Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 72 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 72

Featured Books
  • My Wife is Student ? - 25

    वो दोनो जैसे ही अंडर जाते हैं.. वैसे ही हैरान हो जाते है ......

  • एग्जाम ड्यूटी - 3

    दूसरे दिन की परीक्षा: जिम्मेदारी और लापरवाही का द्वंद्वपरीक्...

  • आई कैन सी यू - 52

    अब तक कहानी में हम ने देखा के लूसी को बड़ी मुश्किल से बचाया...

  • All We Imagine As Light - Film Review

                           फिल्म रिव्यु  All We Imagine As Light...

  • दर्द दिलों के - 12

    तो हमने अभी तक देखा धनंजय और शेर सिंह अपने रुतबे को बचाने के...

Categories
Share

गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 72

भाग 71 जीवन सूत्र 91

जीवन सूत्र 91: ज्ञान वह है जो उपयोगी है

 

गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है,

ये त्वेतदभ्यसूयन्तो नानुतिष्ठन्ति मे मतम् । सर्वज्ञानविमूढांस्तान्विद्धि नष्टानचेतसः।3/32।

इसका अर्थ है,"हे अर्जुन!परन्तु जो मनुष्य मेरे इस मत में दोष-दृष्टि करते हुए इसका पालन नहीं करते, उन सम्पूर्ण ज्ञानों में मोहित और मूर्ख मनुष्यों को नष्ट हुए ही समझो।"

पूर्व के श्लोकों में बताया गया है कि भगवान के मत को मानने वाले अनुयायी अपने समस्त कर्म को उनको अर्पित करते हुए चलते हैं। एक ज्ञान अध्यात्मिक ज्ञान है, ईश्वर को जानने का प्रयत्न है तो दूसरा ज्ञान भौतिक सुख सुविधाओं में वृद्धि का भी है। यह सांसारिक ज्ञान है जो मनुष्य को अनेक तरह के फल आधारित कार्यों में उलझा कर उसे भवसागर पार करने के वास्तविक उद्देश्य से भटका देता है। यह तो उपलब्धियों के ऊपर मोहित हो जाना हुआ और उस पर भी अगर इन सब उपलब्धियों को मनुष्य केवल अपने लिए उपयोग करने की सोचे, या इनसे वैयक्तिक लाभ की सोचे, तब तो उसका जीवन बिना उद्देश्य के हो गया।

कबीर कहते हैं,

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय।

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।।

अगर मनुष्य ने केवल शास्त्रों का कोरा अध्ययन किया, उसे जीवन में नहीं उतारा और आजीविका वाले उद्देश्य से ही ज्ञान अर्जन की कोशिश की तो यह केवल कोरा ज्ञान है, जो व्यर्थ है। व्यावहारिक ज्ञान तो जीवन की कठिन चुनौती वाली परिस्थितियों में सूझबूझ, धैर्य और युक्ति के साथ पार निकल जाने में है। इन पंक्तियों का यह उद्देश्य बिल्कुल नहीं है कि विद्यालयों और महाविद्यालयों में विधिवत ली जाने वाली शिक्षा अनुचित है,या उसका त्याग कर देना चाहिए;बल्कि तात्पर्य यह है कि हमारे ज्ञान विज्ञान को हम अपनी समझ बढ़ाने के लिए,आत्म उन्नति के लिए और जीवन की पाठशाला में हमारे सम्मुख उपस्थित होने वाले समस्या मूलक परिस्थितियों को हल करने में सहायक के रूप में उपयोग करेंगे,तो ही इसकी सार्थकता है।

 

वास्तव में अपनी कमियों,त्रुटियों और असफलताओं के लिए दूसरों को दोष दे देना बहुत आसान है, लेकिन आत्म विश्लेषण करने पर व्यक्ति को स्वयं की त्रुटियां या दोष स्पष्ट नजर आ सकते हैं,लेकिन ऐसा हम कहां कर पाते हैं? वास्तव में मनुष्य के सामाजिक प्राणी होने के कारण ऐसा हो ही नहीं सकता है कि एक व्यक्ति आत्मकेंद्रित होकर जीवन व्यतीत कर ले या वह जो कार्य करे, उससे कोई दूसरा व्यक्ति संबंधित ही न हो, अर्थात न तो उसके कर्म का दूसरे पर प्रभाव पड़े और न दूसरों के कर्म से वह कभी जुड़ता हो।गीता में तो कर्म की व्यापक अवधारणा बताई गई है, जिसमें मनुष्य की स्वाभाविक क्रियाएं जैसे सांस लेना,शयन,वार्तालाप आदि भी कर्म के अंतर्गत शामिल होती हैं। वास्तव में हम बिना कर्म किए एक क्षण भी नहीं रह सकते हैं।

 

जीवन सूत्र 92 सत्य पालन में नुकसान देखने वाले भ्रमित लोग हैं

 

इस श्लोक में भगवान कृष्ण स्पष्ट रूप से यह कहते हैं कि जो लोग उनके मत के अनुसार अर्थात सत्य और सद मार्ग पर नहीं चलते हैं,वे भ्रमित, मोहित हैं और ऐसे लोग असफल ही होते हैं।सांसारिक मनुष्यों की तो बात क्या, लोग ईश्वर पर भी दोषारोपण करने से नहीं चूकते हैं।किसी की निज मान्यता को कोई कैसे बदल सकता है? स्वयं भगवान कृष्ण पर द्वारिका में स्यमंतक मणि के गायब होने पर आरोप लगे थे। बाद में कुछेक लोगों की यह अवधारणा पूरी तरह से असत्य सिद्ध हुई थी।त्रुटियां या असफलता मनुष्य को स्वयं को जांचने का और अपनी व्यवस्था को दुरुस्त कर लेने और सतत त्रुटिरहित रखने का अवसर प्रदान करती है ।दूसरों पर दोषारोपण कर हम यह अवसर गंवा देते हैं।

डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय