मर्यादा पुरुषोत्तम श्री रामचन्द्र जी के निवास से पवित्र पंचचटी और दण्डकारण्य के मार्ग में नासिक पड़ता है। यह भी पवित्र तीर्थं माना जाता है। इसी नासिक जिले की पवित्र भूमि में एक छोटा-सा ग्राम भगूर है। यह गांव अपने सावरकर के कारण महाराष्ट्र राज्य में पर्याप्त प्रसिद्धि प्राप्त कर चुका था।
इसी ग्राम मे चितपावन ब्राह्मण श्री विनायक दीक्षित रहा करते थे। चितपावन ब्राह्मणो का भी इतिहास बहुत रहस्यमय है। ये विगत दो सौ वर्षो से ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध और भारत की
स्वतन्त्रता के लिये निरन्तर प्रयत्न करते रहे हैं। इसीलिये ब्रिटिश साम्राज्य की आंखो मे चितपावन ब्राह्मण सदा खटकते रहते हैं।
पहले पेशवा, बाला जी विश्वनाथ चितपावन ब्राह्मण थे ।
भारत के प्रमुख योद्धा श्री बाजीराव भी चितपावन कुल को ही अलंकृत करते थे। पानीपत के योद्धा ने भी चितपावन ब्राह्मण के वंश में जन्म लिया था। महान् राजनीतिज्ञ नाना फडनवीस, सन् १८५७ के स्वातन्त्र्य संग्राम के नेता नाना साहिब और वासुदेव बलवन्त जिन्होंने ब्रिटिश गवर्नमेण्ट के विरुद्ध क्रान्ति की, वे भी चितपावन थे। छपेकर बन्धु और रानाडे जिन्होंने अंग्रेज अफसरों को मारने के अभियोग में फांसी खाई, ये सब भी पवित्र चितपावन वंश को ही सुशोभित करते थे। श्रीयुत गोखले, रानाडे और लोकमान्य तिलक भी तो इसी स्वनाम धन्य चितपावन वंश में ही उत्पन्न हुए थे। फिर क्या आश्चर्य जो हमारे नायक ने भी इसी कुल में जन्म लेकर उसे कृतार्थ किया! आश्चर्यं तो तब था यदि इनका जन्म किसी और कुल में हो जाता।
विनायक दीक्षित के दो पुत्र थे। महादेव और दामोदर दामोदर ने बहुत अधिक शिक्षा प्राप्त न की थो । केवल मैट्रिक तक ही पढ़े थे । उन्हें कविता करने का भी शौक था । ये एक स्कूल में अध्यापक का कार्यं करते थे। इनका स्वभाव मिलनसार, सरल स्वभाव और साधु था। अपने पूर्वजों राम और कृष्ण के प्रति इनके हृदय में अगाध श्रद्धा और भक्ति थी। ये वीरो का सदा सन्मान करते थे। देश के प्रति प्रेम और भक्ति का स्रोत इनके हृदय में उमड़ा रहता था। इनका शरीर बड़ा विशाल, ऊँचे कन्धे, विस्तृत ललाट, चौड़ा वक्षःस्थल और लम्बी बाहुएँ, गौरवर्ण, भव्य मूर्ति सबको प्रभावित करने वाली थी। भगूर ग्राम में इनके अतिरिक्त और कोई मैट्रिक तक अंग्रेजी नहीं पढ़ा था इसलिये और इसलिये भी कि इनके अन्दर अनेक गुण विद्यमान थे, इनका उस समय समाज में बड़ा आदर था । ये बड़े देशभक्त थे तथा इस समय की राजनीति में विशेष भाग लिया करते थे। भगूर के समीप ही कोठूर ग्राम में राधाबाई नाम की एक कन्या थी। उसमें भी वीरों के प्रति सम्मान और अपने पूर्वजो राम तथा कृष्ण के लिये श्रद्धा कार्य करती थी । बालपन से ही यह भी रामायण और महाभारत का पाठ किया करती। आदर्श आर्य गृहिणी के लक्षण इसमें बचपन से ही प्रस्फुटित होने लगे थे । समय आया और १८ वर्ष की आयु के