Mangalsutra - 5 in Hindi Motivational Stories by Stylish Aishwarya books and stories PDF | मंगलसूत्र - 5

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मंगलसूत्र - 5

मूल लेखक - मुंशी प्रेमचंद

संतकुमार ने भाषण समाप्त करके जब उससे कोई जवाब न पाया तो एक क्षण के बाद बोला - क्या सोच रही हो? मैं तुमसे सच कहता हूँ, मैं बहुत जल्द रुपए दे दूँगा

पुष्पा ने निश्चल भाव से कहा - तुम्हें कहना हो जा कर खुद कहो, मैं तो नहीं लिख सकती।

संतकुमार ने होंठ चबा कर कहा - जरा-सी बात तुम से नहीं लिखी जाती, उस पर दावा यह है कि घर पर मेरा भी अधिकार है।

पुष्पा ने जोश के साथ कहा - मेरा अधिकार तो उसी क्षण हो गया जब मेरी गाँठ तुमसे बँधी।

संतकुमार ने गर्व के साथ कहा - ऐसा अधिकार जितनी आसानी से मिल जाता है, उतनी ही आसानी से छिन भी जाता है।

पुष्पा को जैसे किसी ने धक्का दे कर उस विचारधारा में डाल दिया जिसमें पाँव रखते उसे डर लगता था। उसने यहाँ आने के एक-दो महीने के बाद ही संत कुमार का स्वभाव पहचान लिया था कि उनके साथ निबाह करने के लिए उसे उनके इशारों की लौंडी बन कर रहना पड़ेगा। उसे अपने व्यक्तित्व को उनके अस्तित्व में मिला देना पड़ेगा। वह वही सोचेगी जो वह सोचेंगे, वही करेगी, जो वह करेंगे। अपनी आत्मा के विकास के लिए यहाँ कोई अवसर न था। उनके लिए लोक या परलोक में जो कुछ था वह संपत्ति थी। यहीं से उनके जीवन को प्रेरणा मिलती थी। संपत्ति के मुकाबले में स्त्री या पुत्र की भी उनकी निगाह में कोई हकीकत न थी। एक चीनी का प्लेट पुष्पा के हाथ से टूट जाने पर उन्होंने उसके कान ऐंठ लिए थे। फर्श पर स्याही गिरा देने की सजा उन्होंने पंकजा से सारा फर्श धुलवा कर दी थी। पुष्पा उनके रखे रुपयों को कभी हाथ तक न लगाती थी। यह ठीक है कि वह धन को महज जमा करने की चीज न समझते थे। धन, भोग करने की वस्तु है, उनका यह सिद्धांत था। फिजूलखर्ची या लापरवाही बर्दाश्त न करते थे। उन्हें अपने सिवा किसी पर विश्वास न था। पुष्पा ने कठोर आत्मसमर्पण के साथ इस जीवन के लिए अपने को तैयार कर लिया था। पर बार-बार यह याद दिलाया जाना कि यहाँ उसका कोई अधिकार नहीं है, यहाँ वह केवल एक लौंडी की तरह है, उसे असह्य था। अभी उस दिन इसी तरह की एक बात सुन कर उसने कई दिन खाना-पीना छोड़ दिया था। और आज तक उसने किसी तरह मन को समझा कर शांत किया था कि यह दूसरा आघात हुआ। इसने उसके रहे-सहे धैर्य का भी गला घोंट दिया। संतकुमार तो उसे यह चुनौती दे कर चले गए। वह वहीं बैठी सोचने लगी अब उसको क्या करना चाहिए। इस दशा में तो वह अब नहीं रह सकती। वह जानती थी कि पिता के घर में भी उसके लिए शांति नहीं है। डॉक्टर साहब भी संतकुमार को आदर्श युवक समझते थे, और उन्हें इस बात का विश्वास दिलाना कठिन था कि संतकुमार की ओर से कोई बेजा हरकत हुई है। पुष्पा का विवाह करके उन्होंने जीवन की एक समस्या हल कर ली थी। उस पर फिर विचार करना उनके लिए असूझ था। उनकी जिंदगी की सबसे बड़ी अभिलाषा थी कि अब कहीं निश्चिंत हो कर दुनिया की सैर करें। यह समय अब निकट आता जाता था। ज्यों ही लड़का इंगलैंड से लौटा और छोटी लड़की की शादी हुई कि वह दुनिया के बंधन से मुक्त हो जाएँगे। पुष्पा फिर उनके सिर पर पड़ कर उनके जीवन के सबसे बड़े अरमान में बाधा न डालना चाहती थी। फिर उसके लिए दूसरा कौन स्थान है? कोई नहीं। तो क्या इस घर में रह कर जीवन-पर्यंत अपमान सहते रहना पड़ेगा?

