Kalvachi-Pretni Rahashy - 11 in Hindi Horror Stories by Saroj Verma books and stories PDF | कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(११)

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कलवाची--प्रेतनी रहस्य - भाग(११)

कुछ समय पश्चात सबके मध्य कुछ वार्तालाप हुआ एवं कोई योजना बनी,इसके उपरान्त सेनापति व्योमकेश एवं राजनर्तकी मत्स्यगन्धा अपने अपने निवासस्थान लौट गए,राजा कुशाग्रसेन पुनः रात्रि होने की प्रतीक्षा करने लगें किन्तु उनका पूर्ण दिन बड़ी कठिनता से बीता,रात्रि हुई एवं वें रानी कुमुदिनी से कुछ वार्तालाप करने के पश्चात शीशमहल की ओर चल पड़े,वें शीशहमल पहुँचे एवं उन्होंने कालिन्दी के कक्ष की ओर प्रस्थान किया,वें अब कालिन्दी के कक्ष के समक्ष थे उन्होंने किवाड़ पर थाप देकर पुकारा.....
कालिन्दी.....कालिन्दी!मैं कुशाग्रसेन,किवाड़ खोलो प्रिऐ!
किन्तु भीतर से कोई स्वर ना आया,राजा कुशाग्रसेन ने पुनः प्रयास किया,पुनः किवाड़ पर थाप देकर कालिन्दी को पुकारा,किन्तु इस बार भी कोई प्रतिक्रिया ना हुई,तब राजा कुशाग्रसेन ने कक्ष के भीतर जाना ही उचित समझा एवं वें धीरे से किवाड़ खोलकर कक्ष के भीतर चले गए,वहाँ उन्होंने देखा कि केवल कई दीपक टिमटिमा रहें थे एवं उन सभी का प्रकाश सम्पूर्ण कक्ष को प्रकाशमान कर रहा था,कक्ष का वातायन(खिड़की) खुली हुई थी परन्तु वहाँ कालिन्दी उपस्थित नहीं थी,बिछौना खाली पड़ा था एवं स्नानागार के किवाड़ भी खुले थे,इसका तात्पर्य था कि कक्ष में कोई भी उपस्थित नहीं था,ये देखकर महाराज कुशाग्रसेन राजनर्तकी मत्स्यगन्धा के कक्ष की ओर तीव्र गति से चल पड़े,वहाँ पहुँचकर उन्होंने मत्स्यगन्धा को पुकारते हुए कहा....
मत्स्यगन्धा....राजनर्तकी मत्स्यगन्धा,शीघ्रता से किवाड़ खोलिए....
महाराज कुशाग्रसेन का स्वर मत्स्यगन्धा ने पहचान लिया एवं शीघ्र ही किवाड़ खोलकर उनसे बोली....
महाराज!आप यहाँ!कहीं आपको यहाँ कालिन्दी ना देख लें तो उसे हमारी योजना पर संदेह हो जाएगा....
वो यहाँ होगी तब तो देखेगी,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
मैं आपके कहने का आशय नहीं समझी,मत्स्यगन्धा बोली..
मत्स्यगन्धा!कालिन्दी अपने कक्ष में नहीं है,आज तो निश्चित ही किसी ना किसी के प्राण जाऐगें,वो अवश्य ही अपना भोजन ग्रहण करने गई होगी,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
महाराज!ये तो संकट आ खड़ा हुआ,अब क्या करें?मत्स्यगन्धा बोली....
तो ऐसे हाथ पर हाथ धरे भी तो नहीं बैठा जा सकता,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
और कौत्रेय कहाँ है?,मत्स्यगन्धा ने पूछा....
उसके कक्ष में तो मैनें नहीं देखा,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
चलिए कौत्रेय के कक्ष में चलकर देखते हैं,मत्स्यगन्धा बोली...
हाँ....हाँ....चलो मत्स्यगन्धा! ,महाराज कुशाग्रसेन बोले....
