“परतें”
फोन की घंटी बजी। मां का फोन था। “हैलो मां, प्रणाम” लेकिन मां के आशीर्वाद में ही उनका सारा दर्द छलक गया।
“क्या हुआ?” जिया चिन्तित हो गई।
“गिर गई, कमर में दर्द हो रहा है”
“हां, वो तो तुमने कल शाम को बताया था”
“आज दोबारा गिर गई”
“लेकिन तुमसे कल कहा था न कि रेस्ट करो...बिना बात ज्यादा इधर-उधर मत चलो” जिया को गुस्से का उबाल व चिन्ता एक साथ हो रही थी। मां चुप हो गई। शायद कई बातें ऐसी होती हैं, जिनका उत्तर शब्दों में नहीं दिया जा सकता। दोनों तरफ सन्नाटा सा पसर गया। लेकिन मां व जिया के विचारों की श्रंखलाओं के सिरे अपनी-अपनी जगह पर काफी लंबे खिंच गए थे। जिनकी शाखाएं-प्रशाखाएं कई बिंदुओं पर जुड़ रही थीं तो कई पर टूट रही थीं।
“बहुत दर्द हो रहा है क्या?” जया सप्रयास कोमल स्वर में बोली।
“हां, बहुत..,”
“मनीष भैया को बताया?”
“कल का बताया था, कल इतना दर्द नहीं था...आज मनीष के ऑफिस जाने के बाद गिरी”
“और भाभी को?”
मां फिर चुप हो गई। जिया भी चुप हो गई। कुछ बातों के जवाब चुप्पी में ज्यादा पारदर्शी व मुखर हो जाते हैं। चुप्पी के शब्दों की मारक क्षमता इतनी तीब्र होती है कि दिल के क्या, वजूद के भी टुकड़े हजार हो जाते हैं।
“अच्छा, तुम सीधी लेटी रहो मैं कुछ करती हूं” कह कर जिया ने फोन रख दिया।
उसने मनीष को ऑफिस फोन किया। मां के दोबारा गिरने के बारे में बताया।
“ओफ्फो!” मनीष के स्वर में चिंता के बजाए एक खिन्नता थी, “अब मैं तो 5 बजे से पहले ऑफिस से नहीं निकल पाऊंगा”
भाभी का जिक्र दोनों ही नहीं कर रहे थे। एक वह भी सदस्य थीं घर की। पर उनकी उपयोगिता परिवार के लिए कितनी हो, यह वे खुद तय करती थीं।
“मैं भी नहीं निकल पाऊंगी भैया...अमित की तबीयत ठीक नहीं है..,” मनीष भी इस बात को जानता था। जिया के पति की तबीयत काफी समय से ठीक नहीं चल रही है।
“ठीक है, मैं कोशिश करता हूं....एक्सरे करवाना पड़ेगा, कहीं फ्रेक्चर न हो गया हो”
मोबाइल ऑफ कर जिया बैठी ही रह गई। मन गुस्से व क्षोब से भर रहा था, ‘कौन कहता है मां को कि जबरदस्ती उधर-उधर चलती रहें। घर में सारी सुविधाएं हैं। काम करने वाले हैं। सीमा भाभी की तटस्थता को छोड़ दें तो किसी बात की कमी नहीं है।
लेकिन कमी तो है। बाबा को गए अभी 3 साल ही हुए हैं। दबंग बाबा अपना बुढ़ापा...अपनी दबंगता, आर्थिक सक्षमता व पत्नी की सहभागिता के कारण, संपूर्ण बिता कर चले गए। लेकिन बाबा के राजपाट की साम्राज्ञी 82 साल की मां का कष्ट वास्तव में वृद्वावस्था के प्रति मनन चिंतन करने को विवश कर देता है।
पति के जाने के बाद तन-मन, दिल-दिमाग व अपने कमरे में शून्यता का पसर जाना उन्हें कमजोर कर रहा है। बिस्तर पर बगल में बैठे या लेटे पति की बूढ़ी व रुग्ण काया भी उन्हें सुरक्षा का अहसास दिलाती थी। घर में उनके अधिकारों के प्रति आश्वस्त करती थी। बेटे-बहू उनके साथ रह रहे हैं, वे बेटे-बहू के साथ नहीं, खामोशी से यह जतला देती थी। खाना तो तब भी महाराजिन बनाती थी। काम तब भी नौकर चाकर ही करते थे। लेकिन अंदर से लेकर बाहर तक फैला उनका एकछत्र अधिकार उन्हें कई व्याधियों से बचाता था।