साधुकुमार आ कर बैठ गया। पुष्पा ने चौंक कर पूछा - तुम बंबई कब जा रहे हो?

साधु ने हिचकिचाते हुए कहा - जाना तो था कल, लेकिन मेरी जाने की इच्छा नहीं होती। आने-जाने में सैकड़ों का खर्च है। घर में रुपए नहीं हैं, मैं किसी को सताना नहीं चाहता। बंबई जाने की ऐसी जरूरत ही क्या है! जिस मुल्क में दस में नौ आदमी रोटियों को तरसते हों, वहाँ दस-बीस आदमियों का क्रिकेट के व्यसन में पड़े रहना मूर्खता है। मैं तो नहीं जाना चाहता।

पुष्पा ने उत्तेजित किया - तुम्हारे भाई साहब तो रुपए दे रहे हैं?

साधु ने मुस्करा कर कहा - भाई साहब रुपए नहीं दे रहे हैं, मुझे दादा का गला दबाने को कह रहे हैं। मैं दादा को कष्ट नहीं देना चाहता। भाई साहब से कहना मत भाभी, तुम्हारे हाथ जोड़ता हूँ।

पुष्पा उसकी इस नम्र सरलता पर हँस पड़ी। बाईस साल का गर्वीला युवक जिसने सत्याग्रह-संग्राम में पढ़ना छोड़ दिया, दो बार जेल हो आया, जेलर के कटु वचन सुन कर उसकी छाती पर सवार हो गया और इस उद्दंडता की सजा में तीन महीने काल-कोठरी में रहा, वह अपने भाई से इतना डरता है, मानो वह हौआ हों। बोली - मैं तो कह दूँगी।

- तुम नहीं कह सकतीं। इतनी निर्दय नहीं हो।

पुष्पा प्रसन्न हो कर बोली - कैसे जानते हो?

- चेहरे से।

- झूठे हो।

- तो फिर इतना और कहे देता हूँ कि आज भाई साहब ने तुम्हें भी कुछ कहा है।

पुष्पा झेंपती हुई बोली - बिल्कुल गलत। वह भला मुझे क्या कहते?

- अच्छा, मेरे सिर की कसम खाओ।

- कसम क्यों खाऊँ - तुमने मुझे कभी कसम खाते देखा है?

- भैया ने कुछ कहा है जरूर, नहीं तुम्हारा मुँह इतना उतरा हुआ क्यों रहता? भाई साहब से कहने की हिम्मत नहीं पड़ती वरना समझाता आप क्यों गड़े मुर्दे उखाड़ रहे हैं। जो जायदाद बिक गई उसके लिए अब दादा को कोसना और अदालत करना मुझे तो कुछ नहीं जँचता। गरीब लोग भी तो दुनिया में हैं ही, या सब मालदार ही हैं। मैं तुमसे ईमान से कहता हूँ भाभी, मैं जब कभी धनी होने की कल्पना करता हूँ तो मुझे शंका होने लगती है कि न जाने मेरा मन क्या हो जाए। इतने गरीबों में धनी होना मुझे तो स्वार्थांधता-सी लगती है। मुझे तो इस दशा में भी अपने ऊपर लज्जा आती है, जब देखता हूँ कि मेरे ही जैसे लोग ठोकरें खा रहे हैं। हम तो दोनो वक्त चुपड़ी हुई रोटियाँ और दूध और सेब-संतरे उड़ाते हैं। मगर सौ में निन्यानबे आदमी तो ऐसे भी है जिन्हें इन पदार्थो के दर्शन भी नहीं होते। आखिर हममें क्या सुर्खाब के पर लग गए हैं?

पुष्पा इन विचारों की न होने पर भी साधु की निष्कपट सच्चाई का आदर करती थी। बोली - तुम इतना पढ़ते तो नहीं, ये विचार तुम्हारे दिमाग में कहाँ से आ जाते हैं?

साधु ने उठ कर कहा - शायद उस जन्म में भिखारी था।

पुष्पा ने उसका हाथ पकड़ कर बैठाते हुए कहा - मेरी देवरानी बेचारी गहने-कपड़े को तरस जाएगी।

- मैं अपना ब्याह ही न करूँगा।

- मन में तो मना रहे होंगे कहीं से संदेसा आए।

- नहीं भाभी, तुमसे झूठ नहीं कहता। शादी का तो मुझे खयाल भी नहीं आता। जिंदगी इसी के लिए है कि किसी के काम आए। जहाँ सेवकों की इतनी जरूरत है वहाँ कुछ लोगों को तो क्वाँरे रहना ही चाहिए। कभी शादी करूँगा भी तो ऐसी लड़की से जो मेरे साथ गरीबी की जिंदगी बसर करने पर राजी हो और जो मेरे जीवन की सच्ची सहगामिनी बने।