एवं वें दोनों बिना बिलम्ब किए कौत्रेय की कक्ष की ओर चल पड़े,वें कुछ दूर चले ही थे कि उन्हें शीशमहल के सन्पथ(गलियारे)पर देखा कि कालिन्दी कहीं से चली आ रही है एवं कालिन्दी ने भी देखा कि महाराज कुशाग्रसेन मत्स्यगन्धा के संग है,वो मत्स्यगन्धा के संग महाराज कुशाग्रसेन को देखकर ईर्ष्या से जल उठी,किन्तु बोली कुछ नहीं,तभी महाराज ने उसके समीप जाकर उससे पूछा....
तुम कहाँ चली गई थी कालिन्दी? मैनें तुम्हें तुम्हारे कक्ष में खोजा,जब तुम नहीं मिली तो राजनर्तकी मत्स्यगन्धा से पूछने चला गया....
जी!मुझे अपने कक्ष में अच्छा नहीं लग रहा था,मुझे तो सदैव खुले वातावरण में रहने का अभ्यास है तो अपने कक्ष में मुझे नीरस सा अनुभव हो रहा था इसलिए बाहर चली गई थी,कालिन्दी बोली....
ओह...तो ये बात है,मैं तो समझा कि...,इतना कहते कहते महाराज कुशाग्रसेन रूक गए....
उनका यूँ बोलते बोलते रूकना कालिन्दी को कुछ भाया नहीं इसलिए उसने महाराज कुशाग्रसेन से पूछा....
तो आप क्या समझे महाराज?
कुछ नहीं ,कुशाग्रसेन बोलें....
आपने कुछ तो समझा होगा,कालिन्दी ने पुनः पूछा...
मैनें समझा कि कदाचित तुम्हें महल का जीवन ना भाया हो और तुम यहाँ से पुनः वन को चली गई हो,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
महाराज!मैं आपकी अनुमति के बिना भला यहाँ से कैसें जा सकती हूँ,कालिन्दी बोली...
वो सब तो ठीक है कालिन्दी!किन्तु कौत्रेय कहाँ है?मत्स्यगन्धा ने पूछा....
और कहाँ होगा,अपने कक्ष में ही होगा,कालिन्दी बोली....
ओह...तो कोई बात नहीं,मैं अब अपने कक्ष में जाती हूँ,मुझे अत्यधिक निंद्रा आ रही है और ऐसा बहाना बनाकर मत्स्यगन्धा अपने कक्ष में चली गई,वो नहीं चाहती थी कि महाराज की योजना में कोई बाँधा पड़ें,मत्स्यगन्धा के जाते ही महाराज कुशाग्रसेन ने कालिन्दी का हाथ पकड़ते हुए कहा....
तुम कहाँ चली गई थी प्रिऐ!तुम्हें ज्ञात भी है कि मैं कितना भयभीत हो गया था....
तभी कालिन्दी क्रोध से अपना हाथ छुड़ाते हुए बोली....
तभी तो मुझे मेरे कक्ष में ना पाकर आप मत्स्यगन्धा के कक्ष की ओर चले गए,मुझे सब ज्ञात है महाराज!आप मुझसे कोई प्रेम-व्रेम नहीं करते,आप पुरूषों का स्वाभाव ही ऐसा होता है,विवाह किसी से,प्रेम किसी से और रासलीला किसी और के संग ,आप पुरूष विश्वास करने योग्य होते ही नहीं हैं......
तब कालिन्दी की बात सुनकर महाराज कुशाग्रसेन बोलें.....
प्रिऐ!जो तुमने देखा वो सत्य नहीं है,मैं भला मत्स्यगन्धा के संग रासलीला रचाऊँगा ये सम्भव नहीं है,वो तो प्रतिदिन अनगिनत पुरूषों के समक्ष अपना नृत्य प्रस्तुत करती है,कितने ही पुरूष उसे पाना चाहते हैं उसकी इच्छा रखते हैं,उस जैसी स्त्री से भला मैं प्रेम क्यों करने लगा,वो मेरे प्रेम के योग्य नहीं है,मुझे तो तुम्हारी जैसी शीलवती, गुणवती, सुन्दर,सुशील एवं लज्जाशील युवती चाहिए,तुमसे योग्य इस संसार में और कोई भी नहीं....
