”मूंग की खिचड़ी”
”शुभा, सो गई क्या? लो खाना खालो”
”खाना..?” पुलकित सी वह फटाफट रजाई फेंक, उठ खड़ी हुई, ”हाँ बहुत भूख भी लग रही है” बेचैनी से प्लेट पकड़ती हुई वह बोली, लेकिन यह क्या, ”फिर मूंग की खिचड़ी...मुझे तो आज खाना खाना है” वह बच्चों की तरह तुनकते हुए बोली, ”लक्ष्मी को बुलाओ जरा”
”लक्ष्मीईईई....” उसने जोर से आवाज दी। लक्ष्मी दौड़ती हुई आ गई, ”जी भाभीजी”
”तूने फिर मेरे लिये मूंग की खिचड़ी बनाई?”
”भैया ने कहा” उसके गुस्से को नजर अंदाज करती लक्ष्मी, विनय की तरफ देख कुटिलता से मुस्कुराई।
”क्यों? आज तो छै दिन हो गए...मेरी तबीयत तो अब बिल्कुल ठीक है”
”अभी तक तुम्हें कमजोरी की वजह से चक्कर आ रहे है...कुछ दिन खिचड़ी खाना पड़ेगी” उसके तुनकने का विनय पर लेशमात्र भी प्रभाव नहीं पड़ा. वे गंभीर मुखमुद्रा में थे.
”मुझे नहीं खानी है खिचड़ी....मुझे खाना खाना है”
”खिचड़ी भी खाना ही होती है”
”ऊब गई मैं खिचड़ी खाते खाते....खिचड़ी ही खिलानी थी तो कम से कम पुलाव जैसा बना देती है लक्ष्मी” वह लक्ष्मी की तरफ देखकर बोली। सुनकर लक्ष्मी पल्लू में मुस्कान दबाये वापस पलट गई।
”और चाहिए होगा तो आवाज दे देना” कहते हुए विनय भी कमरे से बाहर निकल गए।
”और चाहिए...माई फुट...इसी को देखकर उल्टी आ रही है..” वह गुस्से में बड़बड़ाई।
तभी फोन की घंटी बज उठी। फोन समीर का था। एक बार तो दिल किया फोन पर ही समीर का गला दबा दे। उस दिन बहला फुसला कर बुलाया था, एक चाईनीज रेस्तरां में, ‘आजा बढिया ट्रीट दुंगा...मेरा प्रमोशन हुआ है‘ समीर उसके बचपन का स्कूल, काॅलेज का दोस्त था।
वह भी चली गई। इतना तीखा चटपटा, खाते समय तो बहुत मजा़ आया पर दूसरे दिन पेट खराब हो गया। विनय तब आॅफिस में थे। पहले तो सोचा कि विनय को बताये ही ना। इसलिए उसने जो दवाईयां घर पर उपलब्ध थी, खा ली।
विनय को बताने का मतलब, मूंग की खिचड़ी...वो भी न जाने कितने दिनों तक। उन्हें सेफ साइड में रहने की आदत जो है. फिर उसके कहीं आने जाने पर, कमजोरी का हवाला देकर, पूर्ण प्रतिबंध...इसीलिए वह अपनी छोटी मोटी बीमारियां विनय से अक्सर छिपा देती है।
”हैलो....” फोन उठाते हुए वह बोली.
”कैसी हो..?” समीर का स्वर कुछ उदास व दर्दीला था।
”कैसी हो मतलब...6 दिन में तुमने एक भी फोन नहीं किया। पता भी है, उस दिन से तबीयत कितनी खराब है...तब से मूंग की खिचड़ी खा रही हूँ..”वह सारा गुस्सा समीर पर निकालते हुए बोली।
”ओह! तो क्या तुम भी..?” उसकी आवाज में कुछ राहत उभर आई.
”मैं भी मतलब..?”
”क्योंकि मैं भी उस दिन से खिचड़ी खा रहा हूँ....सौम्या कुछ और खाने को ही नहीं दे रही..”
शुभा ठहाका मारकर हँस पड़ी, ”बड़ा जबरदस्त अटैक था उस चाईनीज फूड का”
”तुम हँस रही हो...पता भी है, भूख के मारे पेट में चूहे कूद रहे हैं...”
