VISTAAR SAPNON KA in Hindi Moral Stories by Aman Kumar books and stories PDF | विस्तार सपनों का

Featured Books
Categories
Share

विस्तार सपनों का

अमन कुमार त्यागी

कभी-कभी परिस्थितियाँ इतनी भयावह हो जाती हैं। आदमी सोचता कुछ है, करता कुछ है और हो कुछ जाता है। जीवन भर योजना बनाता है मगर अंतिम समय में किसी रेतीली दीवार सा भरभराकर गिर जाता है। आसमान सी बुलंदियों को छूने की चाह रखने वाला उस समय असमंजस की स्थिति में होता है, जब ज़मीन उसके पैरों से खिसक चुकी होती है। सबको साथ लेकर चलने वाला एकाएक अकेला रह जाता है। कुछ यही हाल हुआ श्रीधर का।
श्रीधर के सपने जितने बड़े थे उससे अधिक उसमें काम करने की क्षमता थी। वह अकेले दम पर दुनिया फतह कर लेने की चाह पाले हुए था, मगर ज्यों-ज्यों समय बीतता गया उसकी कार्यक्षमता घटती गई और सपने ऊंचे होते गए। उसकी स्थिति प्लेटफार्म पर दौड़ते उस यात्री जैसी हो गई जो दौड़कर ट्रेन के डिब्ब में चढ़ जाना चाहता है। दौड़ते-दौड़ते सोचता है, बस किसी तरह डाला हाथ में आ जाए। थकन के कारण उसके पाँव जवाब देने लगते हैं। उनकी गति कम होने लगती है और ट्रेन की गति निरंतर बढ़ती जाती है। आख़िर...कृ
...आख़िर ट्रेन उससे दूर होती जाती है। वह प्लेटफार्म पर खड़ा है अपनी सांसों को व्यवस्थित करता है और एक सीट पर बैठकर बड़बड़ाता है, ‘जाने दो... पता नहीं क्या बेहतरी है?’ ट्रेन उससे छूट जाती है, वह थककर बैठ जाता है परंतु निराश नहीं होता। दूसरी ट्रेन का इंतजार करने के लिए वह प्लेटफार्म पर खाली नहीं बैठा रहता। वह अन्य कोई ज़रूरी काम निपटाता है और फिर शान के साथ दूसरी ट्रेन की सवारी करता है मगर इस बार ऐसा नहीं हुआ... उसके हाथ से जो निकल रहा था वह पुनः नहीं आने वाला था। वह अपने आप को धराशाई होते देख रहा था। उसके सपने बिखर रहे थे। वह अपने द्वारा लगाई गई बगीची को उजड़ते देख रहा था।
उसकी पत्नी ने हिम्मत कर पूछ ही लिया- ‘अब क्या होगा जी?’
श्रीधर ने पलंग से उठने का उपक्रम किया, बाए पाँव में चप्पल पहने और कराहती सी आवाज़ में कहा-‘जो होना था हो चुका।’
-‘मुझे तो बहुत डर लग रहा है जी, दुनिया क्या कहेगी?’ पत्नी का सवाल पूरा होने तक वह खड़ा हो चुका था और उसका जवाब देने से पहले ही उसका सर चकराया, वह किसी कटे पेड़ सा गिर पड़ा। उसकी पत्नी घबरा गई। वह फुर्ती से उठी। उसने श्रीधर के सर को सहलाया और घबराते हुए पूछा-‘क्या हुआ जी?’
कुछ नहीं, बस सर चकरा गया है, लगता है कमज़ोरी आ गई है शरीर में, और फिर उस गिरने से तो यह गिरना अच्छा है। श्रीधर के मुँह से अनायास ही निकला था।
‘अपने आपको संभालो जी! आपके सिवा मेरा इस दुनिया में है ही कौन?’ श्रीधर की पत्नी की आँखों से निरंतर आँसू बह रहे थे। मगर श्रीधर था कि उसकी आँखें सूख चुकी थीं। मानो अकाल पड़ गया हो, वह बेचैन इतना था कि समझ ही नहीं पा रहा था क्या करे?’
उसकी पत्नी ने उसे ठीक से पलंग पर लिटाया। पीने के लिए पानी दिया और फिर उसी के पास बैठती हुई बोली-‘सब कुछ ख़त्म हो गया, ये दिन देखने भी रह गए थे।’
श्रीधर अपनी पत्नी के चेहरे को देख रहा था। वह उसे तो समझ रही थी परंतु सवालों का पहाड़ उसके अंदर सीना ताने खड़ा था, जो सागर को मथ रहा था और इस बार के सागरमंथन में विष निकल आया था। इस विष को पीने के लिए श्रीधर को ही शंकर बनना था।
पलंग पर पड़ा उसका शरीर शिथिल होता जा रहा था। मगर मस्तिष्क था कि उन सभी सवालों का जवाब तलाशने में किसी सर्च इंजन सा काम कर रहा था। श्रीधर ने बड़ी ही साफ़-सुथरी जिंदगी जी है। उसने कुछ भी छिपाया नहीं है, वह सि(ांतों पर चलने वाला साहसी व्यक्ति है... मगर अब जो उसके साथ हुआ वह उससे उबर नहीं पा रहा है। वह कमज़ोर नहीं है, वह लड़ सकता है... मगर किसके साथ? यह सवाल अनसुलझा है... इस बार उसकी लड़ाई स्वयं उसी के साथ है। वह अपने आप को हराना नहीं चाहता है... और अपने आप से जीतना उसके बस में नहीं रहा।
