह से दुआ करते थे। ये देख कर मुमताज खान और शबीना खुशी से फूले नही समाते। हर जगह अपने बच्चों का ताआरूफ़ बड़ी शान से देते थे। उनका परिवार बेहद खुशहाल परिवार था।
क्रमश: