Prem Gali ati Sankari - 46 in Hindi Love Stories by Pranava Bharti books and stories PDF | प्रेम गली अति साँकरी - 46

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प्रेम गली अति साँकरी - 46

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कुछ होना थोड़े ही था, कुछ नहीं हुआ लेकिन उन रिश्तेदारों के दिलों की धड़कनें बढ़ानी थीं, उन्हें भयभीत करना था, पापा ने वही किया लेकिन धूर्त लोग थे, ऐसे नहीं और कुछ सही | उन्होंने शीला और रतनी के चरित्र के बारे में बातें उड़ानी शुरु कर दीं | एक तरफ़ जगन की आत्मिक शांति के लिए पूजा करवा रहे हैं और दूसरी ओर उनके अपनों के ऊपर उलटी-सीधी बातें बनाकर उनके ही चरित्र से खेलने की कोशिश कर रहे हैं | कैसी है ये दुनिया ? मैं वैसे ही असहज थी और अब तो और भी असहज होती जा रही थी | हमारे यहाँ से गार्ड का हैल्पर छोटे वहीं शीला दीदी के घर पर था | उसको दिन में एक बार तो घर भी आना पड़ता था, तभी वह सब बातें बता जाता था | उसने ही बताया था शीला दीदी के ये रिश्तेदार लोग आस-पड़ौस में बेकार की बातें उड़ा रहे हैं | कैसे कंट्रोल किया जाए इन बेहूदों को ? मेरा मन इसी उधेड़बुन में लगा रहा | 

संस्थान का ग्रुप यू.के पहुँच गया था और अम्मा को वहाँ से जो सूचनाएं मिल रहीं थीं, वे हम सबको तसल्ली दे रही थीं | भाई ने बाकायदा अपने प्रोजेक्ट से महीने भर की छुट्टी ले ली थी और वह एमिली के साथ लगातार सबके साथ जुड़े हुए थे | इतनी तो ज़रूरत भी नहीं थी, अम्मा ने कहा --सारी तैयारियाँ तो यहाँ से हो ही गईं थीं लेकिन भाई व एमिली शायद इसलिए भी इतनी शिद्दत से जुड़ गए थे कि वे यहाँ संस्थान में तो कोई सहायता कर नहीं पा रहे थे | खैर, यह उनकी सोच थी लेकिन अच्छा सबको लग रहा था कि भाई और एमिली यहाँ साथ न रहते हुए भी मन से संस्थान के साथ जुड़े हुए हैं !

मेरी अनुपस्थिति में श्रेष्ठ आया था और मुझे न पाकर अम्मा-पापा से मिलकर यह कहकर चल गया था कि वह फिर आएगा | वह मुझसे मिलना चाहता था | मुझे उससे मिलने में कोई अधिक रुचि नहीं थी तो आपत्ति भी तो नहीं थी | उसके व्यक्तित्व ने मुझे प्रभावित तो किया ही था | वह शायद मुझसे खुलकर बात करना चाहता था जो शायद मैं भी चाहती थी | मुझे हर वह बात शीला दीदी और रतनी को सबसे पहले बता देनी होती थी जो मेरे मन में चुभती रहती थी लेकिन हो ही नहीं पा रहा था | उत्पल से मिले हुए भी कई दिन हो गए थे | वैसे जिस दिन उत्पल मुझे घुमाने ले गया था उसके बाद मेरी उससे हाय/हैलो के अलावा कोई विशेष बात नहीं हुई थी | 

आचार्य प्रमेश बर्मन की बहन के अम्मा के पास कई बार फ़ोन आए लेकिन अम्मा ने उन्हें स्पष्टता से सारी बातें बता दीं थीं और यह भी बताया था कि अभी वे मानसिक रूप से इस विषय पर बात करने के लिए तैयार नहीं हैं, शायद अमी भी न हो | हाँ, प्रमेश में एक बदलाव मुझे ज़रूर दिखाई दे रहा था कि जब भी वह मुझे देखता एक धीमी सी मुस्कुराहट मेरी ओर फेंक देता जो वह पहले नहीं करता था | क्या कारण होगा ? मैंने कई बार सोचा, क्या उनकी बहन ने उन्हें आगे बढ़ने का इशारा किया होगा ? पता नहीं, मुझे ऐसा ही लगा था | 

कई दिन हो गए थे उत्पल के पास बैठकर कॉफ़ी पीने और गप्पें मारने का समय ही नहीं मिलता था | उत्पल का प्रेम एक ऐसा प्रेम था जिसका खिलना अभी शेष था | वह जब भी मुझसे कोई ऐसी बात करता मैं उसे कहीं दूसरी ओर मोड़कर ले जाती और उसका मुँह लटक जाता | सच तो यह था उसे देखे बिना, उससे झख मारे बिना मुझे भी कहाँ चैन पड़ता था? लेकिन भीतर से डर तो लगता ही था | 

“मे आई कम इन ? ” हूँ---- उत्पल महाराज थे | नटखट भोला सा चेहरा और चेहरे पर जैसे सारे प्यार को लपेटकर ले आता था वह जिसकी एक-एक परत वह मेरे सामने उतारने की चेष्टा करता लेकिन उसके लिए खुलकर सब बात कह देना संभव तो हो ही नहीं रहा था | अगर उसके मन में मेरे प्रति इतनी गहराई से प्रेम था तो मेरे मन में भी उसे देखकर खुदर-बुदर होती थी लेकिन इसका मतलब यह नहीं था कि मैं उसकी दृष्टि को स्वीकार कर सकती थी | मेरे खिचड़ी होते बाल मुझे उसके खूबसूरत घुँघराले बालों से कहीं भी मैच करते नज़र न आते थे और वह कहता था कि मेरे ‘सॉल्ट-पेपर’बाल कितने खूबसूरत थे | 

“आपको तो नेचर ने इतना प्यारा बनाया है, लोग तो बालों में, मुँह पर न जाने क्या-क्या करवाते हैं---”कभी-कभी वह कहता और मैं झेंप जाती | 

आज जब वह आया, महाराज को कॉफ़ी बनाकर लाने के लिए कह आया था, 5/7 मिनट बाद मेरे ऑफ़िस के दरवाज़े पर नॉक हुई | 

“आइए, आ जाइए ---”उत्पल ने कहा, स्वाभाविक था मेरी दृष्टि दरवाज़े की ओर उठी | महाराज थे, कॉफ़ी के प्यालों के साथ !

