soi takdeer ki malikayen - 50 in Hindi Fiction Stories by Sneh Goswami books and stories PDF | सोई तकदीर की मलिकाएँ - 50

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सोई तकदीर की मलिकाएँ - 50

 

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सुभाष को पानी के नक्के मोङते , खेत में पानी देते सुबह से शाम हो गई थी । परछाइयां ढलने लगी थी । पंछी अपने घोंसलों को लौटने लगे थे । सूरज धीरे धीरे पश्चिम की ओर मुङ गया था । खेतों में काम करते कामगरों ने भी अपने घरों का रुख कर लिया था । कंधे पर कुदालें फावङे उठाए एक हाथ में ताजा तोङी सब्जी लिए आपस में दुख सुख करते हुए वे अपने अपने घरों की ओर चल दिए थे ।
निक्के ने सडक से सबको पुकारा – आज के लिए काम बहुत हो गया । अब बस करो । हाथ का काम जल्दी से निपटाओ और हाथ मुँह धो लो । चलो घर चलें । बाकी काम कल देखेंगे ।
सुभाष ने भी सुना और आगे जाकर मोटर बंद कर दी । जो पानी क्यारियों में चल पडा था वह उधर ही एक क्यारी से दूसरी क्यारी में आगे बढता जा रहा था । वह कंधे पर फावङा लिए पानी को निचान की ओर जाते हुए देखता रहा । पानी को जिधर ढलान दिखाई दे रहा था , उधर ही लुढकता जा रहा था ।
सुभाष को अपनी जिंदगी इस पानी जैसी लगी । बेहिसाब , बिना किसी सुनिश्चित योजना के निरंतर लुढकती हुई । रास्ते में तरह तरह की बाधाएं आती गई पर जिंदगी अपने हिसाब से अटकती अटकती बीतती रही । हर रोज सुबह हुई फिर दोपहर हो गई और फिर रात । हर दिन एक दिन घटता गया या कहो बढता गया ।
जिंदगी में कई ऐसे पल आते हैं , जब हमें लगता है कि बस बहुत हो गया । हम अब थक गये हैं और हम बिना सोचे , बिना विचार किए या तो वहीं बैठ जाते हैं या दूसरी ओर मुड जाते हैं । दूसरी दिशा में कभी बहुतायत होती है और कभी बिल्कुल खाली पर जिंदगी अपनी रफ्तार से आगे बढती रहती है । इंसान के दुखी होने या खुश होने से उसे कोई अंतर नहीं पडता । वक्त को बस बीतना है और वह बीत जाता है ।
सुभाष ने अपने बारे में सोचना चाहा , क्या वह खुश है ? क्या जयकौर उसके यहाँ आ जाने से खुश है ? उसके अपने घर परिवार के लोग उसके यहाँ चले आने से खुश होंगे ? माँ , भाई , भाभी सब लोग ? घर में माँ उसका इंतजार कर रही होगी पर वह कैसे जाय ? उसके घर में जयकौर के लिए कोई जगह नहीं होगी । जयकौर उसके गाँव की बेटी है , उसकी अपनी पत्ती की बेटी । समाज के न्याय से वह उसकी बहन कही जाएगी । उनके बीच किसी रिश्ते की बात गाँव के लोगों में अवैध मानी जाएगी पर सच्चाई यह है कि उनके बीच कोई दूर का नजदीक का रक्त संबंध है ही नहीं । हैं तो मोह के धागे जो किसी भी रिश्ते से मजबूत हैं ।
ऐसे में वे अपने मन का क्या करें । जहाँ जुड गया , जुड गया । प्यार देख कर , सोच समझ कर तो नहीं किया जाता । हो जाता है अपने आप । हो जाए तो सारी कायनात उसके सामने छोटी लगने लगती है । किसी तीसरे की होंद , अस्तित्व नजर ही नहीं आता ।
