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उस दिन फिर से एक सुहानी सी पुरवाई चली जैसे मन के भीतर ! अंदर का भाग इतना खूबसूरत था कि मुझे वाकई अफ़सोस हुआ कि भई मैं ज़िंदा भी हूँ कि नहीं? क्यों मैं इतनी अलग-थलग रही? हम मित्रों के साथ पर्यटन पर नहीं गए हों अथवा एन्जॉय न किया हो, ऐसा तो नहीं था लेकिन मेरी इस सबकी जैसे कुछ सीमाएँ रहीं | क्यों? मालूम नहीं, घर से तो हम दोनों भाई-बहनों को एक सी आज़ादी, एक सा वातावरण, एक सा प्यार-दुलार और हर बात में एक साथ ही खड़ा किया गया था | वह बात अलग थी कि भाई का सपना कुछ और था जो पूरा भी हो गया और मेरा ? सपना पूरा करने के लिए सपने देखने तो होते हैं न ! अपनी आँखों में तो सपने ही नहीं होते थे। न जागते, न सोते ----भाई को देखा था मैंने, मेरे साथ बात करते-करते वह न जाने कहाँ पहुँच जाता, वह शायद दिन में भी अपने वही सपनों में गुम हो जाता था जो वह रात में नींद भरी आँखों में भरे रहता था |
“चलें, बोटिंग करें ? ”उत्पल ने मेरी चुप्पी तोड़ने की कोशिश की |
“अरे ! नहीं रहने दो न ! ”धीमे से फुसफुसाई मैं |
उसने कुछ नहीं कहा –जैसे उसके लिए मेरी हर बात में ‘हाँ’थी | मुझे अजीब भी लगता था और खराब भी! मैं उसे भी बोर करने पर तुली थी | क्यों होती जा रही थी मैं ऐसी ? उम्र बढ़ने के साथ एक सूखापन मुझे घेरने लगा | दूसरों से मेरी अपेक्षाएँ बढ़ रही थीं और मैं स्वयं----?
“चलो, करते हैं बोटिंग----”उसका लटका हुआ चेहरा देखकर कुछ पलों में ही मैंने कह दिया | अचानक जाने कितनी चमकीली सुबह उसके चेहरे पर खिल उठी | हैलोजेन की चमकती बिजली में उसका चेहरा यकायक चमकने लगा था | मेरे भीतर आश्वस्ति सी पसर गई |
हम दोनों बोट में बैठ गए, मोटर-बोट थी जो हमें अपने पैरों से चलानी थी | उसे चलाते हुए बहुत अच्छा लगा जैसे कोई पैरों की जकड़न खुल रही हो | बहुत दिनों से नृत्य भी नहीं कर रही थी, न ही योग----अम्मा बेचारी तो कह कहकर थक चुकी थीं | अपने हिसाब से वे दोनों मेरे लिए कुछ न कुछ करते रहते लेकिन जैसे कुछ पॉज़िटिव हो ही नहीं रहा था मेरे जीवन में ! कितने रास्ते थे लेकिन एक राह चुनने में मुझे क्या परेशानियाँ आ रही थीं ! सच में, मैं जैसे स्वयं से ही दुखी होने लगी थी |
हमने बोट में उस सुंदर झील के कई चक्कर काट लिए थे, खूब मज़ा आ रहा था लेकिन मेरी टाँगों में दर्द होने लगा था | उत्पल बोट चलाते हुए भी लगातार मेरे चेहरे के उतार-चढ़ाव देखता रहा | इतना---कि मैं भी जब उसे अपने चेहरे को देखते हुए नोटिस करती, खिसिया जाती |
“बस, बहुत हो गया----”मैंने कहा और हम दोनों बोट को किनारे की ओर ले गए |
बोट में से उतरते हुए मेरा पैर लड़खड़ाया, उत्पल की बाहें जैसे मुझे संभालने के लिए खुली हुई ही थीं | अचानक मैं हड़बड़ा उठी |
“क्या कर रहे हो ---? ”मैंने कसमसाकर कहा लेकिन उसने कोई उत्तर नहीं दिया और संभालकर मुझे उतारने लगा | अपनी बाहों में समेटकर झील के चारों ओर बनी बैंचों की ओर लाते हुए उसकी साँसें मेरे चेहरे को छू रही थीं और मैं असहज होती जा रही थी | लगभग 10/12 कदम चलकर उसने मुझे एक बैंच पर बिठाकर अपनी बाहों के घेरे से मुक्त कर दिया |
मैं अपने व्यवहार से शर्मिंदा भी हुई और खिसिया भी गई | सच कहूँ तो अक्सर मुझे अपने व्यवहार पर खिसियाहट आती रहती थी | अरे! जो कुछ भी है खुलकर कहो, बोलो---ये क्या हुआ कि चुप्पी साध लो !