आप सत्य कहते हैं महाराज!कालिन्दी बोली...
हाँ....प्रिऐ!यही सत्य है,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
तो चलिए मेरे कक्ष में चलकर वार्तालाप करते हैं,कालिन्दी बोली...
किन्तु पहले मैं कौत्रेय से भेट करना चाहूँगा,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
अवश्य महाराज!कदाचित वो अपन कक्ष में होगा...कालिन्दी बोली...
क्या पता कल रात्रि की भाँति पुनः अन्तर्धान ना हो गया हो,महाराज कुशाग्रसेन बोले...
नहीं महाराज!मैनें स्वयं देखा था,वो अपने कक्ष में ही था,कालिन्दी बोली...
तो चलो उसके कक्ष में चलकर उसके संग भी कुछ समय तक वार्तालाप कर लेते हैं,महाराज कुशाग्रसेन बोलें...
चलिये!यदि आपकी यही इच्छा है तो,कालिन्दी बोली...
और दोनों कौत्रेय के कक्ष में पहुँचें,महाराज ने किवाड़ो पर थाप दी एवं कौत्रेय ने किवाड़ खोलकर आँखें मलते हुए कहा....
महाराज आप!मैं कदाचित गहरी निंद्रा में था...
किन्तु कल कहाँ अन्तर्धान थे ?महाराज कुशाग्रसेन ने पूछा....
महाराज!कुछ भी हो ,वो तो है मेरी पत्नी,उसका विचार आया और मैं उससे भेट करने चला गया,कौत्रेय बोला....
कोई बात नहीं,क्या हम दोनों तुम्हारे कक्ष में आ सकते हैं?महाराज कुशाग्रसेन ने पूछा...
क्यों नहीं महाराज! आपको मेरे कक्ष में आने हेतु मेरी अनुमति क्या आवश्यकता है?कौत्रेय बोला....
अन्ततः सब बैठकर वार्तालाप करने लगे,कुछ समय पश्चात महाराज कुशाग्रसेन बोले....
अब मैं राजमहल वापस जाऊँगा,क्योंकि सेनापति व्योमकेश के संग मुझे उस हत्यारे के विषय में कुछ ज्ञात करने हेतु कहीं जाना है....
किन्तु महाराज!आप को आए अभी अत्यधिक समय तो नहीं हुआ है,कालिन्दी बोली....
मेरी विवशता समझने का प्रयास करो कालिन्दी!राज्य की भलाई हेतु मुझे जाना ही होगा,महाराज कुशाग्रसेन बोलें....
ठीक है तो जाइए महाराज!कालिन्दी अनमने मन से बोली.....
महाराज!मन ही मन मुस्कुराएं एवं शीघ्रता से शीशमहल से बाहर चले आए,उनका उद्देश्य यही ज्ञात करने का था कि कहीं कालिन्दी रात्रि को अपना भोजन ग्रहण करने तो नहीं जाती एवं कदाचित वो अब भोजन ग्रहण करके आ चुकी थी और महाराज को शीशमहल पहुँचने में बिलम्ब हो गया था ,यही सोचते सोचते वें मार्ग में चले आ रहे हैं तभी उन्हें मार्ग के एक ओर एक झाड़ी के समीप एक-दो शालावृक (लोमड़ी) दिखीं,चूँकि पूर्णिमा रात्रि थी इसलिए चन्द्रप्रकाश फैला हुआ था,इसलिए वें सबकुछ ठीक से देख पा रहे थें,उन्हें उन शालावृक को देखकर कुछ संदेह सा हुआ,इसलिए उन्होंने बिलम्ब ना करते हुए अपनी खड्ग(तलवार) निकाली एवं उन शालावृक को भयभीत किया,वें शालावृक उनकी खड्ग से भयभीत होकर दूर भाग गए,महाराज कुशाग्रसेन ने उस स्थान पर जाकर देखा तो एक क्षत-विक्षत शव पड़ा था,उस शव को देखकर उन्हें अब कालिन्दी पर संदेह हुआ कि कालिन्दी कहीं यही कार्य करने तो बाहर नहीं निकली थीं.....

क्रमशः....
सरोज वर्मा....