”मेरे भी...” शुभा खिचड़ी को घूरते हुए बोली।
”यार किनके पल्ले पड़ गये हैं....माँ बाप ने कहाँ फंसा दिया...तुझ से कहा था उस समय...भाग चल मेरे साथ...”
”ऐसे कैसे भाग जाती...नौकरी तो थी नहीं तुम्हारी...हम दोनों के मातापिता जातपांत में उलझे थे, जिनको गलती से पसंद आ गई थी वे जल्दी शादी के लिए पीछे पड़े थे...मेरे माता पिता तुम्हारी डर से आनन फानन में मेरी शादी निबटा देना चाहते थे...बताओ कैसे भागती...दोनो सड़क पर भीख मांगते क्या?”
बचपन के दोस्त शुभा व समीर एक ही काॅलोनी में रहते थे। दिल दिमाग, विचार, स्वभाव सब में समान थे। दोनों की बहुत पटती थी। एक दूसरे के घर में आना जाना था। दोनों के घर वाले उन्हें पसंद करते थे। लेकिन जब शुभा ने माँ से कहा कि वह समीर से शादी करना चाहती है, 2 साल रूक जाओ। तब तक समीर की नौकरी लग जायेगी तो घर में जैसे प्रलय आ गई।
समीर तो अपने घर में कुछ बोल भी न पाया था कि यह खबर उसके घर के पिछले दरवाजे से प्रवेश कर गई और दोनों के पिता हिटलर बन गए। लेकिन यह सब इतनी शांति से चुपचाप हुआ कि दोनो कुछ न बोल पाए और शुभा की शादी विनय से हो गई।
दोनों परिवारों ने उन्हें ऐसे जताया जैसे कुछ हुआ ही न हो। 3 साल बाद समीर का विवाह भी हो गया और सभी परिवारों ने उनकी बचपन की दोस्ती को इज्जत के साथ स्वीकार कर लिया गया।
”मेरे कहने से उस समय भाग जाती तो भीख मांग कर ही गुज़ारा कर लेते थोड़े दिन, पर यह आये दिन की खिचड़ी तो न खानी पड़ती” समीर भी शायद अपने घर में उस समय खिचड़ी को ही घूर रहा था।
”पता है, मुझे तो कभी कभी लगता है कि विनय मुझ पर अपनी खुंदक निकालने का मौका ढूंढते रहते हैं...जरा सा बीमार हुई नहीं कि खिचड़ी...” शुभा ने अपनी भड़ास निकाली।
”हाँ सही कह रही है....सौम्या का भी मुझे यही लगता है” समीर ने शुभा की हाँ में हाँ मिलाई। ”हम दोनों कितने अच्छे हैं ना...जरा भी डोमिनेट नहीं करते एक दूसरे को”
”मैं तुम्हें कभी खिचड़ी खाने के लिये जबरदस्ती न करती..” शुभा ने लंबी आह भरी।
”मैं भी...” समीर ने उसकी बात का अनुमोदन किया, ”अच्छा, गुड नाइट...कोशिश करता हूँ इस नामुराद खिचड़ी को खाने की...”
बात चाहे खिचड़ी की हो रही थी पर शुभा व समीर का दिल हर वक्त एक दूसरे में ही अटका रहता था। शादी तो मातापिता ने कर दी थी। अच्छे पतिपत्नी की तरह निभा भी रहे थे। पर हर समय उनके दिलो दिमाग में एक दूसरे को न पाने की कसक बनी रहती। हालांकि दोनों का बचपन का दोस्ताना भरा प्यार बिल्कुल सात्विक था। दिल में कोई विकार न था पर एक दूसरे पर भरोषा ऐसा कि कोई भी बात अपने लाइफ पार्टनर को बताने से पहले एक दूसरे को बताते थे।
शुभा जितना विश्वास समीर पर करती उतना किसी पर नहीं। यही हाल समीर का था। दिल तो दोनों का करता कि उनकी बातें कभी खत्म ही न हो पर मजबूरी थी. खूबसूरत, गुण संपन्न शुभा हर समय समीर के दिमाग में छाई रहती। वही उसकी पहली पसंद थी. वह हर वक्त सौम्या में शुभा की झलक ढंूढता रहता।
शुभा की शादी को 20 साल से अधिक हो गए थे उसके दोनों बच्चे स्कूल की पढ़ाई पूरी करके बाहर पढ़ने चले गए थे. पर समय ने, शादी ने, उम्र ने उन दोनों के रिश्ते में रंचमात्र भी दरार नहीं डाली। लगता था जैसे विधि ने उन्हें एक दूसरे का पूरक तो बनाया पर जोड़ी बनाना भूल गया। प्रेम, स्नेह, ममता, विश्वास की जो मिली जुली भावनायें उनके दिलों में एक दूसरे के लिए उभरती वह अपने लाइफ पार्टनर के लिए कभी न उभरती।
गमगीन सी शुभा खिचड़ी खाने की कोशिश करने लगी। तभी विनय मोबाइल उठाये आ गए, ”लो बात करो...कार्तिक का फोन है..”