सामने कॉफ़ी रखकर महाराज वापिस लौट गए | 

“कितने दिन हो गए, आपके साथ कॉफ़ी नहीं पी ---चलिए, एक दिन फिर कहीं बाहर चलते हैं | ”उसने अचानक कहा | 

“चले चलेंगे ---मैं तुमसे कुछ डिस्कस करना चाहती थी ---”कॉफ़ी का सिप लेते हुए मैंने कहा | 

“क्या---बताइए न ---”वह कभी-कभी अचानक ही एक बच्चे का मुखौटा चढ़ा लेता था | 

“बता दूँगी, आजकल शीला दीदी और रतनी के न रहने से ---खैर काम तो कैसे न कैसे ठीक ही हो रहे हैं पर मैं उनसे अपनी कुछ बातें शेयर कर ही नहीं पाती थी---”

“आप मुझसे कर सकती हैं, बाई गॉड, मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगा ---”उसने मुसकुराते हुए अपनी गर्दन के नीचे की त्वचा चुटकी में भर ली | 

मेरी ज़ोर से हँसी छूट गई, क्या बचपना करता है ये लड़का !सवाल यह था कि क्या मुझे उसका यह बचपना अच्छा नहीं लगता था ? मेरा मन धड़कने लगता और सच ही उस पर प्यार आने लगता | 

“ये प्रेम इतना मुश्किल क्यों है? ” एक दिन उत्पल ने मुँह लटकाकर मेरे सामने देखते हुए पूछा था | 

“नहीं, प्रेम मुश्किल नहीं है उत्पल, हम प्रेम को मुश्किल बना देते हैं | ”

“आपने भी प्रेम को मुश्किल बनाया है न ? इसीलिए आप किसी का प्रेम स्वीकार नहीं कर पातीं? ”

“तुम पागल हो ? ऐसे ही मुझ पर लांछन लगा रहे हो? ” मैं उस दिन कुछ चिढ़ सी गई थी | 

“अरे!मेरी इतनी औकात कि मैं किसी पर भी लांछन लगा सकूँ –और वो भी आप पर ? ”वह दुखी सा दिखाई देने लगा था | 

उस दिन के बाद मैंने इस विषय पर उससे इस प्रकार की कुछ बात नहीं की थी लेकिन मैं अच्छी तरह जानती थी कि मेरे से बरसों छोटा यह लड़का मेरे मन के भीतर कबसे प्रवेश ले चुका था | 

“श्रेष्ठ आया था---मेरे पीछे ! वह मुझे लेकर कहीं बाहर जाने की बात कर रहा था ---”मैंने अपनी कॉफ़ी खत्म करके खाली मग मेज़ पर रखते हुए उसकी ओर देखा | 

“आपको कैसे पता ? वह आपको अपने साथ लेकर जाना चाहता है ? ” उसने छूटते ही पूछा | अभी उसके मग में शायद कॉफ़ी के दो–एक सिप थे | 

“मुझे सपना थोड़े ही आ रहा है ? अम्मा ने बताया था ---” मैंने उसकी ओर उखड़ती दृष्टि से देखा | 

“तो---मैं आपकी क्या सहायता कर सकता हूँ ? ” उसने जैसे बड़े ढीले स्वर में पूछा | 

“मेरे साथ चल सकोगे? कई बार उसका फ़ोन मम्मी के पास आ चुका है---”

“मैं क्या करूंगा? ----”उसका मूड कुछ अजीब सा हो आया था | 

“मेरे दोस्त हो, देखो तो सही, वह मेरे साथ सैट हो पाएगा या नहीं ? ” मैंने उसकी आँखों में झाँका | अचानक उसका चेहरा लटक गया, वह दुखी दिखाई दे रहा था | 

“देखो, तुम मेरे इतने अच्छे दोस्त हो, फ़िलहाल तो ये दो रिश्ते मेरे सामने आ खड़े हैं | ये प्रमेश आचार्य और श्रेष्ठ, चलो न देखो तो सही---”मैंने उससे चिरौरी सी की | 

“आप भी न, भला बताइए, मैं आपको क्या सलाह दे सकता हूँ ? आपका मैटर है, आप देखिए--” कहकर वह मेरे कमरे से जाने के लिए खड़ा हो गया, मैंने देख लिया था, उसकी आँखें चुगली खा रही थीं | 

“अरे!बैठो न, अभी क्या काम होगा ---? ”

“मैंने जयेश को बुलाया हुआ है, उसके साथी मिलकर कुछ मूवीज़ एडिट करनी हैं | फिर मिलते हैं---”जयेश उसको असिस्ट करता था | 

उसने मुझसे आपनी आँखें नहीं मिलाईं और कमरे से निकल गया | कितने अच्छे मूड में आया होगा वह !सच में मुझे अफ़सोस हुआ |