soi takdeer ki malikayen - 51 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | सोई तकदीर की मलिकाएँ - 51

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 51

सोई तकदीर की मलिकाएँ

 

51

 

जयकौर लगी तो हुई थी रसोई के काम धंधे में पर उसका पूरा ध्यान अब भी बाहर के दरवाजे से दिखाई देती खडौंजा सङक पर टिका था । रह रह कर वह उधर झांक लेती । बीतते वक्त के साथ साथ उसकी झुंझलाहट बढ रही थी । छ बजने को हो आए । सूरज छिपने को है और इस भले बंदे का अभी तक कोई पता ठिकाना नहीं है । सुबह का निकला हुआ है । पीछे की कोई फिक्र ही नहीं है कि कोई पलकें बिछाए बैठा इंतजार कर रहा है । ऐसा क्या काम है कि हाथ से छूटने में ही नहीं आ रहा । कल तो जैसे होना ही नहीं है । आज ही फसल बो कर , पानी लगा कर और काट कर ही घर मुङेगा ।
उसने चूल्हे पर चढाई हांडी को देखा । पानी उबल रहा था । उस खौलते पानी में दाल डाली । नमक मिर्च हल्दी डाल कर उसे ढक दिया । परात में आटा निकाला और लोटे में पानी लेकर आटा गूथने बैठी ही थी कि दरवाजे पर सुभाष और निक्का प्रकट हुए । उन्हें देखते ही जयकौर का दिल उछल कर बाहर आने को हुआ । मन किया , इसी समय जा कर सुभाष से लिपट जाय । झिंझोङ कर पूछे कि इतनी देर तक खेत में कर क्या रहा था । उसके गाल चूम ले । चूम क्या ले काट कर चबा ही जाय ।
पर अगर सरदार या बसंत कौर ऊपर से आ गये तो वह तो शरम से वहीं मर जाएगी । उसने जबरदस्ती अपने आप को रोका । दो मिनट तक नजर नीची किये आटा सानती रही फिर जब सांस लय पर आ गई तो हाथ धो कर मटके से पानी लिया । दो गिलास उठाए और लाकर पहले निक्के को गुङ और पानी दिया । फिर सुभाष को ।
बङी देर लगा दी वहाँ खेत में । देखो , संझा बत्ती का टाइम हो रहा है ।
जवाब सुभाष की जगह निक्के ने दिया – देर कहाँ बीबी जी । हमें तो अक्सर इससे भी देर हो जाती है और काम खत्म होने का नाम ही नहीं लेता । आठ लङके मिट्टी के साथ मिट्टी हुए रहते हैं तब जाकर दानों का मुँह देखने को मिलता है तो काम तो करना ही होगा ।
सुभाष ने पानी पीकर गिलास चारपाई के नीचे सरका दिया । जयकौर ने लाड से सुभाष को देखा – तुम लोग हाथ मुँह धो लो । मैं रोटियां सेक रही हूँ । गरम गरम खा लेना ।
निक्के ने हाथ जोङ दिए – सरदारनी , मैं तो अब चलूंगा । घर पर बेबे मेरा रास्ता देख रही होगी ।
ऐसे कैसे चला जाएगा । रोटी का टाइम हो रहा है । रोटी खाए बिना मैंने तुझे जाने नहीं देना – सीढियां उतरती हुई बसंत कौर ने निक्के को बरजा ।
आपका हुकम सिर मत्थे सरदारनी , मत्था टेकता हूँ ।
जीता रह । जवानी मान और घर पर सब ठीक है ।
आपकी मेहर है सरदारनी । परमात्मा आपको सही सलामत रखे । वाहे गुरु मेहर करे । हम जैसे लोगों को भर पेट रोटी आपके सदके मिलती रहे – निक्के ने किसी अदृश्य शक्ति को हाथ जोङ दिये । इसके साथ ही उठा और नलके पर जा कर हाथ धो आया पर चारपाई पर बैठने की बजाय नौहरे की ओर चला गया ।
वहाँ गेजा गाय दूह रहा था । एक बाल्टी में दूध निकाला हुआ रखा था । उसने दूध भरी बाल्टी उठाई और चौके में ले आया और बाल्टी एक कोने में टिका दी । तभी केसर तसले में सूखे उपले लेकर आई । उपले उसने चूल्हे के पास टिका दिए । इसके बाद नलके से पानी चला कर बाल्टी भरने लगी ।
निक्का दौङ कर नलके के पास जा पहुँचा – आप रहने दो बङी बी । बताओ क्या करना है । मैं खाली बैठा हूँ । मैं कर देता हूँ ।
कुछ नहीं , बस यहाँ आँगन में थोङा पानी छिङकना था । थोङी धरती की गरमी निकल जाएगी ।
कोई ना जी , बस दो मिनट में छिङका जाता है । आप बैठो ।
केसर ने आधी भरी बाल्टी वहीं रहने दी और बरांडे में से पीढा खींच कर आंगन में बिछा लिया । सूत और अटेरन लेकर सूत अटेरने लगी ।
जब तक निक्का पानी छिङक कर खाली हुआ । बसंत कौर ने रोटी परोस दी थी । जयकौर ने रोटी निक्के को पकङाई । तब तक सुभाष ने चारपाई को खींच कर चौंके के पास बिछा दिया था । निक्का चारपाई पर बैठ कर रोटी खाने लगा । बसंत कौर ने उसकी थाली में गुङ का बङा सा डला भी रख दिया और आम के अचार की फांक भी ।
भाई लङके क्या नाम है तेरा , अब तू भी हाथ मुँह धोले और आ कर रोटी खा ले ।
जी , आता हूँ – सुभाष ने भी रगङ रगङ कर हाथ मुँह धोया और पीढा लेकर चौके के पास चला आया । वह रोटी खाने लगा तो जयकौर का मन किया कि घी की मटकी में से कङछी भर कर घी उसकी दाल में डाल दे पर मन का क्या है । कुछ भी सोच सकता है । कैसे डाल सकती है वह घी । आखिर सुभाष इस घर का कमेरा ही हुआ न । उसे इस घर में रहने को ठिकाना मिल गया और दो वक्त रोटी इज्जत से मिल रही है , फिलहाल के लिए इतना ही बहुत है । बसंत कौर ने घी का चम्मच भर कर सुभाष की ओर बढाया – ले दाल में घी डलवा ले ।
जयकौर ने चौंक कर बसंत कौर को देखा । यह औरत मन पढना भी जानती है क्या । जो बात उसने मन में सोची थी ये कैसे जान गई ।
सुभाष ने हाथ जोङ दिए – नहीं सरदारनी घी की कोई जरूरत नहीं है । दाल वैसे ही बहुत स्वाद बनी है । मैंने दो फुलके आज फालतू खा जाने हैं ।
जितने मर्जी खा । रोटी की कोई कमी नहीं है – उसने धक्के से एक चम्मच घी दाल में डाल ही दिया था । जयकौर का मन श्रद्धा से भर गया । यह औरत सच्चे रब का रूप है । एकदम दरवेश । सबका भला सोचने वाली । उसे भोला सिंह पर बङा गुस्सा आया । यह सरदार इस इतनी भली औरत के साथ इतना बङा जुल्म कैसे कर गया । दो दो सौकने लाकर इसके सिर पर बिठा दी । और सदके इस औरत के सबर सिदक के कि कोई माथे पर शिकन नहीं । कोई शिकायत नहीं किसी से । न भोला सिंह से , न हम दोनों से । बरगद के दरख्त की तरह सबको अपनी छांव में लिए बैठी है । हर बेल को अपनी मजबूत बाहों का सहारा दिए हुए निरंतर पाल रही है । सोचते सोचते उसके मन में बसंत कौर के लिए दया ममता , करूणा के मिले जुले भाव पैदा हुए ।
लाओ बहनजी , अब मैं रोटी सेकती हूँ । आप भी गरम गरम खा लो ।
रोटियां तो सारी बन गई लगती हैं । ले केसरो , तू भी खा ले और गेजे को भी रेटी खिला दो ।
जयकौर ने दो थालियों में रोटी परोसी और एक थाली केसर और दूसरी गेजे को सरका दी । बसंत कौर ने तीन थालियां लगाई । एक जयकौर को थमा कर वह दो थालियां लेकर ऊपर चली । जयकौर ने पुकार कर कहा – आप रोटी खा कर आराम करो । मैं चौंका और दूध संभाल कर दही जमा दूंगी । बसंत कौर ने मुङ कर जयकौर को देखा और मुस्करा कर उसे स्वीकृति में सिर हिला दिया । जयकौर निहाल हो गई ।
बाकी फिर ...