वह समझ रहा है कि भाई और भाभी उसके लिए परेशान हो रहे होंगे । और माँ , उसकी तो रात की नींद और दिन का चैन गायब हो चुका होगा पर वह करे तो क्या करे । वह भली भांति जानता है कि जयकौर अब भोला सिंह की ब्याहता है । पर भोला सिंह को एक जीवित पत्नी और दूसरी केसर के घर पर रहते जयकौर से शादी करने का हक किसने दिया । अमीर आदमी जो चाहे कर ले उसको कोई पूछने वाला नहीं और गरीब बेचारा अपने प्यार की दुनिया बसाने के बारे में सोच भी ले तो जमाने भर का गुनहगार ।
खेत में काम करने वाले सभी आदमी अपनी कुदाल फावङे संभाल कर जाने के लिए तैयार हो गये थे । निक्के ने उसे वहीं मेड पर खङा देखा तो नीचे उतर आया – तूने चलना नहीं क्या । चल तुझे हवेली छोड दूँ फिर उधर से ही घर चला जाऊंगा ।
सुभाष अपनी सोच के घेरे से बाहर आया – हाँ ,चलो चलते हैं । और वे दोनों बातें करते करते हवेली की ओर चल पङे ।
निक्के ने पूछा – भाई , तू इस गाँव का तो लगता नहीं । कहीं बाहर से आया है क्या ?
आहो – सुभाष ने सिर हिला कर जवाब दिया ।
कौन सा गाँव है तेरा ?
कम्मेआना गाँव है ।
ये कहाँ हुआ ?
फरीदकोट के पास है । करीब पाँच किलोमीटर होगा वहाँ से ।
छोटी सरदारनी उसी गाँव की है न ।
हाँ जी ।
फिर तो तू मेहमान हुआ । सरदार साब का साला लगा गाँव के रिश्ते से ।
बात सुभाष के कलेजे में किरच की तरह से चुभी । उसने इस बात का कोई जवाब नहीं दिया
। निक्का सरदार की भलमनसाहत के किस्से सुनाता रहा । सुभाष के कानों में आधी बात पहुँचती ,आधी बाहर रह जाती । वह निक्के का मन रखने के लिए बीच बीच में हूं हां कर देता । निक्का अपने घर की बातें बताने लगा था पर सुभाष का पूरा ध्यान इस समय जयकौर में उलझा हुआ था । कब ये लंबा रास्ता खत्म हो और वह हवेली जा पहुँचे ।
उधर जयकौर का भी इंतजार करते करते बुरा हाल हुआ पडा था । वह कई बहानों से दरवाजे तक जाती पर हवेली से बाहर झांकने की उसकी हिम्मत न होती । वह दहलीज तक जाकर लौट आती । केसर ने उसकी हालत देखी तो ठहाका लगा कर हँस पडी ।
जयकौर ने उसे यूं बेतहाशा हंसते देखा तो चौंक कर खडी हो गई । केसर पेट पकङ कर हँसती जा रही थी । हँसते हँसते उसकी आँखों में आँसू आ गये पर हँसी में ब्रेक न लगनी थी , न लगी । बसंत कौर ने उसकी हालत देखी - ए केसर , बावली हो गयी है क्या ? भला ऐसे भी कोई हँसता है , जैसे तू हँसे जा रही है । बस कर अब ।
कुछ नहीं हुआ छोटी सरदारनी । वो तो बस ऐवें ही – और एक बार फिर केसर को हँसी का दौरा पड गया। वह हँसते हँसते खाट पर लोटपोट हो गई ।
बता तो सही ऐसा क्या दिख गया तुझे कि हँस हंस कर पागल हुई जा रही है ।
केसर दो मिनट तक हँसती रही फिर उसने जैसे तैसे अपनी हँसी रोकी और भैंसों को पानी पिलाने चल पङी ।
अरी बता कर तो जा कि कौन सा अजूबा दिखाई दिया तुझे कि बौरा ही गई ।
जयकौर ने नजरों में विनय भर कर केसर को देखा । मानो नजरों से ही कह रही हो – बहना प्लीज , अपना मुँह मत खोलना । लाज रख लेना ।
केसर के चेहरे पर प्यारी सी मुस्कान छा गई । उसने नलके से भरी हुई बाल्टी उठाई और नौहरे में चली गई । बसंत कौर तब तक साबुत मूंग की दाल निकाल लाई थी । जयकौर ने थाल बसंत कौर के हाथ से पकड लिया और चारपाई पर बैठ दाल चुगने लगी । दाल चुग कर उसने चूल्हा जलाया और हांडी मे पानी उबलने के लिए चढा दिया ।

बाकी फिर ...