My First Trip To Japan in Hindi Motivational Stories by Ashok Kaushik books and stories PDF | मेरी पहली जापान यात्रा

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मेरी पहली जापान यात्रा

जब मुझे एहसास हुआ कि मुझे जापान देश से प्रेम हो गया है, उस समय मेरी उम्र 14 वर्ष की थी और मैंने दसवीं कक्षा पास कर ली थी. इस के ‘क्यों’ और ‘कैसे’ का कोई जवाब मुझे आज तक नहीं मिला. उन दिनों ‘दैनिक हिंदुस्तान’ अख़बार के रविवार के अंक में आधे पन्ने का “बच्चों की दुनिया” एक कॉलम आता था, जिस में अन्य सामग्री के अतिरिक्त ‘पत्र-मित्र’ बनाने का एक हिस्सा होता था. पत्र-मित्र बनाने के निमंत्रण के लिए बच्चों को अपना नाम, आयु, कक्षा, शौक और डाक का पूरा पता उस कॉलम के संपादक को पत्र लिखकर भेजना होता था. मैं उस पेज को हमेशा पूरा पढ़ता था, परन्तु कभी पत्र-मित्र बनाने की ओर ध्यान नहीं गया. एक दिन मुझे वहाँ टोक्यो के ‘योशिकाजू यामादा’ नाम के 16 वर्ष के एक बच्चे का विवरण दिखाई दिया, जो भारत में पत्र-मित्र बनाना चाहता था. अचानक उससे मित्रता करने की बात दिमाग में आयी. जब उसे पत्र लिखने की इच्छा पिताजी से बताई तो उन्होंने तुरंत ‘हाँ’ कर के मेरा उत्साह दुगना कर दिया. उन्होंने विदेश में पत्र भेजने का तरीका समझाया और डाकखाने से एक साथ दो (महंगे) ‘अंतर्देशीय पत्र’ भी खरीदकर मुझे दे दिए. इसका मूल्य 85 पैसे होता था, जब कि उसी डिजाइन के भारत के ‘इनलैंड’ पत्र का मूल्य मात्र 15 पैसे होता था. उस उम्र में किसी विदेशी को पत्र लिखने के ख्याल मात्र से ही मैं कुछ देर के लिए अपने आप को दोस्तों से ऊपर समझने लगा. मैंने यामादा को अंग्रेजी में लिखा पहला पत्र भेज दिया, जिस में मैंने जापान के बारे में उससे बहुत सारे सवाल कर दिए थे. गवर्नमेन्ट स्कूल में हिंदी माध्यम में पढने के बावजूद मेरा अंग्रेजी विषय बहुत मजबूत था, जिसका लाभ मुझे इस पत्र-व्यवहार में हुआ.

“यदि यामादा का उत्तर आ भी गया तो उसकी भाषा तो जापानी होगी” - यह सोचकर मन में शंका चल रही थी. एक महीने के बाद उसका पत्र आया और आशा के विपरीत पत्र अंग्रेजी में था और सुदृढ़ भाषा में लिखा था. सारे प्रश्नों के उत्तर उसने प्रश्नों के क्रम के अनुसार ही दिए थे. आज सोचता हूँ कि जापानियों को बचपन से ही तर्कपूर्ण ढंग से सोचने और कार्य करने की शिक्षा दी जाती है. एक वर्ष तक चले 5-6 पत्रों के इस सिलसिले में हमने अपने देश का भूगोल, रहन-सहन, खान-पान, त्यौहार, परिवार, आदि अनेक प्रकार की जानकारी साझा की. इसके अतिरिक्त हमने अपनी-अपनी भाषाओँ (हिंदी और जापानी) की कुछ वर्णमाला भी एक दूसरे को सिखाई. मेरे सपनों के देश जापान की मेरी यह पहली ‘मानसिक यात्रा’ थी, मगर यह मुझे एक बार उस विचित्र दुनिया को देखने का दृढ संकल्प अवश्य दे गयी.

एक कहावत सुनी है - “जब आप शिद्दत से कुछ पाने की इच्छा करते हैं तो सारी कायनात आपको मदद करने के लिए टूट पड़ती है.” मैंने इस कहावत को अपने पर अक्षरशः चरितार्थ होते हुए देखा.

