महामानव का उदय कैसे होता है? पेचीदा घटनाओं का लंबा सिलसिला हमेशा किसी न किसी विशिष्ट जन-समुदाय को जन्म देता है। जन्म के बाद; इस विशिष्ट जन समुदाय का विकास होता है, तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों के प्रभाव के कारण। महामानव के उदय के ये ही दो बुनियादी कारण हैं—
1. विशिष्ट जन समुदाय को जन्म देनेवाला पेचीदा घटनाओं का लंबा सिलसिला और
2. तत्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का प्रभाव।
“महामानव किसी समाज का नव-निर्माण करे, इससे पहले स्वयं समाज को ऐसी परिस्थितियाँ बनानी चाहिए, जिनसे महामानव जन्म ले।” ये शब्द हैं हर्बर्ट स्पेंसर के (‘द स्टडी ऑफ सोशियोलॉजी’)।
हर्बर्ट स्पेंसर का मानना है कि संसार के इतिहास को स्थायी रूप से प्रभावित करने वाले जो विराट परिवर्तन हुए हैं, वे सब अचानक नहीं हुए हैं। उनके बीज भूतकाल के इतिहास में पड़ चुके होते हैं।
विशिष्ट व्यक्ति का उदय एक निश्चित समय में, किसी तूफानी दौर से गुजर रहे सुनिश्चित प्रदेश में ही क्यों होता है ? हमेशा इसके कुछ स्पष्ट कारण होते हैं, जो इतिहास में ढूँढ़ने पर सहज ही मिल जाते हैं। इन कारणों को समझ लेना ही इतिहास को समझ लेने के बराबर है। इस पड़ाव तक पहुँचना ही इतिहास की समझ तक पहुँचना है।
इतिहास के उतार-चढ़ाव में राजकीय विचारधारा अथवा विशिष्ट व्यक्ति का जितना महत्त्व है या शायद इन दोनों से भी ज्यादा सामाजिक, धार्मिक और पर्यावरणीय स्थितियों का महत्त्व होता है।
शिवाजी महाराज के संदर्भ में भी इन कारणों एवं स्थितियों की सच्चाई की जाँच करने में कोई हर्ज नहीं है। कार्लाइल ने ‘अधिनायक एवं उसकी पूजा’ के संदर्भ में लिखा है—
‘स्वयं के पराक्रम से नया राज्य स्थापित करनेवाला संसार के सबसे बड़े व्यक्तियोंं में से एक होता है। ऐसे व्यक्ति का दायित्व होता है कि वह सबको किसी आदर्श की ओर ले जाए। ऐसे व्यक्ति का अनुसरण जो करते हैं, उन्हें उसके आदेश का पालन करना होता है। उस व्यक्ति से प्रभावित लोग उस पर अपने प्राण तक न्योछावर कर देने को तैयार रहते हैं। ऐसा वे किसी दबाव में आकर नहीं, बल्कि स्वेच्छा से, अपनी स्वयंभू निष्ठा से ही करते हैं। ऐसा वे इसलिए करते हैं कि इसी में उनकी भलाई होती है और इस भलाई का एहसास भी उन्हें हो चुका होता है।’
अब हम डॉरिस नामक समाजशास्त्री क्या कहते हैं, यह देखेंगे—
“जो व्यक्ति महामानव कहे जाते हैं, वे अपने कर्तव्य पालन की शुरुआत अपनी वंश परंपरा से प्राप्त क्षमता के आधार पर करते हैं। यह क्षमता वे अपने जन्म से ही संगृहीत कर लेते हैं। इस जन्मजात क्षमता को ही वे अपने गुणों के रूप में विकसित करते हैं। इसमें उन्हें लगभग बीस साल लग जाते हैं। फिर वे उसी अर्जित क्षमता की शक्ति से समस्याओं का सामना करते हैं और साहस के साथ सीना तान कर खड़े रहते हैं।
“यह अर्जित क्षमता उनके बौद्धिक व्यक्तित्व का विकास करती है। यह उनकी भावनाओं से भी बँधी रहती है। स्वयं के कार्य क्षेत्र के एवं समाज के अनुभवों एवं प्रयोगों से वे जटिल समस्याओं को भी सरलता से हल कर लेना सीखते हैं। जिनके लिए कोई भी समस्या कठिन समस्या नहीं होती, उनके बौद्धिक व्यक्तित्व का विश्लेषण इसी तरह किया जा सकता है।
“शिवाजी महाराज के व्यक्तित्व का विश्लेषण भी इसी आधार पर किया जा सकता है। बादशाह औरंगजेब ने अपनी प्रजा पर जो धार्मिक अत्याचार किए, उन अत्याचारों से न केवल शिवाजी, बल्कि उनकी संपूर्ण पीढ़ी के सामने एक कठिन समस्या उपस्थित हुई थी। शिवाजी महाराज अपने अदम्य आत्मविश्वास के कारण किसी भी समस्या को कठिन महसूस नहीं करते थे। तभी तो वे कठिन से कठिन समस्या को भी देखते-ही-देखते हल कर लेते थे।
“इतिहास की अनेक शताब्दियों में देखा गया है कि संसार में किसी जगह, किसी समय, किसी एक ही स्वयंभू नेता का उदय होता है। शिवाजी इसी श्रेणी के स्वयंभू नेता थे। भारत में मुसलमानों की सत्ता की स्थापना के बाद शिवाजी जैसा दूसरा कोई व्यक्ति नहीं हुआ। शिवाजी के रूप में केवल शिवाजी ही प्रकट हो सकते थे। इसीलिए सर जदुनाथ सरकार जैसे तटस्थ व गंभीर इतिहासकार को भी शिवाजी की अलौकिक बुद्धि का लोहा मानना पड़ा। जैसा कि सर जदुनाथ सरकार ने निष्कर्ष निकाला; शिवाजी एक अद्वितीय आविष्कारक थे। उन्हें अपनी कल्पना और शक्ति पर एक जैसा विश्वास था। मध्ययुगीन भारत में उन्होंने अपना हर रास्ता स्वयं खोजा; हर नई डगर का निर्माण स्वयं किया। उनके सामने राह दिखाने वाला कोई आदर्श पुरुष था ही नहीं। कह सकते हैं किि शिवाजी स्वयं ही अपने आदर्श पुरुष थे!”