“चलिए, उस रेस्टोरेंट में कुछ खा लेते हैं, देर भी काफ़ी हो गई है---” उत्पल का स्वर तो ऐसा कोमल, सहज होता था जैसे मेरे व्यवहार का उस पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता हो |
भूख तो मुझे भी लग रही थी, सच कहूँ तो पेट में चूहे कलाबाज़ियाँ कर रहे थे | इस समय विरोध करना या कुछ कहना ठीक नहीं था | अगर मैं उस समय कुछ भी कहती, उसे मानने में वह पल भर भी न लगाता, चाहे खुद कितना ही भूखा क्यों न होता |
बहुत अच्छा रेस्टोरेंट था ! क्या वातावरण था! पेड़ों से छनकर आती हुई रोशनी वहाँ मेज़ों पर बैठे हुए लोगों पर छन-छनकर पड़ रही थी जैसे दूर कहीं कंदीलें रोशनी फेंककर अचानक गुम हो जाती हों, पल भर बाद फिर से फेरा लगा लेती हों | देखकर मन प्रसन्न हो गया | हम दोनों एक मेज़ पर आ बैठे | शोर नहीं था, जोड़े फुसर-फुसर बातें करते हुए मुस्कुरा रहे थे | बहुत सुंदर व रोमांटिक वातावरण था | हम दोनों दूर कोने की मेज़ पर आ बैठे थे | मैं असहज तो थी ही, खुद में स्पष्ट भी कहाँ हो पा रही थी | जितनी बातें मन में थीं, अभी शीला दीदी और रतनी से भी नहीं कर सकती थी | इससे पहले वो दोनों दिव्य के कारण चिंता में थे और अब ये---
रेस्टोरेन्ट की यूनिफ़ॉर्म पहने लड़का मेनू-कार्ड लेकर आया, उसकी जेब पर एक लोगो चिपका था,
‘द ड्रीम’ | क्रीम कलर की शर्ट पर मरून और गोल्डन धागे से शायद कढ़ाई की गई थी | द ड्रीम, सच में जैसे किसी सपने सा अद्भुत था, बहुत आकर्षित कर रहा था | लड़का हम दोनों के आगे रखकर अदब से एक ओर खड़ा हो | मेनू पर नज़र डालते हुए उत्पल ने मुझसे पूछा;
“क्या लेंगी? ”
“कुछ भी---आज तुम्हारी चॉइस---”कहकर मैं मुस्कुरा दी | मुझे वहाँ का माहौल प्रभावित कर रहा था, ऐसे स्थानों पर माहौल का असर ही मूड बनाता या बिगाड़ता है, खाने का स्वाद तो बाद में ---
“ठंडी बीयर---? ”
“हम्म----” पता नहीं क्यों मिटर मुँह से निकल गया?