आई.आई.टी. दिल्ली से एम.टेक. पूरा होने पर मेरी पहली नौकरी पिलानी में भारत सरकार के शोध संस्थान “सीरी” में वैज्ञानिक के पद पर लगी. वहाँ हमारी टीम शोध कार्य में प्रयुक्त होने वाले एक बेहद जटिल उपकरण (इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप) को पहली बार देश में विकसित करने पर कार्य कर रही थी. कुछ वर्ष वहाँ कार्य करने के बाद मैंने कई कारणों से नौकरी बदलने का विचार किया. दिल्ली में जापानी इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप बेचने वाली एक बड़ी कंपनी में मुझे अच्छी नौकरी का प्रस्ताव मिला और ज्वाइन करने के दो महीने के बाद ही मुझे जापान की कंपनी ने अपनी टोक्यो फैक्ट्री में तीन महीने के एक ‘उच्च प्रशिक्षण’ के लिए आमंत्रित किया.

यात्रा पर जाने से पहले कुछ आवश्यक जानकारी मैं इधर-उधर से जुटा रहा था. काश! उस समय तक भारत में भी इन्टरनेट आ गया होता! मुझे पता लगा कि जापान पूरी तरह से मांसाहारी देश है और विशेष रूप से ‘समुद्री भोजन’ वहाँ बहुत पसंद किया जाता है. मैं पूरा शाकाहारी व्यक्ति हूँ .. तीन महीने कैसे काटूँगा, अब इसकी चिंता सता रही थी.

एक अनुभवी मित्र ने सलाह दी कि जापानी लोग उपहार देना पसंद करते हैं, तो कुछ उपहार अपने साथ ज़रूर ले जाऊं. मैंने भारत के 15-20 परंपरागत उपहार साथ में रख लिए. उनकी यह सलाह मेरे लिए बड़ी लाभदायक साबित हुई.

यात्रा पर जाने का दिन आ गया था... रात में दो बजे की फ्लाइट थी. दिन में ही माता-पिता, छोटे भाई बहन तथा कुछ नजदीकी रिश्तेदार मुझे विदा करने घर पहुँच गए. आख़िर, खानदान का पहला लड़का विदेश जा रहा था. माँ ने थाली में पूजा-अर्चना का सामान रख कर विदाई की पूजा की और मुझे तिलक लगाया. उनके आशीर्वाद-स्वरुप सौ रूपए भी मुझे मिले. एक चचेरे भाई ने बहुत सारे फोटो खींचे, जो आज भी मेरी धरोहर हैं क्योंकि उन लोगों में से माता, पिता दोनों ही मुझे छोड़कर जा चुके हैं.

नौ घंटे की फ्लाइट के बाद वहाँ के दोपहर 3.30 बजे (भारत में दोपहर 12 बजे) मैंने टोक्यो के ‘नारिता’ हवाई अड्डे पर कदम रखा. रोमांच के साथ-साथ जापान अनजान देश होने के कारण अनेक प्रकार की शंकाएं भी मन में चल रही थीं. जापानी कंपनी ने ‘वेलकम सर्विस’ का इंतजाम किया था, जिसमें एक व्यक्ति हवाई अड्डे पर मेरे नाम की पट्टी लेकर आगंतुक गेट पर खड़ा था. उसने तीन चार बार नीचे झुक कर मेरा अभिवादन किया और सामान की ट्राली मुझ से ले ली. थोड़ा चलने के बाद उसने मुझे एक टैक्सी में बिठाकर हिदायत दी कि होटल पहुँच कर मुझे टैक्सी ड्राईवर को कोई पैसा नहीं देना है. सारा पेमेंट कंपनी द्वारा पहले ही कर दिया गया है. पालम हवाई अड्डे से निकल कर नारिता हवाई अड्डा अपने आप में एक शहर लग रहा था. टैक्सी चार-पांच बड़े घुमावदार जीने से होती हुई जब ऊपर जमीन पर पहुंची तो लगा जैसे हवाई जहाज ने बिलकुल पाताल में ही उतार दिया था !!

टैक्सी टोक्यो की चौड़ी शानदार सड़कों पर चली जा रही थी. होटल तक की डेढ़ घंटे की लम्बी यात्रा बहुत रोमांचकारी थी. पहली बार इतना साफ़-सुथरा भव्य शहर और बड़ी ‘मित्सुबिशी’ टैक्सी देखी जहाँ टैक्सी ड्राईवर फ़ोन पर किसी से बात भी कर सकता था. सुहावना मौसम, सफ़ेद बादलों से भरा नीला आकाश, आसमान छूती इमारतें, फ्लाई ओवर, आगे पीछे कारें ही कारें... इन सब नज़ारों के बीच मैं खुद को ‘लव इन टोक्यो’ का जॉय मुखर्जी महसूस कर रहा था. रास्ते-भर सुन्दर भवन, पार्क, जापानी ढंग से बने घर, लोकल ट्रेन के स्टेशन.. मुझे बिलकुल नयी दुनिया में ले आए थे. एक क्षण के लिए मैंने सोचा- “क्या ‘स्वर्ग’ यही होता है?”

