जसीडीहमें दो बार भगवान् श्रीविष्णुके साक्षात् दर्शनभाईजीकी परीक्षा भी हो गयी थी एवं साधना भी पूर्ण परिपक्व हो गयी थी। सचमुच इनके तन-मन- प्राण भगवान्की रूप-माधुरीके दर्शनके लिये छटपटा रहे थे। न दिनमें चैन था, न रातमें नींद। अजीव-सी आकुलता हृदय और आँखोंमें छायी हुई थी। भक्तके हृदयकी आकुलता भगवान्के हृदयमें प्रतिविम्बित हो जाती है और वे अपने प्राकट्यकी भूमिकाका निर्माण कर देते हैं। भाईजी अपने गुरु रूपमें श्रीसेठजीको ही
मानते थे, अतः यह कार्य भगवान्ने उनके माध्यमसे ही पूर्ण किया। श्रीसेठजीने अवसर देखकर इन्हें तार देकर अपने पास जसीडीह बुलाया। तार मिलनेकी देर थी, उसी दिन सायंकाल ये श्रीघनश्यामदासजी जालानके साथ गोरखपुरसे रवाना हो गये।
अब आगे जो घटना घटी, वह आध्यात्म-जगत्की एक सुदुर्लभ घटना थी। जहाँ भी भगवान्के साक्षात् दर्शन होते हैं, साधककी परिपक्वावस्था में और एकान्तमें प्रायः होते हैं, पर भाईजीको साक्षात् दर्शन पन्द्रह-बीस महानुभावोंकी उपस्थितिमें होना एक अनहोनी बात है, जिसका रहस्य श्रीसेठजीने ही आगे चलकर खोला। अब आगेकी घटना श्रीघनश्यामजी जालान द्वारा मारवाड़ी भाषामें लिखित और भाईजी द्वारा संशोधित किये हुए कागजके मुख्य अंशको हिन्दीमें रूपान्तर करके दिया जा रहा है।
........................... पहली घटनाा .......................
।। ॐ श्रीपरमात्मने नमः ।।
तिथि -- आश्विन कृष्ण 6, शुक्रवार, वि० सं० 1684 (16 सितम्बर, 1927)
स्थान-- जसीडीह, मारवाड़ी आरोग्य भवन
समय -- दिनके ग्यारह बजे
श्रीसेठजी आरोग्य भवनके अपने कमरेमें पलंपर लेटे हुए थे। भाईजी और घनश्यामजी नीचे बैठे थे। श्रीसेठजीकी भाईजीके साथ ध्यान विषयकी
बात हुई। भाईजीको पहले जिस प्रकार भगवान् श्रीरामके दर्शन हुए थे, वह बात कही तथा शिमलापालमें आँख खुले हुए भगवान् विष्णुका ध्यान होने लग गया था, बीचमें बन्द हो गया तथा फिर होता है, वह बात कही।
श्रीसेठजीने कहा— भगवान्का दर्शन होनेके बाद तत्त्वज्ञान उसी समय होना चाहिये। यदि कोई प्रतिबन्ध रह जाय तो उसी समय नहीं होता। फिर भी उसका भार भगवान्पर आ जाता है। फिर एक या दो बार दर्शन देकर पूछा--तुम्हें उसको तत्त्वज्ञान करा देते हैं। मुक्तिमें कोई संशय रहता ही नहीं। फिर आपने (श्रीसेठजीने) जो विष्णु भगवान्का ध्यान होता है। उसके विषयमें तुम्हारी क्या धारणा है ? वह ध्यान है या साक्षात्कार मानते
हो ? तब भाईजीने कहा— बातचीत व स्पर्श होनेके सिवाय साक्षात् होनेके जैसा ही लगता है। आप (श्रीसेठजी) बोले— तुम साक्षात् समझते हो, तो
चरण-स्पर्श करनेकी कोशिश नहीं करते ? यह तो तुम्हारी दृढ़ भावना ही हो सकती है। तब भाईजी बोले- मुझे भी दृढ़ भावना ही लगती है।
जबतक मैं ध्यान करता हूँ.........तबतक मूर्ति दिखती तथा चलते हुए भी दिखती है. बैठे हुए भी दिखती है तथा आसपासकी वस्तुएँ भी दीखती हैं। तब श्रीसेठजी बोले— इसे तो ध्यानकी प्रगाढ़ स्थिति समझनी चाहिये।
इसके बाद श्रीसेठजीके विश्रामका समय होनेसे भाईजी, घनश्यामजी दोनों चले आये। फिर भाईजीकी ऐसी प्रबल इच्छा हुई कि भगवान्का सगुण साक्षात्कार हो, उसके लिये श्रीसेठजीसे प्रार्थना करनी चाहिये। थोड़ी देर
बाद, दो बजे भाईजी तथा घनश्यामजी श्रीसेठजीके पास गये। जाते ही श्रीसेठज़ी बोले— आज तो ध्यानके लिये पहाड़ीपर चलनेका विचार है। इतनेमें और भी लोग आ गये।