पति के जाते ही घर का भूगोल बदल गया व साथ ही ‘सोल‘ भी, और उस ‘सोल‘ में समाहित उनका व्यक्तित्व भी...।
“मां, चायपत्ती चीनी के डिब्बे कहां गए?” बाबा के जाने के बाद उस दिन वह किचन में चाय बना रही थी। खौलते पानी में चायपत्ती चीनी डालने के लिए आदतन डिब्बों की तरफ बढ़े हाथ हवा में लहरा कर रह गए। उसने निगाह उठा कर देखा तो किचन का पूरा नक्शा ही बदल गया था।
“इधर रखे हैं” मां उसे डिब्बे दिखाती हुई बोलीं। उसने मां के चेहरे की तरफ देखा, कई परतों की सीवन हल्की सी उधड़ गई थी।
“अरे वाह, नए डिब्बे....कितने प्यारे हैं, सीमा भाभी लाई होंगी....किचन भी नए सिरे से सजा दिया” वह मां के चेहरे की उधड़ी परतों पर कच्ची सिलाई करने का प्रयास करती हुई बोली।
चायपत्ती चीनी खौलते पानी में डालते, दिल के अंदर भी कुछ खौल गया। आंखों में नमी उतर आई। न जाने खौलते पानी के भाप की या फिर सोच की।
“चलो मां आराम से बैठ कर चाय पीते हैं” वह ट्रे उठाती हुई बोली। ऐसा नहीं है कि इस परिवर्तन से कोई गिला है उसे या मां को। पर यह घर पहले भी तो सीमा भाभी का था। कईयों बार यह जताने का, बताने का प्रयत्न सबकी तरफ से किया गया पर उन्होंने इसे कभी अपना समझा ही नहीं। ऑफिस से आकर अपनी चाय बनाई और फर्स्ट फ्लोर के अपने कमरे में बंद हो गई। कई बार मां-बाबा और सीमा भाभी की चाय एक साथ अगल-बगल गैस के अलग-अलग चूल्हों पर बनती थी। महाराजिन खाना बनाती तो घर के तीन सदस्यों का। सीमा भाभी अपना, पका खा कर 7 बजे ही ऊपर अपने कमरे में समा जाती। बच्चे छुट्टी आते तब भी उनका यही रुटीन रहता। बच्चों की मर्जी कि वे उनके साथ खाएं या सबके साथ।
सीमा भाभी की बातें सुन कर उसे आश्चर्य होता कि कैसे कोई इंसान सबके बीच रह कर इतना अलग-थलग रह सकता है। वे घर की किसी भी समस्या से अस्पृश्य रहतीं। उन्हें अपनी नौकरी, अपने बच्चों व अपने मायके से मतलब था। लेकिन खराब की परिभाषा के अंतर्गत उन्हें परिभाषित करना भी मुश्किल था। क्योंकि उन्होंने भैया को कभी नहीं रोका, घर परिवार के लिए कुछ करने से या फिर भैया पर उनकी चली नहीं। यह भी उन दोनों के रिश्ते के बाहरी परत के अंदर दबा रहता था। कभी उजागर नहीं हुआ। फिर बाबा ने अपने पराए किसी रिश्तेदार को सीमा भाभी के खिलाफ कभी कुछ उगलने नहीं दिया। जिया भी मां को जबतब समझाती रहती, ‘बहू तुम्हारी है मां...उससे खुशी मिले या गम, तुम्हें सहना है...फिर तुम्हारे बेटे की जिंदगी है. जो शब्द तुम अपनी बहू के लिए बोलोगी, वह सास होने के नाते ब्रह्मवाक्य बन जाएंगे। मैं जानती हूं, अच्छा नहीं बोला जाएगा...पर बुरा बोल कर अपना तमाशा मत बनाना कभी भी‘