मेरे ठहरने का होटल फैक्ट्री से थोड़ी दूर नाकागामी इलाके में था. सिर्फ दस कमरों का दो-मंजिला खूबसूरत होटल, जिसे 40-45 वर्ष की एक महिला ‘कासुमी’ सान चलाती थीं, मुझे बहुत पसंद आया. यहाँ बता दूँ कि ‘सान’ शब्द उस महिला के नाम का हिस्सा नहीं था. जापान में हर व्यक्ति को, चाहे उसकी आयु कितन भी हो, उसके नाम के आगे एक सम्मानपूर्वक शब्द ‘सान’ लगा कर संबोधित किया जाता है.

होटल पहुँचने के एक घंटे बाद मेरे होने वाले प्रशिक्षक ओकी सान मेरे होटल पहुँच गए. उन्होंने मुझे प्रशिक्षण का प्रोग्राम, शर्तें और फैक्ट्री में काम करने के नियम इत्यादि विस्तार से समझा दिए. मेरा कमरे का किराया, नाश्ता और शाम का भोजन कंपनी की ओर से ही थे, और लंच की व्यवस्था फैक्ट्री में की जानी थी, इसके लिए उन्होंने मुझ से मेरी खाने की पसंद के बारे में पूछा. जब मैंने बताया कि मैं बिलकुल शाकाहारी हूँ, तो मुझे उनके चेहरे पर एक अजीब सी चिंता दिखाई दी.
वे बोले –“तब तो बड़ा मुश्किल हो जायेगा, क्योंकि मैं शाकाहारी खाने में आपको अंडा, चिकेन और मछली के अलावा कोई और ‘चॉइस’ नहीं दे सकता.” मुझे वहाँ के ‘शाकाहार’ की परिभाषा अजीब सी लगी.
मैंने उन्हें बताया - “ओकी सान, इन तीनों में से मैं कुछ भी नहीं खाता हूँ.” - मेरा यह उत्तर सुनकर वे और बड़ी चिंता में पड़ गए.
मैंने उन की गंभीर समस्या को सुलझाने की कोशिश की...
- “ क्या आप मुझे ब्रेड, बटर, जैम, पनीर, उबली हुई कुछ सब्जियां, दही, फ्रूट-जूस, फल, आइसक्रीम आदि दे सकते हैं ?”
- “ हाँ, क्यों नहीं ! ये तो जितना चाहें मिल जायेगा! इस में तो आप नहा भी सकते हैं.” उन्होंने मज़ाक किया. उनका तनाव अचानक गायब हो चुका था.
- “ ठीक है, आप मेरे नहाने और खाने का बढ़िया इंतज़ाम करवा दीजिये.”- मैंने भी चुटकी ली.

सच कहूँ तो मेरे मज़े आ गए थे. मुझे बिना तेल मसाले का सादा खाना हमेशा से पसंद है. इस वार्तालाप तक हम लोग मित्र बन चुके थे. थोड़ी देर कमरे में गपशप करके हम दोनों खाने के लिए पास में ही एक अमेरिकन होटल ‘गैलेक्सी प्लाजा’ गए. दोनों ने अपना-अपना खाना आर्डर किया. खाने से पहले ओकी सान ने जापान की तीन प्रसिद्ध बियर ‘आसाही’, ‘किरिन’ और ‘सप्पोरो’ और ‘ड्रिंक्स’ लेने के जापानी शिष्टाचार से भी मेरा परिचय कराया. जापान में ‘ड्रिंक्स’ की शुरुआत गिलास को हाथ में उठाकर ‘चियर्स’ के बजाय ‘कानपाई’ बोल कर की जाती है.

मेरा होटल फैक्ट्री से बस आधा किलोमीटर दूर था. अगले दिन सुबह 7.45 बजे मैं पैदल चलकर फैक्ट्री पहुँच गया. ओकी सान अपने ऑफिस में पहले ही पहुँच कर मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे. वे एक विभाग के अध्यक्ष थे. उन्होंने मेरे नाप की एक खाकी रंग की पेंट और जैकेट का सेट मुझे दिया जो नियम के अनुसार प्रशिक्षण के दौरान मुझे कार्य-समय में पहनना था. कपड़े बदलने के लिए तीस मिनट में ही एक कोने में पर्दा लगवा दिया गया. फिर उन्होंने मुझे अपने विभाग के सब लोगों से मिलवाया. दोपहर 12.00 से 12.40 बजे तक लंच का समय था. चूँकि मेरे लिए अलग प्रकार के भोजन की व्यवस्था की गयी थी, इसलिए मुझे ओकी सान के साथ ही अतिथि कक्ष में भोजन करना था. एक सप्ताह में मैं वहाँ सबसे घुल मिल गया. लंच के बाद मेरा प्रशिक्षण शुरू हो गया.

चूँकि मेरा प्रवास तीन महीने का था, इस कारण मुझे बारह सप्ताहांत (24 दिन) जापान देखने के लिए मिल गए. इस अवसर का मैंने भरपूर उपयोग किया. मैं हर शनिवार, रविवार को टोक्यो के दर्शनीय स्थानों पर चला जाता था. इस बीच मैंने अनेक पर्यटक स्थल और बाज़ार देखे. इन में से कुछ का ज़िक्र किये बगैर मेरी बात अधूरी रहेगी: टोक्यो टावर, मेइजी श्राइन (टोक्यो का सबसे सम्मानित पूजा-स्थल), टोक्यो इम्पीरियल पैलेस (राजा का महल), निजुबाशी (महल का मुख्य-द्वार जिससे केवल वहाँ के राजा और राजकीय मेहमान महल में आते-जाते हैं), टोक्यो-सेन्ट्रल स्टेशन एरिया, हिबिया पार्क (जापानी गार्डन), उएनो पार्क, आसाकुसा टेम्पल, सेंसोजी टेम्पल, रयोगोकू (सूमो पहलवानों के हॉस्टल तथा घर का इलाका), आदि मुख्य स्थान हैं.

टोक्यो में अनेक ‘शौपिंग हब’ हैं. आकिहाबारा इलेक्ट्रोनिक सामानों का सबसे बड़ा केंद्र है. गिंज़ा, शिनजुकू, रोपोंगी, शिबुया में बहुत बड़े-बड़े स्टोर, सुपर मार्किट और विश्व की बड़ी कंपनियों के दफ्तर हैं. हाराज़ाकू क्षेत्र जापान की ‘कवाई’ संस्कृति देखने समझने का प्रमुख केंद्र है. काबुकी थिएटर जापान की परंपरागत नाटक और नृत्य-शैली के कार्यक्रमों के लिए बहुत प्रसिद्ध हैं. बिना चीन जाये चीन देखने के लिए टोक्यो के ‘चाइना टाउन’ से बढ़िया जगह शायद कोई नहीं हो सकती. वहाँ भोजन के लिए सांप के अलावा ऐसे ऐसे समुद्री जीव जंतु देखने को मिलेंगे जिन्हें देखकर जितना कौतुहल होगा, उससे ज़्यादा डर लगता है. आप स्वयं पसंद कर के किसी भी जीव की ‘डिश’ बनवा सकते हैं. ‘चाइना टाउन’ जाना एक विचित्र किन्तु अलग प्रकार का अनूठा अनुभव है.

जापान में बुद्ध की पूजा की जाती है. मैं एक दिन टोक्यो से दो घंटे की दूरी पर एक छोटे शहर कामाकुरा गया जहाँ 'कामाकुरा दाईबुत्सू’ है. यह जापान की दूसरी सबसे ऊँची 11.4 मीटर की बुद्ध की कांसे की मूर्ति है (सबसे ऊँची मूर्ति नारा के तोदाजी श्राइन में है). 'कामाकुरा दाईबुत्सू’ को एक पवित्र स्थान माना जाता है. छुट्टी का दिन होने के कारण उस दिन पर्यटकों और स्थानीय लोगों की बहुत भीड़ थी. दाईबुत्सू के चारों ओर बहुत बड़ा और इतना खूबसूरत बाज़ार है कि सब कुछ खरीदने का मन करता है.

जापान की रेल प्रणाली विश्व की सर्वश्रेष्ठ रेल प्रणाली है. मैं टोक्यो घूमने के लिए मेट्रो का ही प्रयोग करता था. ऑफिस आने -जाने के समय और शाम को बाज़ार बंद होने के समय मेट्रो स्टेशन पर बेहताशा भीड़ होती थी लेकिन मैंने वहाँ कभी भी दिल्ली की बसों जैसी धक्का-मुक्की नहीं देखी. सभी यात्री हमेशा अनुशासित ढंग से ट्रेन में चढ़ते थे. ट्रेन के डिब्बे के अन्दर का एक दृश्य मुझे विशेष रूप से अच्छा लगता था. अत्यधिक भीड़ के कारण किसी के भी गिरने की कोई संभावना नहीं होती थी. अक्सर युवा लड़के-लड़की एक हाथ में एक छोटी, लम्बी पत्रिका को या अख़बार को आठ दस तह करके ऐसी ही पत्रिका के साइज़ में बना कर एक हाथ से पकड़े हुए, हिलते हुए पढ़ते रहते थे, और दूसरे हाथ से ऊपर के डंडे का हैंडल पकडे रहते थे. डिब्बे में बात करने का कोई शोर नहीं होता था.

जापान की एक और विशेष बात ये है .. जापानी भाषा के दो रूप हैं – हिरागाना और काताकाना. ये अकेली भाषा है जो तीन प्रकार से लिखी जाती है- बाएँ से दाएँ, दाएँ से बाएँ, और ऊपर से नीचे.

अपने प्रवास में मैंने वहाँ किसी भी जापानी कर्मचारी को काम के घंटों के दौरान किसी से गपशप करते नहीं देखा. यह प्रथा सरकारी और प्राइवेट दोनों प्रकार के संस्थानों में बिलकुल एक जैसी है. एक दिन ओकी सान ने समझाया कि जापानी लोग गपशप के लिए ऑफिस के बाद छोटे छोटे सस्ते रेस्तरां में जाते हैं, जिन्हें ‘इज़ाकाया बार’ कहा जाता है. जापानी सहकर्मी यहाँ घंटों बैठ कर खाते पीते रहते हैं और गपशप करते हैं. ये जगहें बिलकुल अनौपचारिक होती हैं जहाँ शराब के साथ अनेक प्रकार के ‘स्नैक्स’ मिलते हैं. शराब में मुख्यतया ‘शोचु’ और ‘साके’ होती हैं. उसी दिन शाम को वे मुझे भी एक इज़ाकाया ले गए. मैंने देखा कि भारत के ‘सींक कबाब’ की तरह लोहे की सींक में चिकिन और मछली के टुकड़ों को शिमला मिर्च, हरी प्याज़ और पनीर के साथ कच्चे कोयले की अंगीठी पर भून कर एक ‘डिश’ बनाई जा रही थी, जिसे ‘याकितोरी’ कहते हैं. उसके बराबर में एक कढ़ाही में गोभी का ‘तेनपुरा’ (पकौड़ा) बन रहा था. ओकी सान ने मेरे लिए शाकाहारी तेनपुरा, याकितोरी, साके और शोचु आर्डर किये. साके और शोचु दोनों ही चावल से बनायी जाती हैं. साके का स्वाद मिठास लिए होता है और उसकी छोटी छोटी बोतलें हलके गर्म पानी में रखी जाती हैं.

कुछ सहकर्मी मित्र ज्यादा ही जोशीले होते हैं और लम्बी गपशप के लिए ‘इज़ाकाया होप्पिंग’ करते हैं. एक इज़ाकाया में एक-दो घंटे बैठने के बाद वे लोग दूसरे इज़ाकाया में जाकर फिर एक-दो घंटे वहाँ बिताते हैं.

ओकी सान एक अच्छे गायक और फोटोग्राफर थे. एक दिन फोटोग्राफी पर बात चली तो वे तुरंत बोले कि उनके एक मित्र डॉ. ऊनो कैमरों के बड़े शौक़ीन हैं और वे मुझे उनसे मिलवायेंगे. अगले शनिवार को हम दोनों डॉ. ऊनो के घर शाम के खाने पर गए. डॉ. ऊनो कोई पचास- पचपन वर्ष के रहे होंगे. उनका बहुत बड़ा, शानदार पुराना मकान था, जिसे कभी उनके दादाजी ने बनवाया था. डॉ. ऊनो को मेरे फोटोग्राफी के शौक के बारे में जानकर बहुत प्रसन्नता हुई और वे सबसे पहले मुझे अपने स्टूडियो में ले गए, जिसे देखकर मैं चकित हो उठा. उनके पास पिछले पचास साठ सालों के डेढ़ सौ से भी ज्यादा पुराने कैमरे अलमारियों में बडे करीने से सजा कर रखे थे. उन्होंने बताया कि यह उनकी तीस सालों की मेहनत है. खाने के दौरान उन्होंने कैमरे और फोटोग्राफी के अनेक नए पहलुओं पर चर्चा की. चलते समय उन्होंने मुझे एक ‘ओलिम्पस पैन’ कैमरा भेंट किया, जो 1960 के दशक का एक प्रचलित कैमरा था, जिसमें 35 mm की फिल्म में 36 के बजाय 72 फोटो बनते थे. इसलिए उसे ‘हाफ-फ्रेम’ कैमरा भी कहा जाता था. उनका यह कैमरा अभी भी बिलकुल अच्छा काम करता था.

सबसे अधिक चौंकाने वाली बात डॉ. ऊनो ने अभी तक नहीं बताई थी. खाना समाप्त हो चुका था और सब लोग वहाँ से उठकर वापस ड्राइंग रूम में आकर बातचीत कर रहे थे. इस बीच उनकी पत्नी कॉफ़ी की ट्रे लेकर आ गयीं. डॉ. ऊनो ने कॉफ़ी का कप मेरी ओर बढाया और मुस्कुराते हुए बोले –
“अब मैं आपको थोड़ी देर के लिए अपने इस पुराने घर के इतिहास में ले चलता हूँ. आपको यह जानकर अच्छा लगेगा कि मेरे दादाजी आप के स्वतंत्रता सेनानी सुभाष चन्द्र बोस के अन्तरंग मित्र थे. वे जब भी टोक्यो आते थे, तो इसी घर में रहा करते थे. उस समय यह इतना बड़ा नहीं था, आप जिन कुर्सियों पर बैठे हैं, उन्हीं पर बैठ कर कितनी ही बार मेरे दादाजी बोस सान के साथ मीटिंग किया करते थे. मैं उस समय बहुत छोटा था, मगर मुझे उनकी कुछ हल्की यादें हैं.”
इतना कहकर वे चुप हो गए और कुछ सोचने लगे.
फिर बोले – “ आप रुकिए, मैं आपको कुछ दिखाता हूँ.”
वे उठकर ऊपर अपने कमरे की ओर चले गए. थोड़ी देर के बाद वे हाथ में एक पुराना सा लिफ़ाफा लिए हुए आये. लिफ़ाफे में से तीन चार फटे हाल तस्वीरें एक साथ निकाल कर मेरी ओर बढ़ा दीं. तस्वीरें बिलकुल पीली पड़ चुकी थीं और किनारे फट चुके थे. यह क्या ... !! सारी तस्वीरें सुभाष चन्द्र बोस के साथ उनके दादाजी की थीं. मेरे लिए बिलकुल हैरान होने वाली बात थी. एक तस्वीर में सुभाष चन्द्र बोस कुर्ता-धोती में थे ... बिना टोपी लगाये हुए. मुझे वह कमरा अचानक एक मंदिर सा लगने लगा और मैं उठकर सामने दीवार पर लगी डॉ. ऊनो के दादाजी की तस्वीर के पास गया और झुककर उन्हें नमन किया. फिर वापस मुड़कर मैंने डॉ. ऊनो और उनकी पत्नी को दोनों महानुभावों की यादें साझा करने और भोजन के लिए धन्यवाद दिया. यह मेरे लिए गर्व की बात थी कि मैं उन एतिहासिक कुर्सियों पर बैठने का अवसर पा सका. वह दिन मेरे जीवन का बेहद यादगार दिन बन गया था.

प्रशिक्षण समाप्त होने के बाद मैं भारत लौट चुका था. इन तीन महीनों में मैंने जापान को काफी नज़दीक से देखा. व्यावसायिक निपुणता के अतिरिक्त जीवन के दूसरे महत्वपूर्ण आयामों, विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय शिष्टाचार, समय की पाबन्दी, कार्य के प्रति निष्ठा, व्यवस्थित रहन-सहन और हर कार्य को पहली बार में ही सही करना, आदि में भी मेरा बहुत उत्कृष्ट प्रशिक्षण हुआ. मेरे विचार से पहली विदेश यात्रा परिवार के पहले बच्चे के समान होती है, जिसकी प्रतीक्षा में भी अनजानी शंकाओं के बावजूद एक विशेष रोमांच होता है, एक उत्साह होता है और इसके हो जाने के बाद के अनेकानेक मीठे अनुभव जीवन-भर के लिए अनमोल धरोहर बनकर मानस पटल पर छप जाते हैं.

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