”हैलो..” खिचड़ी खाते हुए वह बेटे से बात करने के लिये जरा भी उत्सुक नहीं थी।
”हैलो माॅम...कैसी हैं आप...पापा कह रहे थे कि अभी भी बहुत कमजो़री है...अपना ध्यान रखिए...अभी कुछ दिन खिचड़ी ही खाइए” कार्तिक कुछ दबे स्वर में बोला। शुभा को लगा, कार्तिक हँसी दबाकर बोल रहा है।
”तेरा गला मुझे खराब लग रहा है...कोल्ड ड्रिंक पीना बंद क्यों नहीं करता कुछ दिन” शुभा ने नहले पर दहला मारा।
”मेरा गला बिल्कुल ठीक है माॅम..” वह खंखारता हुवा बोला पर आप अपना पूरा ध्यान रखिए और अभी कुछ दिन खिचड़ी ही खाईए”
”उफ!” शुभा फोन पटकते पटकते रह गई। क्योंकि कार्तिक तब तक फोन बंद कर चुका था। कल के बच्चे भी फ्री की सलाह दे देते हैं। वह 2, 4 चम्मच खिचड़ी निगल कर, प्लेट किचन में रखने के लिये उठी, तभी विनय आ गए।
”कहाँ जा रही हो...?”
”जहन्नुम ” वह मन ही मन भुनभुनाई., ”किचन में प्लेट रखने जा रही हूँ”
”अरे पर तुमने तो कुछ खाया ही नहीं” उसे लगा विनय मुस्कुरा रहे हैं पर वास्तव में ऐसा नहीं था।
”हाँ छप्पन पकवान धरे थे न प्लेट में...देखकर ही मन भर गया” वह बड़बड़ाई.
”तुम सो जाओ..प्लेट मैं रख देता हूँ” प्लेट लेकर विनय बाहर चले गए।
”ये विनय भी न...पति कम पिता ज्यादा हैं, केयर करने पर उतरते हैं तो ऐसा उतरते हैं कि न चाहते हुए भी उसे बचपन के दिन याद आ जाते हैं. जब माँ पेट खराब होने पर खिचड़ी खिलाती थी और जुखाम होने पर काढ़ा पिलाती थी.
