भाग 74 जीवन सूत्र 99 100 101
जीवन सूत्र 99:कामनाओं के पीछे भागना अर्थात
अग्नि में जानबूझकर हाथ डालना
अर्जुन ने श्री कृष्ण से बाह्य प्रेरक व्यवहार के संबंध में प्रश्न किया-
अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः।।3/36।।
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।
महाशनो महापाप्मा विद्ध्येनमिह वैरिणम्।।3/37।।
अर्जुन ने कहा - हे कृष्ण !तब यह पुरुष बलपूर्वक बाध्य किए हुए के समान इच्छा न होने पर भी किसके द्वारा प्रेरित होकर पाप का आचरण करता है?भगवान श्री कृष्ण ने कहा - रजोगुण में उत्पन्न हुआ यह काम ही क्रोध है।यह अत्यधिक खाने पर भी तृप्त नहीं होता है और महापापी है।इसे ही तुम संसार में शत्रु जानो।
वास्तव में रजोगुण से उत्पन्न कामनाएं ही मनुष्य को पाप कर्म की ओर प्रवृत्त करती हैं। मनुष्य के भीतर आलस्य, प्रमाद और सुख की इच्छा ने जहां डेरा जमाया वहां असंख्य कामनाएं पैदा होने लगती हैं। मनुष्य बिना कर्म किए ही या थोड़ा परिश्रम कर ही अधिक प्राप्त होने की इच्छा करने लगता है। वह सांसारिक पदार्थों की प्राप्ति और उपलब्धि को ही सुख मान लेता है जबकि इन चीजों की प्राप्ति उसे सुख प्रदान नहीं करती है बल्कि कई बार तो सुख में बाधा डालने वाली होती है।
उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है -
इच्छा हु आगासमा अणन्ततिया।
(इच्छाएं आकाश के समान अनंत हैं।)
फिर विषय भोगों से तृप्ति किसे हुई है? किसी को नहीं। महाभारत में वेदव्यास जी लिखते हैं कि विषय भोग की इच्छा विषयों का उपभोग करने से कभी शांत नहीं हो सकती। घी की आहुति डालने से अधिक प्रज्वलित होने वाली आग की भांति वह और भी बढ़ती ही जाती है।
मनुष्य इस काम के वशीभूत होकर विचार को त्याग देता है और यहीं से सुख भोगों को प्राप्त करने, उसे स्थाई बनाने का संकल्प पैदा होता है और जब इस कार्य में असफलता मिलती है तो क्रोध उत्पन्न होता है।
जीवन सूत्र 100 कामनायें हैं मन के विचलन का कारण
जिस तरह अग्नि में जलने से बचने के लिए उससे दूर रहना आवश्यक है उसी तरह ज्ञानवान व्यक्ति कामनाओं की अनंत श्रृंखला से स्वयं को दूर ही रखता है।इसमें जानबूझकर अग्नि में हाथ डालने या 'एक बार कर देखने और बाद में संयम कर लेंगे' का फार्मूला काम नहीं आता। अधिक समझदार वे होते हैं जो झटका खाकर सुधर जाने के बदले उन झटकों से ही दूर रहने की कोशिश करते हैं।इन कामनाओं के निवारण का एकमात्र उपाय स्वयं का अंतर्मुखी होना या अपने -अपने आराध्य का अपनी-अपनी आस्था पद्धति के अनुसार सुमिरन करना है।
जीवन सूत्र 101 :सृजन के लिए काम स्वीकार्य
मनुष्य के कार्यों में व्यवधान, अपूर्णता और अस्थिरता का सर्वोपरि कारण है- मन का स्थिर ना होना और इसके लिए उत्तरदायी है-काम। काम का एक अर्थ विषय भोग से है।भारतीय दर्शन के अनुसार यह काम सृजन के लिए होना चाहिए और सृष्टि की निरंतरता के लिए मर्यादित रूप में यह मान्य है। अगर काम को व्यापक अर्थ में लें तो यह मनुष्य की कामनाओं,इच्छाओं, आसक्ति,क्षणभंगुर और विनाशी पदार्थों के प्रति आकर्षण आदि के रूप में होता है।
कुल मिलाकर व्यापक रूप में कामनाएं ही 'काम' है। अगर इनकी पूर्ति हुई तो भी मनुष्य को संतुष्टि नहीं होती और लोभ का जन्म होता है, और अगर इनकी पूर्ति नहीं हुई तो क्रोध का जन्म होता है, जो आगे और अनेक विकारों को जन्म देता है।वास्तव में भोगों और आकर्षण के केंद्रों के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान मनुष्य को हो जाए तो ये सब मनुष्य को विचलित नहीं करेंगे।ऐसे में जीवन के लिए आवश्यक कर्म करता हुआ वह उस परम सत्ता से भेंट की ओर अभिमुख होगा और तब उसे महसूस होगा कि जहां संतोष है वहां आकर्षणों की मोहिनी का असर नहीं होता है।
डॉ.योगेंद्र कुमार पांडेय