मां ने उसकी बात गांठ बांध ली। “तेरे बाबा के जाने के बाद तेरहवीं तक कितनी मीठी बात करती रही सबके सामने” चाय पीते हुए उस दिन मां के मन की किसी परत की सीवन फिर उधड़ गई थी।
“तुम ध्यान मत दिया करो मां...वो तो पहले भी ऐसी ही थीं. घर तुम्हारा है, बेटा तुम्हारा ध्यान रखता है...मैं भी लोकल रहती हूं। रुपए पैसे का इंतजाम बाबा तुम्हारे लिए काफी कर गए हैं....इसलिए एक कमी के बजाए चार खूबियों में मन लगाया करो” जिया ने उधड़ी परत की फिर मरम्मत कर दी।
पर बाबा के जाने के बाद, तेरहवीं तक के दृश्य उसके सामने भी साकार हो उठे। सीमा भाभी की तटस्थता ने उसका दिल भी न जाने कितनी बार तोड़ा था। मनीष भैया के सामने या सार्वजनिक रूप से उनका व्यवहार बदल जाता लेकिन अकेले में किसी का तिरस्कार करने के लिए उन्हें शब्दों की भी जरूरत कब पड़ती थी। वह सब तो वे अपनी आंखों व तटस्थ मुखमुद्रा से ही कर देतीं।
प्रणाम भी ऐसे लेती जैसे चाबुक मार रही हों। वह सहम सी जाती। भला इन बातों को कोई शब्दों में पिरो कर व्याख्या करेगा तो शब्द तो कहने वाले के ही होंगे न. फिर सच्चाई का प्रमाण कहां से लाएंगे। बाबा के जाने के बाद सीमा भाभी का मां पर बिखरता छलकता प्यार देखकर पूरी रिश्तेदारी प्रभावित हो गयी। ‘बहू हो तो ऐसी, कैसे संभाल लिया सब कुछ...‘ वह खुद अंदर तक पिघल गई थी। साथ ही निश्चिन्त हो गई। चलो मां का बुढ़ापा चैन से कट जाएगा।
लेकिन तेरहवीं खत्म होते ही मीठी मुस्कान, मीठी बातें सब ऐसे गायब हुई जैसे कभी थी ही नहीं। एक दिन मां को मिलने को गई थी. वह जब घर लौटने को हुई तो बाहर बूंदा-बांदी शुरू हो गई। टेबल पर लंच लग रहा था। भैया बोले,
“जिया लंच कर के जाओ, वैसे भी बाहर बारिश शुरू हो गई है”
“ऐसी भी बारिश नहीं हो रही है....जब तक तेज होगी, तब तक घर पहुंच जाएंगी” सीमा भाभी के शब्द उसके कानों में पिघले शीशे की तरह उतर गए।
“नहीं भैया चलती हूं...10 मिनट का ही तो रास्ता है” कह कर वह घर से बाहर निकल गई। लेकिन आंखें छलकने को व्याकुल हो रही थी। उसे अपनी चिंता नहीं थी। पर मां का अशक्त बुढ़ापा एकाएक आंखों के सामने तैर गया। मनीष भैया का एक बेटे का स्वाभिमान मां को उसके पास रहने नहीं देगा और सीमा भाभी की चालाकियों के साथ मां कैसे जी पाएंगी। जिनकी बातों को नकारना मुश्किल हो जाता है, लेकिन फांस की तरह अंदर तक धंस जाती हैं।
आर्थिक संपन्नता की कमी नहीं थी मां को पर अशक्त बुढ़ापा अगर आर्थिक संपन्नता के साथ बीत पाता तो शानदार फ्लैट्स में बंद बुजुर्गों की लाशें नहीं मिलती। बड़े घरों में नौकर बुजुर्गों की हत्या नहीं करते। फाइव स्टार वृद्वाश्रम न खुलते। अशक्त बुढ़ापे को भावनात्मक संपन्नता की जरूरत होती है। जो एक पल उन्हें उनकी सुरक्षा व भले के लिए डांटे तो दूसरे ही पल उन्हें गले लगा कर बच्चों की तरह पुचकार लें। उनके अंदर विश्वास का सागर भर दें।
