Debtor in Hindi Short Stories by Sharovan books and stories PDF | कर्ज़दार

Featured Books
Categories
Share

कर्ज़दार

कर्ज़दार

***

‘शायद तुम भूल गये हो कि, मंडी में बिका हुआ इंसान किसी की भी बोली लगाने के लायक नहीं होता है।’

***

‘राही

ही।’

‘हूं?’

‘एक बात कहूं।’

‘क्या?’

‘ये, हर समय उदास से क्यों रहा करते हो तुम?’

‘ताकि दूसरे की खुशियों का एहसास कर सकूं।’

‘और तुम्हारी खुद की खुशियां और इच्छायें?’

‘भूल चुका हूं, मैं उन्हें।’

‘जीवन मुस्कराकर, जीने में ही गौरव होता है।’

‘लेकिन, चमन में खिलने वाले हर फूल में खुशबू भी तो नहीं होती है।’

‘फिर भी भौंरे उनके पास आकर मंडलाया करते हैं?’

‘मगर बाद में निराश होकर लौट भी तो जाते हैं।’

‘नये सुगन्ध भरे फूलों की तलाश में।’

‘कहना क्या चाहते हो तुम?’

‘अपना जीवन-जीने के ढंग को बदल सकते हो तुम?’

‘कैसे?’

‘समय के अनुकूल बन कर मुस्कराना सीखो।’

‘शायद तुम भूल गये हो कि, मंडी में बिका हुआ इंसान किसी की भी बोली लगाने के लायक नहीं होता है।’

‘?’

राही के इस प्रकार के उत्तर को सुन कर उसके अन्तरंग मित्र शर्मा का चेहरा एक बार सुन्न सा पड़ गया, परन्तु फिर भी उसने पहले अपनत्व भरे भाव में राही को देखा, फिर धोड़ा झुंझलाता हुआ वह उससे बोला कि,

‘अजीब आदमी है तू? मैं कोई बहस नहीं कर रहा हूं तुझसे। आखिर, तू एक अच्छा-खासा भला युवक है। अच्छी ढंग की नौकरी भी कर रहा है। ऊपर वाले की देन है तुझ पर, सो किताबों में भी लिख कर अतिरिक्त नाम और पैसा, दोनों ही कमा लेता है। पढ़ा लिखा और समझदार भी है तू , फिर भी ?’

‘फिर भी . . .क्या ?’

‘कोई अच्छी सी लड़की देख कर अपना घर क्यों नहीं बसा लेता है ?’

‘इसलिये कि मुझको दूसरों के घरों की छतें डालनी हैं। उन्हें आबाद करना हैं।’

‘कौन हैं वे लोग ?’

‘मुझसे छोटे मेरे भाई और बहनें।’

‘लेकिन, फिर भी क्या मैं पूछ सकता हूं कि तुम्हारी ये गुमशुदा और खामोश जिन्दगी की तन्हाईंयों का असली राज क्या है ?’

‘मैं कर्ज़दार हूं।’

‘कर्ज़दार ! मैं कुछ समझा नहीं ?’

‘समझना चाहते हो? तो सुनो; मेरे मां-बाप कहा करते थे कि, उन्होंने मेरे लिये बहुत कुछ किया है। मुझे पाल-पोस कर एक इंसान बनाया है। उन्होंने मुझे पढ़ाया और लिखाया और मुझे अपने पैरों पर इस प्रकार खड़ा किया है कि आज मैं चार रोटी कमा कर उनमें से दो दूसरों में बांट सकता हूं। शायद हरेक बच्चा इस तरह से अपने माता-पिता का श्रृणी हुआ करता है। मेरी खुद्दारी मुझे इस कर्ज़ के बोझ से खुली हवा में सांस लेकर जीने नहीं देती है। मैं अपने इस कर्ज़ से मुक्ति पाना चाहता हूं। अपने से छोटे भाई- बहनों को पाल-पोसकर, उन्हें पढ़ा-लिखा कर इस दुनियां में जीने लायक एक अच्छा इंसान बना देना चाहता हूं। अपने हर रोज़ बुढ़ापे की दहलीज़ पर हर एक कदम बढ़ाते हुये, बूढ़े मां-बाप की लाठी बन कर उनकी सेवा करनी है, ताकि उन सबके श्रृण से छुटकारा पा सकूं; क्योंकि मुझे किसी का भी तकाज़ा सुनने और सहन करने की आदत नहीं है।’

‘!! ’

अपने मित्र राही की इस बात को शर्मा सुन कर ही रह गया। आगे उससे एक शब्द भी कहने का साहस नहीं हो सका।वह चुपचाप उठा, और अपनी मोटर साईकिल चालू करके चलता बना। मगर राह चलते हुये फिर भी उसके मस्तिष्क में राही के शब्द किसी हथौड़े के समान लगातार प्रहार करते जा रहे थे- कर्ज़दार। काश: हर मां-बाप अपनी संतानों से इस प्रकार का बुनियादी तकाज़ा करना भूल जायें- भूल जायें तो कितना अच्छा हो। कितना बेहतर।

समाप्त।