”ई.ई...ई...यूयू यू...” काढ़े का स्वाद याद आते ही उसे उल्टी आने को हुई. शादी के पहले तक उसने दवाइयां नहीं के बराबर खाईं थीं। माँ घर के नुस्खे ही आजमाती थी पर विनय तो उसे हर छोटी मोटी तकलीफ में भी डाॅक्टर के पास ले जाते और दवाइयां खिला देते थे। यहाँ तक कि उसके बच्चे भी दवाइयां खा खाकर ही बड़े हुए। आजकल के बच्चों के पास तो बीमार होने का भी टाइम नहीं है. ‘बस दवाई खाओ और काम पर जाओ‘
बुदबुदाते हुए वह लेट गई। सुबह उठी तो उसे अपनी तबीयत और भी सही लग रही थी. उसका दिल किया कुछ अच्छा सा नाश्ता करे। बढिया सा तैयार होकर अपनी किसी सहेली के घर जाए। लेकिन उसे खुद की तबीयत ठीक लगने से क्या फायदा। सोचते सोचते वह क्षुब्द हो गई। उसकी तबीयत ठीक है या नहीं...यह भी उसे विनय ही बतायेंगे। उसका मूड फिर खराब होने लगा।
वैसे चाहे उसे पूछे न..पर उसके बीमार होने पर विनय उसके आगे पीछे ऐसे घूमने लगते हैं जैसे पक्का प्रबंध कर रहे हों कि दोबारा बीमार न पड़े। सर्दियों में घर से बाहर जाते समय उसके पहने हुए कपड़े गिनते हैं, कम लगे तो ऊपर से जैकेट पहनने का हुक्म सुना देते।
सोचतेसोचते अचानक उसे ताव आ गया...भन्नाती हुई बुदबुदाई, ‘अरे यार पति, पति जैसा होना चाहिए...बिल्कुल दोस्त जैसा....कभी नोकझोंक हो तो कभी खट्टा मीठा झगड़ा...फिर रूठना मनाना...कभी बेपरवाह हँसना...कभी चाट गली में चाट खाना, फिल्म देखना, बाहर खाना। कभी आपस में लड़ाई हो तो पड़ोसी देश बन जाएं...कभी मिट्ठी हो तो खिचड़ी पक जाए‘
”ओह खिचड़ी..” शुभा को फिर खिचड़ी याद आ गई, लंबी सिसकारी भर कर सोचने लगी, ‘काश! विनय आज टुअर पर चले जाएं और वह अपनी सहेलियों के साथ डे आउट करे या फिर समीर के साथ फिल्म देखे, बाहर लंच करे‘ कितना मज़ा आएगा।
‘समीर की बीवी सौम्या भी पक्की बोर चीज़ है। गंभीरता से गृहस्थी चलाने वाली...जरा भी मस्ती नहीं उसमें। समीर भी जब तब यही शिकायत करता है। वह बिल्कुल विनय जैसी है। विनय को भी कोई शौक नहीं...बस आॅफिस जाना और घर आना‘
विनय तो जैसे ताक में ही रहते हैं कि कब शुभा बीमार पड़े और कब उसे खिचड़ी खिलाए। बच्चों के साथ भी यही करते थे। शुभा इस बात पर रोज अफसोस करती कि क्यों न भाग गई, उस समय समीर के साथ। समीर में तो कोई कमी ही नहीं है, बिल्कुल वैसा है जैसा वह चाहती है।
लंबा ऊँचा समीर जैसा दिखता है वैसा ही मस्त मौला भी है। गंभीरता भी है और मस्ती भी....नोक झोंक पर उतरता है तो हँसा हँसा कर पेट दुखा देता है। जब किसी बात पर समझाता है तो गुरू बन जाता है. उसके उदास होने पर उसके और उसकी उदासी के बीच ढाल बन जाता है। ये नहीं कि ज़रा सी बीमारी में पटाक से खिचड़ी खिला दे।
खैर कुछ दिनों में वह बिल्कुल ठीक हो गई और ज़िंदगी फिर अपनी रफ्तार से दौड़ने लगी। इसी बीच विनय को 15 दिनों की ट्रेनिंग के लिये मुंबई जाना पड़ा। ‘अब आयेगा मजा़‘ शुभा ने सोचा। विनय के साथ तो ज़िंदगी सूखी रोटी सब्जी जैसी थी। इसलिए विनय के जाते ही उसने अपनी सभी सखी सहेलियों व समीर को भी सब कुछ बता दिया।
10, 12 दिन तो उसके खूब मस्ती में बीते, ‘पता नहीं ये मस्ती विनय के साथ क्यों नहीं हो पाती...‘ इन दिनों हल्की सर्दी होते हुए भी स्वेटर नहीं पहना...अक्सर बाहर ही खाया। समीर के साथ भी खूब गप्पें लड़ाई। वह अपनी मस्ती में विनय की अनुपस्थिति खूब इंजाॅय कर रही थी।