चाय पीते हुए जिया मां के दिल की परतों की मरम्मत करती हुई खुद उधड़ी चली जा रही थी। ‘सीमा भाभी की तटस्थता को छोड़ दो मां...उनकी कठोरता पर ध्यान मत दो‘ यह वाक्य वह कई बार दोहराती। बाबा भी बार-बार यही समझाते थे। पर जिनकी भाव-भंगिमाएं, भृकुटियां उसे थोड़ी देर में ही आतंकित कर दिनों के लिए सोच व अपमान के दलदल में धंसा देती। मां के लिए यह क्या संभव था।
“दो चार तोरी और लौकी किसी को देने में ही हल्ला मचा देती है....वर्षों सब्जियां बांटी हैं, मेरा घर नहीं है क्या?” मां फिर उधड़ गई।
उच्चशिक्षित, उच्चपदस्त सीमा भाभी की निम्न स्तर की सोच पर वह मन ही मन ऐसे शर्मिंदा हो गई, जैसे यह उसकी खुद की सोच हो। लेकिन मां को और उधेड़ना उसे उचित नहीं लग रहा था। इसलिए बात टाल दी। घर में स्थाई तौर पर रहने वाली मेड सरिता से पूछा तो पता चला कि किचन गार्डन से मां ने थोड़ी सी तोरी और लौकी सरिता से निकलवा कर घर मिलने आयी अपनी छोटी बहन को दे दी थी।
दिल खराब हो गया जिया का। मां इस सबकी मालकिन है अभी। सीमा भाभी की सोच छोटी सही पर इस छोटी सी बात को भैया से कह कर कलह कोई नहीं करना चाहेगा और सीमा भाभी की ये कारगुजारियां, चालाकियां जो मां के लिए बेहद अपमानजनक व मानसिक तौर पर पीड़ादायक होती हैं, कभी भैया के सामने नहीं आ पातीं हैं। लेकिन सार्वजनिक रूप से सीमा भाभी का व्यवहार जब इस कदर बदल जाता है तो भैया से वे क्या कुछ नहीं कहती होंगी।
एक बार मनीष भैया को अपनी नौकरी से विदेश जाने की संभावना बन रही थी तो चाचाजी बोले थे।
“बहुत बढ़िया मौका है....पर सीमा को तो अपनी जॉब छोड़नी पड़ेगी”
“मैं कहां जा पाऊंगी चाचाजी....बुर्जुगों की जिम्मेदारी है मेरे ऊपर” वह मतिभ्रम की सी स्थिति में सीमा भाभी का चेहरा देखती रह गयी थी। काश कोई चांदी के वर्क में लिपटी कुनैन को देख पाता।
बाबा की जिंदगी तक एक सुरक्षात्मक छत थी मां के ऊपर...जो अब उड़ गई थी और सीमा भाभी का मुंह खुल गया था। शांति प्रिय भैया कभी मां का पक्ष लेकर बीवी को समझाते तो कभी बीवी का पक्ष लेकर मां को।
सीमा भाभी को मां के लिए एक कप चाय बनाने में भी कष्ट है। एक पैसा भी मां पर उनका खर्च नहीं होता है। फिर भी वे मां की उपस्थिति बर्दाश्त नहीं कर पातीं हैं। लेकिन बाबा की करोड़ों की प्रापर्टी से उन्हें कोई परहेज नहीं है।
शाम को मनीष भैया मां का एक्सरे करवा लाए। फ्रेक्चर नहीं था। मांसपेशियों की चोट थी। जान कर मनीष भैया व उसे दोनों को चैन मिला। उसने मां को फोन करके लेटे रह कर आराम करने की सलाह दी।
“मैं तेरे पास आ जाऊं कुछ दिनों के लिए?” मां का करुण स्वर दिल में उतर गया।
“मां ठीक तो हो जाओ पहले....ऐसी हालत में भैया तुम्हें आने नहीं देंगे। फिर अमित की तबीयत भी तो ठीक नहीं रहती है, मैं दो दो को कैसे संभालूंगी”
