श्री सावरकर जी को मोरिया नामक जहाज द्वारा इंगलैण्ड
से भारत के लिये ले जाया गया। जहाज के चलने से पहिले ही सावरकर जी की मि० अय्यर से भेंट हुई। दोनों ने, इस अभिप्राय से कि अंग्रेज उनकी बात न समझ सकें, हिन्दी में बातें कीं। उन्होंने यह विचारा कि अब क्या उपाय करना चाहिये, जहाज मार्ग में कहां ठहरेगा, और अय्यर को अमुक दिवस अमुक स्थान पर अवश्य पहुँच जाना चाहिये। इनकी बातें हिन्दी में हुई थीं किन्तु खुफिया पुलिस वाले समझ ही गये और उन्होंने मि० अय्यर को भी पकड़ने की सोची पर सफल न हो सके । रास्ते में इनका जहाज योरिशम के पास बिस्के उपसागर में मार्सेलिस बन्दरगाह पर ७ जुलाई १९१० कोो रुका । मार्ग में सावरकर जी यही विचार करते रहे कि किस प्रकार इन अंग्रेजों के हाथ से छुटकारा पाना चाहिये। या तो छुटकारा पाने का अवसर अब है और या फिर कभी नहीं आयेगा । सावरकर जी की रखवाली के लिये सशस्त्र सिपाहियों का एक बलवान् झूण्ड
प्रति समय इन्हें घेरे रहता था। सावरकर जी ने अपने मन में यही धारणा कर ली थी कि भारत जाकर या तो मुझे मृत्यु वा दण्ड मिलेगा अन्यथा आजीवन कालेपानी का दंड तो अवश्य ही होगा। इसलिये उन्होंने पुलिस के हाथ से छुटकारा पाने का ही निश्चय कर लिया। सावरकर जी ने एक युक्ति सोची और पुलिस अफसरों से कहा कि मुझे पाखाने में ले चलो। पुलिस वाले उन्हें पाखाने में ले गये। पाखाने के सामने एक शीशा रखा हुआ था जिसमें से अन्दर के मनुष्यों की सभी चेष्टायें स्पष्ट मालूम होती थीं। सावरकर जी ने पाखाने का दर्वाजा अन्दर से बन्द कर लिया और शीशे के सामने एक कपड़ा टांग दिया, जिससे पुलिस वाले उनकी चेष्टा देख न सकें। पाखाने में ऊपर रोशनदान की तरह कुछ थोड़ी सी जगह खुली हुई थी। सावरकर जी ने उसी रास्ते से निकलने के लिये प्रयत्न किया। दो-एक बार के बाद उन्हें अपने प्रयत्न में सफलता मिल गई और वह पुरुष-सिंह उसी छोटे से मार्ग से निकल कर 'स्वातन्त्र्य लक्ष्मी की जय' कहकर समुद्र में कूद पड़ा। इस घटना को देखकर पुलिस घबरा गई । समुद्र में तैरते हुए सावरकर जी के ऊपर पुलिस ने दो-एक पिस्तौल के आक्रमण भी किये परन्तु वे सब निष्फल रहे ।
सावरकर जी अपनी चतुरता से बच गये और डूबते-उतराते बन्दरगाह के सीधे घाट पर पहुॅचे। बड़ी कठिनाई के बाद उस घाट पर चढ़ सके। इनके समुद्र से बाहिर निकलते ही अंग्रेज अफसरों का झुण्ड भी 'चोर' 'चोर' चिल्लाता हुआ आ पहुॅचा।
सावरकर जी को मन में इस समय बहुत दुःख हुआ कि मैंनेेेे इतना प्रयत्न किया किन्तु अय्यर आदि कोई भी यहां न पहुँचा। पाठकों को स्मरण रहे कि मि० अय्यर और कामाकाई आदि चल पड़े थे किन्तु वे अवसर पर न पहुँच सके और देर में आये। सावरकर जी ने अब फ्रेंच पुलिस की खोज में भागना
प्रारम्भ किया । कुछ दूर जाने के बाद उन्हें एक साधारण-सा सिपाही दिखलाई पड़ा। सावरकर जी ने उससे कहा कि मैं चोर नहीं, एक राजनैतिक कैदी हूं और अब मैं फ्रांस की सरकार की छत्र-छाया में आ गया हूँ। मुझे मजिस्ट्रेट के सामने ले चलो उस
साधारण और अशिक्षित सिपाही की अल्पबुद्धि में यह बात न आई, उसने कुछ रुपये के लोभ में आकर सावरकर जी को अंग्रेज अफसरों के सुपुर्द कर दिया। सावरकर जी जाने के लिये तैयार न हुए। सिपाहियों में और सावरकर जी में परस्पर गुत्थमगुस्था होने लगी। अन्त में जिस प्रकार अकेले वीर अभिमन्यु को सात महारथियों ने मिलकर अधर्म से मारा था, उसी प्रकार, लगभगं एक दर्जन सिपाहियों ने मिलकर अकेले वीर सावरकर को धोखे से पकड़ लिया। निर्दयतापूर्वक घसीटते हुए जहाज की ओर ले चले। किसी अंग्रेज अफसर ने क्रोध में
आकर सावरकर जी को एक बड़े जोर का घूँसा मारा। फिर क्या था, सावरकर जी का पारा और भी चढ़ गया । वे बिजली की तरह झटका देकर एकदम उनके हाथ से छुट गये और उस अंग्रेज को ऐसा मारा कि वह बुरी तरह घायल होकर अचेतनावस्था में भूमि पर गिर पड़ा । सावरकर जी जहाज पर लाये गये। पुलिस के मन में उनका भय बैठ गया । अव तो पुलिस उन्हें एक मिनट के लिये भी न छोड़ती । इतनी सख्त निगरानी कि पाखाने मे भी साथ-साथ ही जाती । थोड़े दिनो के बाद सावरकर जी का वह जहाज बम्बई पहुॅचा नंगी तलवारों के पहरे में सावरकर जी जहाज से उतारे गये। और फिर एक बन्द कार मे बिठाकर नासिक ले जाये गये । पुलिस ने सावरकर जी के लिये ऐसा प्रबन्ध कर रखा था और उसके मन में ऐसा भय बैठ गया था जैसा किसी भयंकर खूँख्वार डाकू से हो जाता है।
सावरकर जी को फ्रेंच सरकार के राज्य की सीमा में से पकड़ ले जाने का समाचार बिजली की भांति समस्त संसार मे एक दम फैल गया। अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों के सभी समाचार-पत्रों ने अंग्रेजो के इस कार्य की निन्दा की और इसके प्रतिकूल आवाज उठाई। फ्रांस की सरकार ने भी इस घटना पर पर्याप्त विचार किया। उस समय फ्रांस इंगलैंण्ड को अप्रसन्न नहीं करना चाहता था इसलिये उसके विरुद्ध कुछ कार्यवाही न कर सका। सावरकर जी का यह केस हेग मे संसार की सबसे बड़ी अन्तर्राष्ट्रीय अदालत में भेजा गया और सावरकर को फ्रेंच सरकार को सौप देने का पर्याप्त आन्दोलन हुआ किन्तु वह सब निष्फल रहा। सावरकर जी तथा अन्य क्रान्तिकारियों का अभियोग सुनने के लिये कुछ विशेष ही जज नियुक्त हुए।