Mangalsutra - 1 in Hindi Motivational Stories by Stylish Prince books and stories PDF | मंगलसूत्र - 1

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मंगलसूत्र - 1

मूल लेखक - मुंशी प्रेमचंद


बड़े बेटे संतकुमार को वकील बना कर, छोटे बेटे साधुकुमार को बी.ए. की डिग्री दिला कर और छोटी लड़की पंकजा के विवाह के लिए स्त्री के हाथों में पाँच हजार रुपए नकद रख कर देवकुमार ने समझ लिया कि वह जीवन के कर्तव्य से मुक्त हो गए और जीवन में जो कुछ शेष रहा है, उसे ईश्वरचिंतन के अर्पण कर सकते हैं। आज चाहे कोई उन पर अपनी जायदाद को भोग-विलास में उड़ा देने का इलजाम लगाए, चाहे साहित्य के अनुष्ठान में, लेकिन इससे कोई इनकार नहीं कर सकता कि उनकी आत्मा विशाल थी। यह असंभव था कि कोई उनसे मदद माँगे और निराश हो। भोग-विलास जवानी का नशा था। और जीवन भर वह उस क्षति की पूर्ति करते रहे, लेकिन साहित्य-सेवा के सिवा उन्हें और किसी काम में रुचि न हुई और यहाँ धन कहाँ ? - यश मिला और उनके आत्मसंतोष के लिए इतना काफी था।संचय में उनका विश्वास भी न था। संभव है, परिस्थिति ने इस विश्वास को दृढ़ किया हो, लेकिन उन्हें कभी संचय न कर सकने का दुख नहीं हुआ। सम्मान के साथ अपना निबाह होता जाए, इससे ज्यादा वह और कुछ न चाहते थे। साहित्य-रसिकों में जो एक अकड़ होती है,चाहे उसे शेखी ही क्यों न कह लो, वह उनमें भी थी। कितने ही रईस और राजे इच्छुक थे कि वह उनके दरबार में जाएँ, अपनी रचनाएँ सुनाएँ उनको भेंट करें, लेकिन देवकुमार ने आत्म-सम्मान को कभी हाथ से न जाने दिया। किसी ने बुलाया भी तो धन्यवाद दे कर टाल गए। इतना ही नहीं, वह यह भी चाहते थे कि राजे और रईस मेरे द्वार पर आएँ, मेरी खुशामद करें, जो अनहोनी बात थी। अपने कई मंदबुद्धि सहपाठियों को वकालत या दूसरे सींगों में धन के ढेर लगाते, जाएदादें खरीदते, नए-नए मकान बनवाते देख कर कभी-कभी उन्हें अपनी दशा पर खेद होता था, विशेषकर जब उनकी जन्म-संगिनी शैव्या गृहस्थी की चिंताओं से जल कर उन्हें कटु वचन सुनाने लगती थी,पर अपने रचना-कुटीर में कलम हाथ में ले कर बैठते ही वह सब कुछ भूल साहित्य-स्वर्ग में पहुँच जाते थे, आत्म-गौरव जाग उठता था। सारा अवसाद और विषाद शांत हो जाता था।।