मां अनिच्छा से चुप हो गई। जिया जानती थी, मां उसके पास क्यों आना चाहती है। सारे दिन कमरे में अकेले लेटे रहेंगी। मनीष भैया शाम व सुबह को जाकर हालचाल ले लेंगे। सीमा भाभी झांकेगी भी नहीं। सरिता से भी मां का ज्यादा बातें करना सीमा भाभी को पसंद नहीं। पता नहीं क्या-क्या कह कर भैया को भड़का देती हैं। फिर भैया मां को नौकरों के साथ बातें करने को मना कर देते हैं। मां बार-बार उसके पास आने की बात करने लगती है।
मां का उसके पास ज्यादा रहना भैया को गवारा नहीं होता। क्योंकि यह बात उनकी सामाजिक छवि खराब करती है। लोग या रिश्तेदार क्या कहेंगे कि बेटे-बहू के पास मन नहीं लगता इसलिए बेटी के पास ज्यादा रहतीं हैं। मां भी इस बात से मन ही मन आंतकित रहती है कि कहीं मनीष बुरा न मान जाए। उसे तो लगता है, सीमा भाभी को भी अपनी सामाजिक छवि की चिंता रहती है। उनको खुद तो मां के लिए कुछ करना नहीं पड़ता है इसलिए वे भी चाहती है कि मां अपने ही घर पर रहें।
फलस्वरूप मां बेहद अकेली हो जाती है। मां की मन स्थिति जिया अच्छी तरह जानती है। लेकिन चाहते हुए भी न कुछ बोल पाती है और न मनीष भैया को कुछ समझा पाती है। एक डर भी रहता है कि उसके कुछ बोलने से स्थिति और न बिगड़ जाए। कहीं मां के अकेलेपन के बारे में बात करने पर मां और भी अकेली न हो जाए।
अगले दिन जिया मां को देखने चली गई। मां अपने कमरे में आंखें मूंदे अकेली लेटी थी। वह मां के पास बैठी तो मां ने आंखे खोल दी।
“अरे तू...कब आई?” मां की उदास अकेली सूनी सी आंखों में असंख्य दीप जल उठे थे। वे उठने का उपक्रम करने लगीं।
“मां तुम लेटी रहो” जिया ने मां को वापस लिटा दिया, “दरवाजा पूरा खुला था...सरिता भी नहीं दिखी मुझे, आज भाभी घर पर है क्या?” मैं बोली।
“नहीं, दोनों गांव गए हैं...सुबह 5 बजे निकल गए थे...रात तक आ जाएंगे” मां के स्वर में अभी भी दर्द की कराहट थी।
“लेकिन तुम्हें इस हालत में किसके भरोसे छोड़ गए?” जिया आश्चर्य से बोली।
“सरिता के”
“लेकिन?” उसे समझ नहीं आया, क्या कहे। वह तो बाइचांस आ गयी थी। अमित को थोड़ी देर के लिए छोड़ कर। अगर बाथरूम जाते समय मां फिर गिर जाए तो कौन है यहां पर उन्हें देखने वाला। भैया ने उसे फोन करना भी उचित नहीं समझा।
“लेकिन गांव गए किसलिए हैं?” वह आश्चर्य से बोली। इससे पहले पिताजी ने कई बार चाहा था कि उनके बेटे-बहू कभी गांव जाकर वहां की देखरेख कर लिया करें। गांव में एक मकान व जमीन जायदाद थी अभी। लेकिन दोनों में से किसी ने कभी ध्यान नहीं दिया और आज गांव जाना इतना जरूरी हो गया कि सीमा भाभी भी चली गयीं और भैया मां को इस हालत में छोड़ कर चले गए।
लेकिन जिया खुद को गांव जाने की बात न बताने का कारण जैसे समझ रही थी। ‘कहीं पुरखों की संपत्ति पर जिया अपना अधिकार न मांग बैठे‘। सीमा भाभी की सोच से उसे कोई लेना देना नहीं पर भैया को तो उसकी नीयत पर भरोसा होना चाहिए था। लेकिन गांव की जमीन जायदाद में मनीष भैया का रुचि लेना तो वह समझ सकती थी पर घर की हर खुशी और गम से अस्पृश्य भाभी का जाना जहां उसे हैरान कर रहा था वहीं हल्का सा सुकून भी दे रहा था। चलो भैया के साथ तो खड़ी हो कर रहेंगी।