महामानव शिवाजी महाराज एवं उनकी बुद्धिमत्ता के संदर्भ में कॉक्स नामक विद्वान् ने जो निरीक्षण किया था, वह इस प्रकार है—
‘जिन व्यक्तियों को उच्च बुद्धि मिली होती है, उनका प्रभाव किसी विशेष क्षेत्र में अथवा एक साथ अनेक क्षेत्रों में होता है। औसत बुद्धि के व्यापारियों की बनिस्बत उच्च बुद्धि के महानुभाव अधिक प्रभावशाली होते हैं।’
उच्च बुद्धि के व्यक्ति ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में विशेष कार्य कर दिखाते हैं। अन्य क्षेत्रों में भी उनकी क्षमता बहुत ऊँची होती है, जैसे— लियोनार्डो द विंसी, मायफेलेंजेलो, डेकार्ट, बेंजामिन फ्रैंकलिन, गेटे इत्यादि। शिवाजी महाराज इस कसौटी पर खरे उतरते हैं। उनकी क्षमता एक साथ कितने क्षेत्रों में कार्य करती थी! महाराज स्वयं शूरवीर योद्धा थे। उत्कृष्ट सेनापति और सक्षम प्रशासक थे। छापामार युद्ध के तो महारथी थे। आज की आधुनिक दुनिया भी उन्हें छापामार युद्ध के महान् विशेषज्ञ के रूप में स्वीकार करती है। अभेद्य किलों का निर्माण करने में उनका कोई सानी नहीं था। समुद्र का लेशमात्र भी ज्ञान न होने के बावजूद उन्होंने अपनी सशक्त नौसेना स्थापित की। उन्हें भूगर्भ का भी गहन ज्ञान था। पर्यावरण का महत्त्व वे खूब समझते थे। सही और गलत का उनका व्यावहारिक ज्ञान आज भी सबको प्रेरणास्पद लगता है। अधर्म और अंधविश्वास के नाश के लिए उन्होंने बहुत काम किया। यूँ समाज सुधारक के रूप में भी कोई उनकी बराबरी तक नहीं पहुँच सकता।
अनेक शताब्दियों से भारतीय समाज कछुए की तरह अपने हाथ-पैर एवं सिर कवच के नीचे छिपाकर जी रहा था। शिवाजी ने उसे सिर ऊँचा करके जीना सिखाया और हाथ-पैरों को स्वतंत्र गति दी, ताकि बदली हुई परिस्थितियों में सब निर्भयता से जीना
सीख सकें।
अनेक विशिष्ट व्यक्तियों ने संसार के इतिहास में अपना नाम सुनिश्चित करने के लिए आश्चर्यचकित कर देनेवाले बुद्धि वैभव के कार्य किए हैं एवं व्यावहारिक चतुराई से कठिनतम व्यक्तियों से भी अपनी बात मनवाई है। इस कसौटी पर भी शिवाजी सही उतरते हैं। अपनी बात मनवा लेने और शातिर-से-शातिर शत्रु को भी अपने वाग्जाल में उलझा देने की उनकी कला के अनेक प्रसंग मराठा इतिहास में गौरव के साथ अंकित हैं।
स्कॉटिश इतिहासकार थॉमस कार्लाइल (1795-1899) ने कहा है, ‘संसार का इतिहास महान् व्यक्तियों की चरित्र कथा मात्र है।’
महाराष्ट्र का इतिहास शिवाजी महाराज एवं उनके उत्तराधिकारियों के इतिहास के सिवा और क्या है!
शिवाजी की उपलब्धियाँ क्या हैं, यह सबको ज्ञात है। व्यवहार कुशलता उनके व्यक्तित्व की बहुत बड़ी खूबी के रूप में उभरती है। कब, कहाँ, कैसी बातचीत किसके साथ की जाए, इसका अद्वितीय ज्ञान उन्हें था। उन्होंने अपना राज्य कभी अनापशनाप नहीं बढ़ाया। जितना सँभाल सकते थे, उतना ही बढ़ाया। जितने की रक्षा कर सकते थे, उतने ही क्षेत्र तक वे सीमित रहे। फिर भी, उनका स्वराज्य कोई कम विस्तृत नहीं था। यह स्वराज्य सार्लरी से जिंजी तक अत्यंत सँकरे भागों में अलग-अलग फैला हुआ था।
संदर्भ—
1. श्री शिव छत्रपति संकल्पित शिव चरीत्राची प्रस्तावना : आराखडे व साधने / त्र्यंबक शंकर शेजवलकर