लेकिन एक दिन उसे अपनी तबीयत कुछ गिरी हुई सी लगने लगी। गले में दर्द शुरू हुआ और बुखार ने आ घेरा। अपने प्रति वह हमेशा से लापरवाह थी. आदत पड़ गई थी इतने सालों में कि विनय अपने आप देखेंगे। एक ही रात में बुखार सीधे 103 चला गया. समीर को फोन किया। वह आया और उसे डाॅक्टर को दिखा लाया। लोकल होने की वजह से माँ उसके पास रहने आ गई।
लेकिन बुखार की तीव्रता में बिस्तर पर लेटेलेटे एकाएक विनय बहुत याद आने लगे। माँ उसे जबरदस्ती कुछ खाने के लिए कहती तो वह चिढ़ जाती। माँ हार कर चुप हो जाती। लेकिन विनय चुप न होते थे। अपने हाथ से चाहे 2 चम्मच ही सही पर खिलाकर ही मानते थे।
उसे तो इतनी ज्यादा केयर व पैंपर होने की आदत पड़ गई थी कि विनय की कमी कोई पूरी नहीं कर सकता था। समीर जब तब कह देता, ‘क्या यार 2 दिन में ही पस्त हो गई...इतने बुखार में तो मैं आॅफिस जाता हूँ‘
सुनकर उसे विनय की याद और सिद्वत से आती। यों सभी उसका खयाल रखने की कोशिश कर रहे थे पर उसे तो लग रहा था कि विनय नहीं है इसीलिए वह ठीक नहीं हो रही है। वह बेसब्री से विनय के आने के दिन गिनने लगी थी। सोच रही थी कि विनय आए और बीमार होने पर डांट डपट करे..जबरदस्ती खिचड़ी खिलाये..उस पर सौ पाबंदियां लगाये...4 स्वेटर पहनाये...चाहे तो कोट पहन कर सोने के लिये कहे। अब वह बिल्कुल नहीं चिढ़ेगी...सारा कहना मानेगी।
सोचसोच कर उसकी आँखें विनय के प्रति दिल में उमड़ आये भावों से भरती जा रही थी। यह सच है कि समीर उसकी दिली पसंद है पर विनय उसकी आदत है। पसंद तो समय के साथ बदल जाती है। लेकिन इतने सालों की आदत नहीं छूट सकती। हालांकि समीर के आभामंडल की तपिस से वह जबतब पिघल जाती है पर विनय की शीतलता के सुरक्षा घेरे की आदत हो गई है उसे।
सोचतेसोचते उसे नींद आ गई। बुखार की बेहोशी में वह न जाने कितनी देर तक सोती रही। तभी उसे अपने माथे पर किसी के हाथों का स्पर्श महसूस हुआ। उसने जल्दी से आँखें खोली,
”अरे तुम...कब आए?” तुमको तो परसों आना था..” पुलकित हो वह सुखद आश्चर्य से बोली।
”माँ से तुम्हारे बीमार होने का पता चला...इसलिए किसी तरह जल्दी आ गया. माँ कह रही थी कि तुम बिना कुछ खाए ही सो गई...लो थोड़ी सी खिचड़ी खालो...कपड़े नहीं पहने होंगे ठीक से...इसीलिए सर्दी बुखार हो गया...तुम्हें किसी बात का ध्यान तो रहता नहीं है” विनय बड़बड़ा रहे थे और वह मुग्ध भाव से उन्हें निहार रही थी। लग रहा था अब वह जल्दी ठीक हो जाएगी। वह कुछ बोलने को हुई तो विनय अपनी ही रौ में बोले,
”कुछ और नहीं मिलेगा...चुपचाप ये खिचड़ी खाओ...कम से कम 15 दिन तो तुम्हें अब खिचड़ी खानी पड़ेगी। वह मन ही मन हँस पड़ी..‘खिचड़ी की बारगेनिंग‘ तो बाद में कर लेगी। अभी तो वह विनय के गुस्से के पीछे के प्यार में डूब गई थी।
”जितने दिन कहोगे...उतने दिन खिचड़ी खाऊंगी...जब तक कहोगे...घर से बाहर कदम भी नहीं रखूंगी...” कहते हुए उसने मुंह खोल दिया। विनय ने हंसकर उसके मुंह में खिचड़ी डाल दी। अनायास ही उसकी पलकें भीग गईं।
”क्या हुआ..” द्रवित हो विनय उसके पास बैठ गया।
”कुछ नहींे...जब तुम खिलाते हो न तो खिचड़ी बहुत स्वादिष्ट लगती है। वह प्लेट एक तरफ रख, विनय से लिपट गई। पहली बार एक निश्छल प्रेम की खिचड़ी उनके बीच पकने लगी थी।
लेखिका-सुधा जुगरान