“अपनी नौकरी छोड़ कर गांव में कुछ काम करना चाहती है” एकाएक मां बोलने लगीं, “गांव की महिलाओं के साथ मिल कर। इसलिए सोच रही है कि गांव का घर ठीक करा ले और गांव के वरिष्ठ लोगों से, खास कर प्रधान से अपनी जान-पहचान अच्छी कर ले। जिससे उसे अपने काम में मदद मिल सके। रसीले फलों के लिए वहां का मौसम बहुत अच्छा है, इसलिए वहां रसीले फल बहुतायत में होते हैं। शायद उसी को लेकर कुछ काम करना चाह रही है। मनीष से कहते हुए सुना था कि अदरख भी खूब होती है वहां। किसी के साथ मिल कर काफी बड़ा कुछ करने का सोच रही है मुझे समझ नहीं आया”
“दोनों कल रात मेरे पास आए थे, जो कुछ बता रहे थे मेरी ज्यादा समझ नहीं पायी। कह रहे थे, बाबा के नाम से शुरू करेंगे....इसलिए बाबा की जमापूंजी की जरूरत पड़ेगी”
जिया हतप्रभ रह गई। मनीष भैया, भाभी के प्रभाव में आकर चाहे कुछ भी कर लें पर मां की देखभाल को लेकर उसे उनकी मनसा पर जरा भी शक नहीं रहता। पर सीमा भाभी जिस तरह से उनका कभी-कभी ब्रेनवॉश कर देती है। पता नहीं क्या इरादा है उनका अब। कहीं मां की जमा पूंजी बाबा के नाम पर भाभी ने मां और भैया को बहला फुसला कर निकलवा ली तो भावनात्मक व मानसिक स्तर पर अकेलापन भोग रही मां कहीं आर्थिक रूप से अकेली न पड़ जाय। भैया भले ही उनके लिए सबकुछ करेंगे पर दबदबा भाभी का ही रहेगा। अभी जब मां अपने दम पर रह रही है तब भाभी उनसे बात तक नहीं करतीं हैं। मतलब नहीं रखतीं हैं, फिर जब आर्थिक रूप से भैया पर निर्भर हो जाएंगी, तब का नजारा क्या होगा। सोच कर ही जिया को सिहरन सी महसूस हुई।
घर और शहर की बाकि संपत्ति भले ही अभी मां के नाम है। पर 82 साल की मां इसका उपयोग तो नहीं कर सकती न। न ही किसी अन्याय के प्रतिकार स्वरूप अपने बच्चों को घर से बाहर निकाल सकती है। जिया जानती थी, तब मां कुछ और उधड़ेगी...बार-बार उधड़ेगी और उसे लगातार मरम्मत करते रहना पड़ेगा। ताकि मां की आगे की जिंदगी कुछ ठीकठाक निकल सके। क्योंकि कर तो वह भी कुछ नहीं पाएगी।
“मां तुम अपना पैसा मत देना...बाबा के नाम पर काम शुरू करना चाहती हैं तो वे खुद कर लें, बाबा का जो कुछ भी तुम्हारे बाद बचेगा, उन्हीं का ही तो होगा...फिर अभी क्यों दे रही हो” उसने मां को समझाने की एक कमजोर सी कोशिश की।
मां ने एक मजबूर खामोश सी दृष्टि उस पर डाली। वह महसूस कर गई उन खामोश निगाहों की मुखर भाषा को। क्योंकि मौन में कुछ प्रश्नों के जवाब बहुत पारदर्शी व स्पष्ट हो जाते हैं। मां और वह चुप थे पर उनके विचारों के श्रंखलाओं के सिरे अपनी-अपनी जगह पर शाखाओं-प्रशाखाओं में खिंच कर एक दूसरे से टूट और जुड़े चले जा रहे थे।
लेखिका-सुधा जुगरान