Hanuman Prasad Poddar ji - 17 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 17

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 17

तीसरी घटना
श्रीसेटजीसे वार्तालाप करने कार्तिक कृष्ण 7 सं० 1984 को भाईजी पुनः जसीडीह गये। भाईजीको गोरखपुर आनेके बाद दूसरे ही दिन श्रीभगवान्के पुनः प्रत्यक्ष दर्शन हुए। भगवान्के दर्शनोंकी तीसरी और चौथी घटनाका विस्तृत विवरण श्रीभाईजीने श्रीसेठजीको कार्तिक कृ० 14 सं० 1984 (24 अक्टूबर सन् 1927) के पत्रोंमें लिखा है। यह पत्र श्रीभाईजी श्रीसेठजीके पत्र व्यवहारमें दिया जा रहा है। इसके बाद भाईजीने भगवद्दर्शनोंकी घटनायें नोट करनी बन्द कर दी। गिनतीकी घटनायें हो तो नोट भी की जाय, जब जीवनकी यह स्वाभाविक बात हो गयी तो कहाँ तक नोट की जाय। श्रीगम्भीरचन्दजी दुजारीके आनेपर भाईजी उन्हें एकान्त कोठरीमें ले गये एवं जसीडीहकी घटना बड़े प्रेम भरे शब्दोंमें सुनायी। वे मन्त्र मुग्धकी तरह सुनते रहे एवं मनमें सोचने लगे कि इस कृपाका कोई मूल्य तो हो ही नहीं सकता, अब तो
अपनेको इनके श्रीचरणोंपर न्यौछावर कर देना और अपने जीवनका उद्देश्य इनके जीवनकी घटनाओंको नोट करते रहना। इसे इन्होंने जीवनके अन्ततक निभाया। भाईजीकी इच्छा न होते हुए भी इनके अत्यधिक आग्रहपूर्ण प्रार्थना रहनेपर कभी-कभी कुछ बता देते थे।
भाईजीकी उन दिनोंकी मस्तीका क्या कहा जाय। बार-बार भगवान्के दर्शन, स्पर्श, वार्तालापका सुदुर्लभ सौभाग्य मिल रहा था। उन दिनों उनके समीप रहनेवालोंको दिव्यताका अनुभव होता था। इन्हीं दिनों भाईजीको भगवान्ने यह प्रेरणा की कि अपना बाहरी जीवन बिलकुल साधारण रखो,
जिससे कोई पहचान न सके। इसे भाईजीने जीवनके अन्ततक निभाया, जिससे इनके निकट रहनेवाले भी इन्हें नहीं पहचान सके। बहुत लोग 'केवल 'कल्याण' के सम्पादक रूपमें ही जानते थे।

धर्म-पत्नीको भी भगवान्‌के दर्शन

भाईजीकी धर्मपत्नी रामदेईबाई जब रतनगढ़से गोरखपुर पहुँची तो भाईजीको भगवान् विष्णुके साक्षात् दर्शनोंकी सारी बातें उन्होंने भी सुनी।
वे सोचती–भगवान्के साक्षात् दर्शनोंके बाद तो वह व्यक्ति संसारको भूल जाता है, उसे भगवान्‌के अलावा किसीसे कुछ मतलब नहीं रहता, अतः अब मेरे जीवनका क्या होगा। कभी-कभी उन्हें सूनापन-सा लगता और आँखों में आँसू आ जाते। एक दिन उन्हें रोते देखकर भाईजीने
पूछा— तुम रोती क्यों हो? क्या बात हुई ? उत्तर दिया— रोऊँ नहीं तो क्या हँसू ? आपको भगवान्‌के साक्षात् दर्शन हो गये, पर मेरा संसार तो समाप्त हो गया। भाईजीने मुस्कुराते हुए कहा--अरी, मैं तो तेरे लिये वही हूँ, जैसा पहले था। इतना कहकर भाईजीने उनके सिरपर अपना हाथ रख दिया। उसी समय एक विलक्षण चमत्कार हुआ कि उन्हें भी चतुर्भुज भगवान् विष्णुके दर्शन होने लगे। इतना ही नहीं लगातार कई महीनेतक दर्शन होते रहते। बादमें बन्द हो गये।
इसी तरह एक बार वे भाईजीके साथ काशी गयी थी। स्नानादिके बाद भाईजी तो 'कल्याण' के प्रूफ देखने लग गये। उन्होंने भाईजीसे कहा कि बाबा विश्वनाथ और मैया अन्नपूर्णाके दर्शन करा दीजिये। भाईजीने उत्तर दिया कि मुझे अभी जरूरी प्रूफ देखने हैं, अतः मैं तो कहीं नहीं जाऊँगा। कई बार कहनेपर भी जब भाईजीने स्वीकार नहीं किया तो वे उदास होकर कमरेमें चली गयी। मनमें कहने लगी कि यहाँ आकर भी दर्शन नहीं कर सकी। इतनेमें बाबा विश्वनाथ और मैया अन्नपूर्णा के
सामने साक्षात् प्रकट हो गये और बोले -- तुम उदास क्यों हो रही हो। तुम
हमारे दर्शन ही तो करना चाहती थी, अब कर लो। इस तरह दर्शन देकर थोड़ी देर बाद अन्तर्धान हो गये।


श्रीघनश्यामदासजी बिड़लाको पत्र
जसीडीहमें साक्षात् दर्शनोंवाली बातको लेकर स्थान-स्थानपर
समाजमें चर्चा थी। लोग अपने-अपने भावानुसार आलोचना करते। भारतवर्षके प्रमुख उद्योगपति श्रीघनश्यामदासजी बिड़ला पोद्दारजीके बचपनसे मित्र थे। उन्होंने यह घटना सुनी तो सेठजी को पत्र लिखा कि ऐसी दिव्य बातोंका
इस तरह प्रचार नहीं होना चाहिये। वे ऐसी बातें गुप्त रखना अच्छा मानते
थे। श्रीसेठजीने उन्हें जो उत्तर दिया वह नीचे दिया जा रहा है ---

श्रीहरिः
प्रिय श्रीमान् घनश्यामदासजी बिड़ला,
सप्रेम राम-राम । भाई हनुमानप्रसादके भगवद्दर्शन विषयक समाचार ज्ञात हुए। उसको साकार चतुर्भुज श्रीविष्णु भगवान्‌के स्वरूपका दर्शन हुआ है। यह बात विश्वास करने योग्य ही है क्योंकि मुझे भाई हनुमानप्रसाद झूठ बोलनेवाला ज्ञात नहीं होता। आपने भाई हनुमानप्रसादकी स्थितिके विषयमें
लिखा सो सबकी स्थिति सब समय समान नहीं रहती, और न किसीकी स्थितिका दूसरेको अच्छी तरह ज्ञान ही हो सकता है। इस विषयमें आपका मानना न मानना आपके विश्वासपर निर्भर है। आपने लिखा कि ऐसी बातोंके कहने तथा फैलानेमें प्रोत्साहन देना मुझे तो अयोग्य मालूम देता है।" सो ठीक है, पर इसमें भाई हनुमानप्रसादका दोष नहीं है। मैंने ही उसकी इच्छा न रहनेपर भी सब बातें पूछी थीं और लोगोंमें प्रकटकी थीं।
अतः वास्तवमें मेरी भूल हुई।
गीताप्रेस, गोरखपुर
पौष शुक्ल 1984 (दिसम्बर, 1927)
विनीत
जयदेव गोयन्दका