मगर इधर कुछ दिनों से साहित्य-रचना में उनका अनुराग कुछ ठंडा होता जाता था। उन्हें कुछ ऐसा जान पड़ने लगा था कि साहित्य-प्रेमियों को उनसे वह पहले की-सी भक्ति नहीं रही। इधर उन्होंने जो दो पुस्तकें बड़े परिश्रम से लिखी थीं और जिनमें उन्होंने अपने जीवन के सारे अनुभव और कला की सारी प्रौढ़ता भर दी थी, उनका कुछ विशेष आदर न हुआ था। इसके पहले उनकी दो रचनाएँ निकली थीं। उन्होंने साहित्य-संसार में हलचल मचा दी थी, हर एक पत्र में उन पुस्तकों की विस्तृत आलोचनाएँ हुई थीं, साहित्य-संस्थानों ने उन्हें बधाइयाँ दी थीं, साहित्य-मर्मज्ञों ने गुणग्राहकता से भरे पत्र लिखे थे, यद्यपि उन रचनाओं का देवकुमार की नजर में अब उतना आदर न था, उनके भाव उन्हें भावुकता के दोष से पूर्ण लगते थे, शैली में भी कृत्रिमता और भारीपन था। पर जनता की दृष्टि में वही रचनाएँ अब भी सर्वप्रिय थीं। इन नई कृतियों से बिन बुलाए मेहमान का-सा आदर किया गया, मानो साहित्य-संसार संगठित हो कर उनका अनादर कर रहा हो। कुछ तो यों भी उनकी इच्छा विश्राम करने की हो रही थी, इस शीतलता ने उस विचार को और भी दृढ़ कर दिया। उनके दो-चार सच्चे साहित्यिक मित्रों ने इस तर्क से उनको ढाढ़स देने की चेष्टा की कि बड़ी भूख में मामूली भोजन भी जितना प्रिय लगता है, भूख कम हो जाने पर उससे कहीं रुचिकर पदार्थ भी उतने प्रिय नहीं लगते, पर इससे उन्हें आश्वासन न हुआ। उनके विचार में किसी साहित्यकार की सजीवता का यही प्रमाण था कि उसकी रचनाओं की भूख जनता में बराबर बनी रहे; जब वह भूख न रहे तो उसको क्षेत्र से प्रस्थान कर जाना चाहिए। उन्हें केवल पंकजा के विवाह की चिंता थी और जब उन्हें एक प्रकाशक ने उनकी पिछली दोनों कृतियों के पाँच हजार दे दिए तो उन्होंने इसे ईश्वरीय प्रेरणा समझा और लेखनी उठा कर सदैव के लिए रख दी। मगर इन छह महीनों में उन्हें बार-बार अनुभव हुआ कि वे वानप्रस्थ ले कर भी अपने को बंधनों से न छुड़ा पाए। शैव्या के दुराग्रह की तो उन्हें कुछ ऐसी परवाह न थी। वह उन देवियों में थी जिनका मन संसार से कभी नहीं छूटता। उसे अब भी अपने परिवार पर शासन करने की लालसा बनी हुई थी, और जब तक हाथ में पैसे भी न हों, वह लालसा पूरी न हो सकती थी। जब देवकुमार अपने चालीस वर्ष के विवाहित जीवन में उसकी तृष्णा न मिटा सके तो अब उसका प्रयत्न करना वह पानी पीटने से कम व्यर्थ न समझते थे। दुख उन्हें होता था, संतकुमार के विचार और व्यवहार पर, जो उनको घर की संपत्ति लुटा देने के लिए इस दशा में भी क्षमा न करना चाहता था। वह संपत्ति जो पचास साल पूर्व दस हजार में बेच दी गई, आज होती तो उससे दस हजार साल की निकासी हो सकती थी। उनकी जिस आराजी में दिन को सियार लोटते थे,वहाँ अब नगर का सबसे गुलजार बाजार था जिसकी जमीन सौ रुपए वर्ग फुट पर बिक रही थी। संतकुमार का महत्वाकांक्षी मन रह-रह कर अपने पिता पर कुढ़ता रहता था। पिता और पुत्र के स्वभाव में इतना अंतर कैसे हो गया यह रहस्य था। देवकुमार के पास जरूरत से हमेशा कम रहा, पर उनके हाथ सदैव खुले रहे। उनका सौंदर्य भावना से जागा हुआ मन कभी कंचन की उपासना को जीवन का लक्ष्य न बना सका। यह नहीं कि वह धन का मूल्य जानते न हों मगर उनके मन में यह धारणा जम गई थी कि जिस राष्ट्र में तीन चौथाई प्राणी भूखों मरते हों, वहाँ किसी एक को बहुत-सा धन कमाने का कोई नैतिक अधिकार नहीं है, चाहे इसकी उसमें सामर्थ्य हो, मगर संतकुमार की लिप्सा ऐसे नैतिक आदेश पर हँसती थी। कभी-कभी तो निस्संकोच हो कर वह यहाँ तक कह जाता था कि जब आपको साहित्य से प्रेम था तो आपको गृहस्थ बनने का क्या हक था। आपने अपना जीवन तो चौपट किया ही, हमारा जीवन भी मिट्टी में मिला दिया और अब आप वानप्रस्थ ले कर बैठे हैं, मानो आपके जीवन के सारे ऋण चुक गए

जाड़ों के दिन थे। आठ बज गए थे, सारा घर नाश्ते के लिए जमा हो गया था। पंकजा तख्त पर चाय और संतरे और सूखे मेवे तश्तरियों में रख दोनों भाइयों को उनके कमरों से बुलाने गई और एक क्षण में आ कर साधुकुमार बैठ गया । ऊँचे कद का, सुगठित,रूपवान, गोरा, मीठे वचन बोलनेवाला, सौम्य युवक था। जिसे केवल खाने और सैर-सपाटे से मतलब था। जो कुछ मिल जाए भरपेट खा लेता था और यार-दोस्तों में निकल जाता था।