Geeta se Shree Krushn ke 555 Jivan Sutra - 62 in Hindi Motivational Stories by Dr Yogendra Kumar Pandey books and stories PDF | गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 62

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गीता से श्री कृष्ण के 555 जीवन सूत्र - भाग 62

भाग 61 जीवन सूत्र 68 कर्मों से बंधे हैं भगवान भी


गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है:-


न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किञ्चन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।(3/22)।


इसका अर्थ है-हे अर्जुन ! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है,तो भी मैं कर्म में ही बरतता हूँ ।

भगवान कृष्ण भगवान विष्णु के अवतार हैं।वे मथुरा नरेश महाराज उग्रसेन के परिवार के हैं। प्रमुख सभासद वासुदेव जी के पुत्र हैं। द्वारिकाधीश हैं, तथापि आवश्यकतानुसार उन्होंने अपनी विभिन्न लीलाओं के माध्यम से यह बताने की कोशिश की,कि हर व्यक्ति को कर्म करना चाहिए और कोई भी कर्म छोटा या बड़ा नहीं है।गोकुल गांव अपने बाल्यकाल में उन्होंने गाय चराने से लेकर अपनी माता यशोदा और नंद बाबा की सहायता के लिए अनेक कार्य किए। भगवान कृष्ण का भावी जीवन तो जैसे कर्मों की एक सतत श्रृंखला है।द्वारिकाधीश के रूप में उन्होंने इस नवगठित राज्य के लिए अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया।

हस्तिनापुर की राजनीति में उन्होंने कभी सीधे दखल नहीं दिया लेकिन सत्य,धर्म और न्याय की रक्षा के लिए उन्होंने हमेशा पांडवों की सहायता की।मगध नरेश जरासंध की पराजय हो या स्यमंतक मणि की चोरी का प्रसंग हो या फिर अंतिम युद्ध में दुर्योधन के वध के लिए अर्जुन को दिया गया रणनीतिक रूप से सर्वाधिक महत्वपूर्ण परामर्श हो, भगवान कृष्ण ने हर कहीं अपने कर्मों को वरीयता दी और आवश्यकता होने पर उन्होंने 'शठे शाठ्यम समाचरेत्' की नीति को भी अपनाया।कुरुक्षेत्र के मैदान में तो उन्होंने महाभारत युद्ध से पूर्व हथियार रख चुके अर्जुन को युद्ध और अपने कर्म में प्रवृत्त कर एक नया आदर्श प्रस्तुत किया।

संपूर्ण ऐश्वर्य और अभीष्ट की प्राप्ति के बाद कृष्ण चाहते तो अपने राज्य और अपने राजमहल में सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकते थे, लेकिन उन्होंने कर्म को प्राथमिकता दी।इसीलिए उन्होंने युद्ध में अर्जुन का सारथी तक बनाना स्वीकार किया।यह थी कर्म के प्रति उनकी निष्ठा। सामान्य मनुष्य को भी अपने जीवन में कर्म के प्रति कभी भी उदासीनता या आलस्य नहीं बरतना चाहिए,क्योंकि जहां कर्म है,वहां गति है, वहां जीवन है, वहां प्रवाह है और वहां आनंद है।ऐसा कर्मयोगी जीवन में कष्टों और विपरीतताओं की स्थिति में भी पराजित मनोबल वाला नहीं होता और सतत कर्म कर आगे बढ़ता है।


अर्जुन के समक्ष श्री कृष्ण की यह घोषणा हमारे जीवन में कर्म के महत्व को प्रतिपादित करती है। कल के आलेख में हमने नेतृत्वकर्ता के गुणों पर चर्चा की थी। वास्तव में नेतृत्व करने वाले व्यक्ति का कार्य केवल केवल योजना बनाना,निर्देश और सूचनाएं जारी करना नहीं होता,बल्कि आवश्यकता के अनुसार स्वयं अपने मातहतों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर किसी अभीष्ट दायित्व को पूर्ण करने का भी होता है।

एक छोटा सा उदाहरण खेल के मैदान से ही लें।अगर क्रिकेट की टीम का कप्तान मैदान में न उतरे और बाउंड्री लाइन के बाहर से ही सूचनाएं, आदेश और निर्देश जारी करे; तो न तो उसकी टीम अच्छे से खेल पाएगी, न जीत पाएगी। वास्तव में एक सफल कप्तान मैदान पर उतरकर न सिर्फ क्षेत्ररक्षण संचालित करता है, बल्कि परिस्थितियों के अनुसार बैटिंग और बॉलिंग के क्रम में परिवर्तन करता है;उनकी आवश्यकता अनुसार स्वयं नाइटवॉचमैन अर्थात विकेट जल्दी गिर जाने पर अपना बैटिंग ऑर्डर बदलकर ऊपरी क्रम पर खेलने के लिए आए संकट मोचन से लेकर ऑलराउंडर अर्थात बैटिंग,बॉलिंग फील्डिंग;हर तरह के कार्य में स्वयं को उतार देता है।

पौराणिक ग्रंथों और मान्यताओं के अनुसार भगवान विष्णु ने स्वयं परिस्थितियों के अनुसार धरती पर अवतार लिए और स्वयं के लिए निर्धारित दायित्वों को पूरा किया। धरती पर महामानव के रूप में जन्म लेने के बाद भी उन्होंने एक ग्वाले से लेकर कंस का वध करने वाले महान योद्धा,द्वारका - सर्जक,पांडवों के मुख्य परामर्शदाता से लेकर कुरुक्षेत्र के मैदान में एक बड़े दार्शनिक और प्रभावी उपदेशक की भूमिका निभाई।यह सब करने की उन्हें क्या आवश्यकता थी? दुनिया की ऐसी कौन सी चीज थी, जो उन्हें प्राप्त न थी या प्राप्त न हो सकती थी?वास्तव में वे इस संसार में अपनी भूमिका निभा रहे थे और कर्म का संदेश दे रहे थे।


डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय