Khaali Haath – Part – 4 in Hindi Fiction Stories by Ratna Pandey books and stories PDF | खाली हाथ - भाग 4

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खाली हाथ - भाग 4

एक दिन सूरज और नताशा स्कूटर से घूमते हुए काफ़ी दूर निकल आए, जहाँ वह कभी भी नहीं जाते थे। उस रास्ते पर एक वृद्धाश्रम था जिस पर उसका नाम लिखा था 'आसरा वृद्धाश्रम'। सूरज के पांव अपने आप ही वहाँ पर ठहर गए। वह ध्यान से उसी तरफ़ देख रहे थे।

उन्होंने कहा, "नताशा चलो ना अंदर चल कर देखते हैं। देखें तो यहाँ क्या व्यवस्था रहती है?"

नताशा ने कहा, "यह आप क्या सोच रहे हो? क्या अब हम वृद्धाश्रम में रहेंगे?"

"चल कर देखो तो सही।"

सूरज की बात मानकर नताशा अंदर वृद्धाश्रम में आ गई। वहाँ उन्होंने देखा एकदम साफ़ सफ़ाई थी और कहीं से हंसने और बातें करने की आवाजें आ रही थी। दोनों रिसेप्शन पर पहुँचे, वहाँ एक लड़की बैठी थी, जिसका नाम था दिव्या।

सूरज और नताशा को देखते ही दिव्या खड़ी हो गई और कहा, "आइये अंकल आंटी।"

कुर्सी की ओर इशारा करते हुए उसने कहा, "बैठिये।"

कुर्सी पर बैठते हुए सूरज ने पूछा, "इतना हंसने और बातें करने की आवाज़..."

"अरे अंकल हमारे यहाँ का माहौल बहुत ही खुशियों से भरा होता है। सब अपने दर्द को भूलने के लिए ही तो यहाँ आते हैं। घंटों बैठकर बातें करते रहते हैं। सुबह प्राणायाम करते हैं फिर सब साथ में नाश्ता करते हैं। कुछ देर अपने कमरे में जाकर नित्य के सारे काम निपटाते हैं। दोपहर के खाने के बाद सब आराम करते हैं। शाम को साथ में घूमने जाते हैं। एक दूसरे का ख़्याल भी रखते हैं।"

नताशा ने पूछा, "इन्हें यहाँ रहने का दुख नहीं होता।"

"नहीं आंटी दुख से भाग कर ही तो ये यहाँ आते हैं। अपना अकेलापन दूर करने, अपना तनाव दूर करने। कुछ लोग परेशान होकर यहाँ आए हैं। लेकिन कुछ ख़ुशी से आए हैं।"

"...ख़ुशी से?" नताशा ने प्रश्न किया।

"हाँ आंटी उनके बच्चे विदेशों में जाकर बस गए हैं। इन्हें अपने साथ ले जाना चाहते हैं पर ये लोग जाना नहीं चाहते। बच्चे उन्हें अकेले रहने देना नहीं चाहते। इसलिए यहाँ आ गए हैं। उनके बच्चे हमेशा यहाँ पैसे भेजते रहते हैं सिर्फ़ अपने माता-पिता के लिये ही नहीं अपितु जो सक्षम हैं वे लोग ज़्यादा धन राशि देकर हमारे वृद्धाश्रम की सहायता भी करते हैं। लेकिन हाँ कुछ ऐसे भी हैं जो सताए हुए हैं, कुछ ऐसे भी हैं जो भगाए गए हैं। अपना मकान, पुत्र मोह में उनके नाम करने वाले बदकिस्मत भी यहाँ हैं," कहते हुए दिव्या थोड़ी भावुक हो गई।

अपने आप को संभालते हुए उसने कहा, "बोलिये अंकल मैं आप लोगों के लिए क्या कर सकती हूँ।"

"नहीं-नहीं बेटा हम तो इधर से गुजर रहे थे तो बस यूं ही देखने आ गए। ठीक है अब हम चलते हैं," नताशा ने कहा।

"ठीक है आंटी, यदि भविष्य में कभी भी हमारे लायक कोई काम हो तो ज़रूर कहिएगा।"

"ठीक है बेटा, तुमसे मिलकर बहुत अच्छा लगा।"

बाहर निकलते से सूरज ने कहा, "नताशा एक रूम किचन के छोटे से घर में अकेले रहने से अच्छा है, यहाँ हम अपनी उम्र के लोगों के साथ रहें, क्या कहती हो तुम?"

"मुझे भी वहाँ काफ़ी सकारात्मकता लग रही थी। सब कुछ अच्छा लग रहा था। मुझे लगता है तुम सही सोच रहे हो।"

 

रत्ना पांडे, वडोदरा (गुजरात)
स्वरचित और मौलिक
क्रमशः