इतने दिनों से उसका घर पर आना-जाना था, काफ़ी बार हमारे साथ ही डिनर भी लेता था, जानता था यदा-कदा हम सभी बीयर या कोई और ऐसी ड्रिंक ले लेते थे जो अधिक स्ट्रॉंग न हो, लेकिन काफ़ी कम | हमारे परिवार में रोज़ाना की आदतों में यह शामिल नहीं था | कभी कोई मेहमान आया तब भी अधिकतर तो बीयर ही ली जाती | मुझे तो वह भी पसंद नहीं थी | इसका कारण शायद सामने जगन के हर रोज़ के तमाशे देखना था लेकिन उसकी और हमारे घर की कोई तुलना तो थी नहीं, न ही ड्रिंक्स की ---फिर भी मैं ! बताया न, अजीब ही थी न मैं ! आज उसे बीयर के लिए मैंने ‘हाँ’कैसे कह दिया ?
लड़का बीयर रख गया था, हम दोनों ने चीयर्स किया और सिप करने लगे | पहली बार मैं उत्पल के साथ इस प्रकार बाहर निकली थी | उसके दिल में अपने लिए क्या भावनाएँ हैं जानती थी, अपनी और उसकी उम्र की लंबी दूरी जानती थी लेकिन उसके व्यवहार, उसकी आँखों की भाषा और उसकी देह-संकेत से मेरा मन धड़कने लगता | आखिर हाड़-माँस का पुतला तो मैं भी थी ही न! सोच रही थी आज इससे अपने मन की बात करती हूँ | दोस्ती तो खासी हो ही चुकी थी उससे, कितना काम हम लोग साथ करते थे! साहित्य में उसकी भी रुचि थी, मेरी भी---वह जो कोई नई पुस्तक पढ़ता, फ़िल्म देखता या फिर मैं---उन पर चर्चा तो हो ही जाती थी | उसके स्वभाव के बारे में तो मैं काफ़ी बातें जानती थी, उसे समझती थी | वह भी मुझे अच्छी तरह पहचानने लगा था इसलिए वह जब कभी मेरा मूड गड़बड़ देखता, चुप ही रहता |
“अरे! मैं भी---सच ए फूल ! ” मैंने अपने सिर पर एक टपली मारी |
“क्या हुआ ? ”उसकी चम्मच में बिरयानी थी जिसे वह अपने मुँह के पास ले जा रहा था | उसने चम्मच प्लेट में वापिस रख दी |
“अम्मा-पापा को तो मालूम है कि मैं शीला दीदी के घर तक गई हूँ---कुछ थोड़ी देर होती तो वे सोच लेते कि हम यूँ ही चक्कर मारने निकल गए होंगे, थोड़ी देर में आ जाएंगे लेकिन ---ये टाइम तो---”
“रिलेक्स---मैंने उन्हें बता दिया है | वो सो जाएंगे, गार्ड को भी मालूम है आप बाहर हैं, वह मेन गेट खोल देगा | ”उसने बड़े आराम से कहा और फिर से खाना शुरू किया |
सच में मैं आश्चर्यचकित हो रही थी। कितना ज़िम्मेदार बंदा है! उसकी ओर देखते हुए यही सोचती रही थी—
“अब तो खाइए, कोई चिंता की बात नहीं है---” वह मुस्कुराया |
“हम्म---”मैं सच में रिलैक्स हो गई थी | मैंने धीरे-धीरे आराम से खाना शुरू किया |
“तुम मुझे अपना करीबी दोस्त समझते हो न ? ” दो-चार कौर निगलकर मैंने पूछा |
“यू हैव डाउट ? ”मुँह चलाना बंद करके उसने मेरे प्रश्न का प्रश्न से उत्तर दिया |
“नहीं, कोई डाउट नहीं है---लेकिन—मन में एक बात ज़रूर है। तुम मुझे ठीक से गाइड कर पाओगे ? ”
“गाइड तो ---पता नहीं लेकिन जब तक आप बात बताएंगी नहीं, मैं कैसे समझूँगा ? ”
“हाँ, यह बात तो है---” मैं खुलकर मुस्कुराई और उसके चेहरे पर मैंने अपनी दृष्टि चिपका दी |
कोई किसी के लिए इतना अधिक समर्पित और गंभीर रूप से केयरफुल कैसे हो सकता है ? शायद प्रेम में ऐसा ही होता है | यह प्रेम ही था क्या जिसे किसी ने भी स्वीकार कहाँ किया था?