दामोदर और १० वर्ष की आयु वाली राधाबाई का परसर सम्बन्ध हो गया। बड़ी निपुणता और योग्यता से दोनों भगूर में ही गृहस्थ जीवन बिताने लगे। दोनो का परस्पर प्रेम और आशायें प्रतिदिन दृढ़ और विस्तृत होने लगी। सम्वत् १९४० वैशाख कृष्णा ६ तदनुसार २८ मई सन् १८८३ ई० सोमवार का शुभ दिवस आया। सर्वत्र शुभ लक्षण दृष्टिगोचर होने लगे। इस दिन जब श्रीमती राधाबाई ने पुत्र रत्न को जन्म दिया, तो उस समय दसो दिशायें निर्मल और प्रसन्न दीख रही थीं, वायु मधुर और मन्द होकर वह रही थी, याज्ञिकों द्वारा अग्नि की लपटे भी हव्यपदार्थ को चारों ओर घूम-घूम कर ग्रहण कर रही थी। तात्पर्य यह कि उस समय सब कुछ शुभसूचक मंगल चिन्ह हो रहे थे। ऐसे बालकों का जन्म लोक के अभ्युदय के लिये ही हुआ करता है। बालक के जन्म से घर-घर खुशियां मनाई जाने लगीं। हर्ष के बाजे बजने लगे। मित्रों से बधाइयां आने लगीं। सगे-सम्बन्धियों को भेंट पहुँचने लगीं। नौकर-चाकरों को इनाम दिये जाने लगे। सर्वत्र हर्ष का साम्राज्य था। बालक दिन-दिन चन्द्रमा की कला की भांति बढ़ने लगा। उसकी सुन्दर मूर्ति, गोल-मटोल चेहरा और किसी को देखकर जरा सा मुस्करा देना सबके हृदयों में उसके प्रति अधिक प्रेम-भाव बढ़ा देता था । बालक फूल की तरह रात दिन सगे-सम्बन्धियों के हाथों में रहने लगा और बड़े प्रयत्न से उसका लालन-पालन होने लगा ।
सब कुछ था, किन्तु एक बात कुछ खटकती थी। वह यह कि बालक अपनी माता का दूध नहीं पीता था और बहुधा रोया करता था। बहुत प्रयत्न करने पर भी रोना बन्द न हुआ। एक दिन इसके ताऊ इसे गोद में लेकर बैठे हुए थे। उन्होंने 'यदि तु अपने पूर्वज विनायक दीक्षित का आकार है तो तेरा भी यही नाम रख देंगे, तू चुप होकर दूध पीले" यह कहकर उसके माथे पर राख का टीका लगा दिया। बालक ने तत्काल रोना बन्द कर दिया और वह पीने लगा। सबको महान् आश्चर्य हुआ। इसी घटना के आधार पर इस बालक का नाम भी बिनायक ही रख दिया गया।
कहते हैं— ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध भीषण क्रान्ति करने वाले श्री वासुदेव बलवन्त फड़के जिस वर्ष स्वर्गलोक सिधारे उसी वर्ष हमारे इस बालक ने भी जन्म ग्रहण किया। इसलिये सम्भावना अधिक यही है कि उनकी आत्मा ने ही इस बालक के रूप मे जन्म लिया हो। क्योंकि जो भावनायें वासुदेव वलवन्त फड़के के हृदय में वर्त्तमान थीं, ब्रिटिश साम्राज्य के विरुद्ध और भारत के प्रति वही भावनाये इस बालक के हृदय में भी तीव्र गति से कार्य कर रही थी। माता-पिता के लाड़ प्यार और सम्बन्धियो के स्नेह-संवर्धन से वालक अपनी आयु के दिन व्यतीत करने लगा। एक-एक करके वर्ष भी बीतने लगे। माता-पिता बचपन मे ही अपने प्यारे बालक को रामायण की कथा समझाते और महाभारत को सुनाया करते थे। अपने पूर्वजों की बीरता की कहानियां सुन-सुनकर बालक सावरकर के हृदय में भी खून जोश मारने लगा, भावनाये जागृत होने लगीं, संकल्प दृढ़ होने लगा कि मैं भी ऐसा ही वीर बनूँगा। बालक कथाओं मे सुनी हुई वीरतामय घटनाओं का अनुकरण करने लगा । उसी प्रकार धनुष बाण बना-बनाकर उनसे खेलने लगा। कभी तलवार चलाने के खेल खेलता और कभी धनुष-बाण के । अपने गांव के सब बालकों को इकट्ठा करके सावरकर उनकी दो पार्टियां बना देता और यही दो पार्टियां दो सेनाये कहलातीं। फिर एक सेना दूसरी सेना पर आक्रमण करती, युद्ध करती और कल्पित दुर्गं पर विजय भी प्राप्त कर लेती। इसी प्रकार सेना युद्ध में सावरकर दक्षता प्राप्त करने लगा। धनुष वाण भी हाथ में रहा करता था । किसी वृक्ष पर कोई फूल दीख पड़ा तो उसको अपने बाण से गिरा देने में वह प्रसन्नता का अनुभव करता था और किसी उड़ते हुए पक्षी को बाण से गिराकर तो वह अपनी अपूर्व सफलता समझने लगा था। कभी किसी मस्जिद पर हमला करता और दूसरी विरोधी सेना को परास्त कर देता था। भालों की लड़ाई का भी सावरकर ने अभ्यास किया। कल्पित सेना के सब सैनिकों के पास भाले कहां से आवे ? लिखने की कलम उनके भाले बनते थे और उनसे वे परस्पर युद्ध किया करते थे। पिता जी से राणा प्रताप, वीर शिवाजी आदि वीरों के वीरतापूर्ण कार्यो की कथा सुनते रहने से सावरकर का हृदय भी इन भावनाओं से भर गया और बाल्यावस्था से ही उनका ध्यान देश तथा धर्म की ओर खिंच गया। प्रतिभाशाली तो इतना था कि १० वर्ष की आयु में ही उसने मराठी में कवितायें करनी आरम्भ कर दी और पूना के प्रसिद्ध समाचारपत्र भी उन्हें प्रकाशित करने लगे। सन् १८९३-९५ में समस्त देश में हिन्दु-मुस्लिम दंगे होते रहे। महाराष्ट्र में भी इस अग्नि की ज्वालायें धधकीं। बम्बई और पूना आदि में भीषण दंगे और उत्पात होने लगे। समाचार पत्रों में इन समाचारों को पढ़कर सावरकर के हृदय में जातीय प्रेम और देश सेवा के भाव और भी अधिक भर गये।
सन् १८९२ में जब विनायक की आयु केवल ६ वर्ष की थी,
माता का महामारी से देहान्त हो गया। घर में और कोई दूसरी औरत न थी। सावरकर आदि ५ भाई और २ बहिनें हुई थी। २ भाई और १ वहिन बहुत छोटी आयु में ही मर चुके थे। अब ३ भाई ओर १ वहिन थे। इन सबके पालन-पोषण का भार पिता के कन्धों पर पड़ा पिता जी ने यह समस्त प्रवन्ध इस निपुणता से किया कि बालकों को माता की मृत्यु की घटना का ध्यान भी न रहा। पिता जी ने घर की दुर्गा की पूजा का भार सावरकर को सौप रखा था। इसने सुना था कि दुर्गाजी ने शिवाजी की बहुत सहायता की थी, इसलिये वह दुर्गा के सामने घण्टों घुटने टेक कर प्रार्थना किया करता । इस प्रकार विनायक के हृदय मे देश तथा धर्म के प्रति प्रेम की भावना दिनोदिन अधिक
प्रबल होती गई। महाराष्ट्र में सन् १८९७ में जो लहर चली उसका सारे भारतवर्ष में भारी प्रभाव पड़ा। पूना के अखिल भारतीय कांग्रेस के अधिवेशन, गणेश पूजा और शिवाजी महोत्सव आदि ने ऐसा जोर पकड़ा कि सारे महाराष्ट्र में क्रान्ति मच गई। १४ वर्ष का वालक विनायक सावरकर इन सब बातों को समाचारपत्रो में बड़े ध्यान से पढ़ता और इन पर गम्भीरता से विचार किया करता। उन दिनों सावरकर का मुख्य कार्य यही हो गया था कि स्वयं डाकघर जाकर वहां से समाचार-पत्र लाना, उसे स्वयं पढ़ना और अपने साथियों को पढ़कर सुनाना और समझाना। इन गम्भीर विषयों पर वह अपने अध्यापकों और अपने से बड़ो के साथ वादविवाद भी किया करता था।
पूना में प्लेग फैल गई। जनता त्राहि त्राहि पुकारने लगी । अंग्रेज अफसरों की ओर से उन दिनों अव्यवस्था रही। इनके प्रति जनता में विक्षोभ उत्पन्न हो गया। सम्पूर्ण देश में
महारानी विक्टोरिया की 'डाइमण्ड जुबिली' मनाई जा रही थी, सभी ओर प्रसन्नता दृष्टिगोचर होती थी। उसी दिन उन अंग्रेज अफसरों का वध हो गया। धड़ाधड़ गिरफ्तारियां होने लगीं। नाथू बन्धुओं को निर्वासन का दण्ड मिल गया; श्री लोकमान्य तिलक भी पकड़े गये और उन अफसरों को मारने वाले छपेकर भाई भी पकड़ कर फांसी पर चढ़ा दिये गये । यह घटना थी जिसने सावरकर के हृदय में अपना गहरा स्थान कर लिया। अब क्या था, सावरकर ने अपने विचारों का प्रचार अधिक वेग से करना आरम्भ कर दिया। अपने गांव में स्कूल के विद्यार्थियों को इकट्ठा करके उनमें अधिक जोश उत्पन्न करने के लिये शिवाजी महोत्सव और गणेश पूजा मनानी आरम्भ कर दी। सावरकर अपने साथियों में अधिक जागृति उत्पन्न करने के लिये वीरतापूर्ण कवितायें बनाने लगा। सावरकर ने नासिक में एक 'मित्र- मेला' नाम की संस्था स्थापित की। उसमें वीरों की कवितायें गाई और पढ़ी जाती थीं; शिवाजी महोत्सव और गणेश पूजा मनाई जाती थी। यह संस्था अल्पकाल में ही इतनी बढ़ गई कि सरकार को भी इसकी बिशेष देख-भाल करने के लिये आज्ञा निकालनी पड़ी। इस संस्था ने बड़े-बड़े वक्ता तथा देशभक्त उत्पन्न किये जो अपनी मातृभूमि की सेवा के निमित्त हँसते-हँसते बलिवेदी पर चढ़ गये। सावरकर का प्रभाव नासिक
में इस समय इतना बढ़ गया कि उस समय के बड़े-बड़े नेता भी इसे श्रद्धा की दृष्टि से देखने लगे। सावरकर ने बड़ी-बड़ी सभाओं में व्याख्यान देना शुरू कर दिया, जनता इनके व्याख्यानों को ध्यान से सुना करती थी।
बालक सावरकर के हृदय में पूजा तथा कथा और स्तोत्र आदि पर अगाध विश्वास था एक बार कहते है कि इनकी बहिन के कान को वाली खो गई, सब तरफ ढूंढ़ ली गई पर न मिली सावरकर से पूछा तो इसने देवी का ध्यान करके बताया कि घर के अमुक आले में पड़ी है, देखा तो वही मिली। सावरकर की प्रतिभा और सूझ भी बालपन मे अनोखी थी । एक बार सावरकर ने कुछ अपराध कर दिया, इस पर पिता जी क्रुद्ध हो गये और इनको पीटने के लिये ढूँढ़ने लगे। बड़े भाई ने यह बात उन्हें बता दी। सावरकर तत्काल पास ही रखी एक लोहे की तिजोरी में घुस गये और इस प्रकार अपने पिता जी के क्रोध का लक्ष्य होने से बचे। बाद में पिता जी ने पूछा कि कहां गया था, तो उनके ठीक-ठीक कह देने पर उनकी अनोखी सूझ से पिता जी प्रसन्न हुए और उन्हे दण्ड नही दिया।