वह सोच रहा था उन हरे-भरे वृक्षों के बारे में जो लहलहाते हुए बेहद आकर्षक लगते हैं। जिन्हें मंद-मंद बहती शीतल बयार का स्रोत मान लिया जाता है... मगर जब यही वृक्ष किसी भयानक आँधी की चपेट में आकर झूमने लगते हैं तब उनका रखवाला उनके टूटकर गिर जाने की चिंता तो करता है किंतु उनसे दूर खड़ा रहकर... और फिर एकाएक जब वह वृक्ष चरर-मरर की आवाज़ के साथ धराशाई होते हैं, तो वह स्थिति बड़ी ही पीड़ादायक होती है... अवशेषों को ऐसे उठाया जाता है मानो किसी की अर्थी को उठाया जा रहा हो।
किसी की अर्थी को उठाना या फिर हरे-भरे वृक्षों के उखड़ जाने पर उन्हें उठाना फिर भी सरल है... मगर अपने ही विचारों, सपनों और इच्छाशक्ति की अर्थी को उठाना मानव मस्तिष्क के लिए बेहद कठिन है। आज श्रीधर को अपनी ही सोचों की अर्थी उठानी पड़ रही थी।
उसे आम का वह वृक्ष याद आ रहा था जिसके फल अक्सर पड़ोसी के खेत में गिर जाते थे। वृक्ष पर भरपूर फल आते थे, श्रीधर ने उस वृक्ष को जी जान से पोषित किया था। इन फलों के कारण आए दिन पड़ोसी से झगड़ा रहने लगा... विवाद से बचने के लिए श्रीधर ने पड़ोसी के खेत में गिरे फलों को उठाना छोड़ दिया। कुछ ही सालों में हरा-भरा आम का वह वृक्ष काला पड़ने लगा और देखते ही देखते उसकी हरियाली गायब हो गई। वह पूरी तरह सूख चुका था, बाद में उस वृक्ष को कटवाना पड़ा। मगर श्रीधर इस वृक्ष को कैसे कटवा दे जिसे उसने अपने लहू से सिंचित किया था, जिसके लिए उसने रात दिन एक कर दिए थे। कैसे उठाए अपने ही संस्कारों की अर्थी? कैसे दफ़न कर दे स्वयं की ही देह को?
श्रीधर अपराधी नहीं था... मगर वह अपराधी हो जाना चाहता था। वह कभी निराश नहीं हुआ था... मगर अब अपने ही लहू का कत्ल करने के विकल्प में वह आत्महत्या के पक्ष को भी जानता था और हत्या के पाप को भी। वह स्वतंत्रता और स्वच्छंदता के भेद को भी जानता था, तभी तो वह एक ही दिन में बार-बार मर रहा था।
आज वह अपने ही विचारों का मूल्यांकन भी कर रहा था। दुनिया के तमाम आरोपों-प्रत्यारोपों से बचने के लिए उसने एकांतवास चुना था। वह कम बोलता था और अपने काम से काम रखता था। किसी के भी दुःख दर्द में काम आने को वह अपना परमकर्तव्य मानता था। ज़रूरतें इतनी कि बस जीवन चलता रहे, सपने इतने कि सदैव दूसरों के काम आता रहे। स्वास्थ्य इतना कि काम करता रहे और बीमार इतना कि भगवान का नाम न भूल जाए।
श्रीधर ने दो घूँट पानी पिया और पलंग पर पुनः लेट गया। उसने उंगलियों से आँखों की कोरों को साफ़ किया मगर फिर भी धुँधला दिखाई दे रहा था। फोम का गद्दा भी उसे भीष्म शैया-लग रहा था।
‘सब कुछ ख़त्म हो गया।’ श्रीधर ने यह बात भी जैसे ताक़त लगाकर कही हो। ठीक उसी अंदाज़ में जैसे भीष्म पितामह अपनी आँखों के सामने सब कुछ बरबाद होता देखते रहे। सब छल-कपट से वाबस्ता होने के बावजूद वह कोई भी निर्णय लेने की स्थिति में नहीं थे। वही हाल आज श्रीधर का था। उसकी आँखों के सामने उसकी दुनिया उजड़ गई थी।
-‘ऐसे घबराने से काम नहीं चलेगा और फिर जीवन भी तो यहीं समाप्त नहीं हो जाना।’ श्रीधर की पत्नी ने उसे समझाने का प्रयास किया।
-‘हाँ सही कहती हो। जिसकी डोली सजाने के लिए जीवनभर उद्योग करता रहा अब उसी को डोली की ज़रूरत नहीं रही।’ श्रीधर के मुख से निकला और वह मानव बीज सा संकुचित होता चला गया।
-‘क्या यह स्वार्थ नहीं है? आप तो इतने स्वार्थी न थे छोड़कर जाने वाले का आपने पहले कभी दुःख नहीं किया।’ श्रीधर की पत्नी ने कहा तो श्रीधर ने अपने सीने पर रखा हाथ उठाकर आँखों पर रखा और जब उसने हाथ हटाया तो उसकी आँखों में आशा की किरण थी। अब उसे लग रहा था कि वह वास्तव में सूक्ष्म होता जा रहा है। उसे इतना सूक्ष्म नहीं होना चाहिए। उसकी आँखों की चमक बता रही थी कि वह मानव बीज की तरह पुनः विस्तार चाहता है। विस्तार सपनों का, इच्छाओं का और अपने दायित्वों का।
श्रीधर अपना मन पक्का कर कह उठता है- ‘कोई बात नहीं, जिसे जाना था था वह चला गया। बात इतनी सी है कि उसने विदाई नहीं ली।’