पुष्पा ने इस प्रतिज्ञा को भी हँसी में उड़ा दिया - पहले सभी युवक इसी तरह की कल्पना किया करते हैं। लेकिन शादी में देर हुई तो उपद्रव मचाना शुरू कर देते हैं।

साधुकुमार ने जोश के साथ कहा - मैं उन युवकों में नहीं हूँ, भाभी। अगर कभी मन चंचल हुआ तो जहर खा लूँगा।

पुष्पा ने फिर कटाक्ष किया - तुम्हारे मन में तो बीबी (पंकजा) बसी हुई हैं।

- तुम से कोई बात कहो तो तुम बनाने लगती हो, इसी से मैं तुम्हारे पास नहीं आता।

- अच्छा, सच कहना, पंकजा जैसी बीबी पाओ तो विवाह करो या नहीं?

साधुकुमार उठ कर चला गया। पुष्पा रोकती रही पर वह हाथ छुड़ा कर भाग गया। इस आदर्शवादी, सरल-प्रकृति, सुशील, सौम्य युवक से मिल कर पुष्पा का मुरझाया हुआ मन खिल उठता था। वह भीतर से जितनी भरी थी, बाहर से उतनी ही हलकी थी। संतकुमार से तो उसे अपने अधिकारों की प्रतिक्षण रक्षा करनी पड़ती थी, चौकन्ना रहना पड़ता था कि न जाने कब उसका वार हो जाए। शैव्या सदैव उस पर शासन करना चाहती थी, और एक क्षण भी न भूलती थी कि वह घर की स्वामिनी है और हरेक आदमी को उसका यह अधिकार स्वीकार करना चाहिए। देवकुमार ने सारा भार संतकुमार पर डाल कर वास्तव में शैव्या की गद्दी छीन ली थी। वह यह भूल जाती थी कि देवकुमार के स्वामी रहने पर ही वह घर की स्वामिनी रही। अब वह माने की देवी थी जो केवल अपने आशीर्वादों के बल पर ही पुज सकती है। मन का यह संदेह मिटाने के लिए वह सदैव अपने अधिकारों की परीक्षा लेती रहती थी। यह चोर किसी बीमारी की तरह उसके अंदर जड़ पकड़ चुका था और असली भोजन को न पचा सकने के कारण उसकी प्रकृति चटोरी होती जाती थी। पुष्पा उनसे बोलते डरती थी, उनके पास जाने का साहस न होता था। रही पंकजा, उसे काम करने का रोग था। उसका काम ही उसका विनोद, मनोरंजन सब कुछ था। शिकायत करना उसने सीखा ही न था। बिल्कुल देवकुमार का-सा स्वभाव पाया था। कोई चार बात कह दे, सिर झुका कर सुन लेगी। मन में किसी तरह का द्वेष या मलाल न आने देगी। सबेरे से दस-ग्यारह बजे रात तक उसे दम मारने की मोहलत न थी। अगर किसी के कुरते के बटन टूट जाते हैं तो पंकजा टाँकेगी। किस के कपड़े कहाँ रखे हैं यह रहस्य पंकजा के सिवा और कोई न जानता था। और इतना काम करने पर भी वह पढ़ने और बेल-बूटे बनाने का समय भी न जाने कैसे निकाल लेती थी। घर में जितने तकिए थे, सबों पर पंकजा की कलाप्रियता के चिह्न अंकित थे। मेजों के मेजपोश, कुरसियों के गद्दे, संदूकों के गिलाफ सब उसकी कलाकृतियों से रंजित थे। रेशम और मखमल के तरह-तरह के पक्षियों और फूलों के चित्र बना कर उसने फ्रेम बना लिए थे, जो दीवानखाने की शोभा बढ़ा रहे थे, और उसे गाने-बजाने का शौक भी था। सितार बजा लेती थी, और हारमोनियम तो उसके लिए खेल था। हाँ, किसी के सामने गाते-बजाते शरमाती थी। इसके साथ ही वह स्कूल भी जाती थी और उसका शुमार अच्छी लड़कियों में था। पंद्रह रुपया महीना उसे वजीफा मिलता था। उसके पास इतनी फुर्सत न थी कि पुष्पा के पास घड़ी-दो-घड़ी के लिए आ बैठे और हँसी-मजाक करे। उसे हँसी-मजाक आता भी न था। न मजाक समझती थी, न उसका जवाब देती थी। पुष्पा को अपने जीवन का भार हलका करने के लिए साधु ही मिल जाता था। पति ने तो उलटे उस पर और अपना बोझ ही लाद दिया था।