सब लोग पहाड़ीपर गये। आगे-आगे श्रीसेठजी थे रास्ते में कई जगह देखी गयीं। लोगोंने कहा जगह अच्छी लगती है, परंतु श्रीसेठजीको पसन्द नहीं आयी। फिर उन्होंने एक जगह चुनकर बतायी, वह स्थान महेन्द्र सरकारके कोठीके पूर्व-दक्षिण भागमें सीताफलके वृक्षके समीप है। जसीडीहमें भी उस स्थानपर, श्रीज्वालाप्रसादजीके हाथसे लिखे हुए पन्नेके अनुसार, निम्नलिखित लोगोंकी उपस्थिति थी-- (१) श्रीजयदयालजी गोयन्दका (२) हनुमानप्रसादजी पोद्दार (३) घनश्यामदासजी नुवेवाला (जालान) (४) रामेश्वरलालजी नुवेवाला (जालान) (५) द्वारकादासजी नुवेवाला (जालान)
(६) सुखदेवजी (गीताप्रेस) (७) प्रह्लादरायजी जालुका (८) शुभकरणजी चूड़ीवाला (६) रामलालजी चूड़ीवाला (१०) डूंगरमलजी बागला (११) ज्वालाप्रसादजी कानोडिया (१२) केदारनाथजी कानोडिया (१३) शिवदयालजी गोयन्दका (१४) दौलतरामजी (१५) वैद्यनाथजी शेखपुरवाला।
सभी लोग एक तरफ बैठ गये भाईजी श्रीसेठजीके सामने बैठे थे।
उनके एक तरफ ज्वालाप्रसादजी और दूसरी तरफ घनश्यामजी थे। श्रीसेठजी
बोले-
हनुमान आँख खोले हुए भगवान्का ध्यान करता है, उसे उसी तरह तब श्रीसेठजी बोले-- घनश्याम इसे उठाओ। लेकिन घनश्यामजीसे उठे
नहीं। तब श्रीसेठजी बोले-- ज्वालाप्रसादजी, आप हनुमानको उठायें। तब ज्वालाप्रसादजीने सावधानीसे उठाकर भाईजीको अपनी गोदमें सुला लिया।
इस प्रकार भाईजी निष्पंद और निश्चल अवस्थामें प्रायः डेढ़ घंटा पड़े रहे। इसी बीच श्रीसेठजीने श्रीविष्णु भगवान्के ध्यानका वर्णन करना आरम्भ किया। श्रीसेठजी द्वारा ध्यानके वर्णनकालके समय निम्नलिखित लोग और आ गये थे -- (१) बद्रीप्रसादजी गोयन्दका (२) कुञ्जलालजी सुलतानिया (३) सीतारामजी पोद्दार । आरम्भ में 'त्वमेव माता',
‘सशंखचक्रम्'
श्लोकका बहुत प्रेमसे उच्चारण करके भगवान्के स्वरूपका वर्णन करने लग गये। फिर वर्णन करनेके बाद भगवान्को हृदयमें शेषशैयापर सुलाकर मैं सूक्ष्म शरीर धारणकर पूजा कर रहा हूँ, इस प्रकार कहा-- प्रेम-भक्ति-प्रकाश पुस्तकमें बतायी गयी विधिके अनुसार उन्होंने पूजा की।
इसके बाद भगवानकी बहुत मार्मिक शब्दोंमें स्तुति की स्तुति
समाप्त होनेके थोड़ी देर बाद भाईजीने आँख खोलकर फिर उसी समय
बन्द कर ली। फिर थोड़ी देर बाद आँख खोलकर बोले-- भगवान् तो चले गये। तब श्रीसेठजी बोले- हम लोग भी चलें। इसके बाद सब लोग चलने लगे। आगे-आगे श्रीसेठजी बहुत उन्मत्ततासे चल रहे थे। शरीर डगमगा रहा था, पैर इधर-उधर पड़ रहे थे। रामेश्वरजी तथा शुभकरणजी श्रीसेठजीके आस-पास चल रहे थे। भाईजी पीछे-पीछे आ रहे थे और घनश्यामजी तथा ज्वालाप्रसादजीने उन्हें पकड़ रखा था। उन्हें शरीरका बिल्कुल
होश-हवाश नहीं था और पैर डगमगा रहे थे। भवनमें आनेके बाद श्रीसेठजी तो अपने कमरेमें चले गये। भाईजी ज्वालाप्रसादजीके कमरेके बाहर तख्तपर लेट गये, उनके पास घनश्यामजी थे। वे लेटे-लेटे बेहोशीकी हालत में
बोलने लगे (उसका मुख्य अंश नीचे दिया जा रहा है )
शेष शैयापर वे लेटे हैं।
प्रसाद रखा है, आपको याद है ना ? कितने पेड़े थे ? कितने
लड्डू थे?
कमरेके बाहरकी तरफ 'ॐ' लिखा हुआ था, उसे देखकर भाईजी
बोले- देखो, 'ॐ' के अन्दर भगवान् बैठे हैं। यहाँसे कहाँ जायेंगे ? सुन्दर बहुत हैं, 'ॐ' के अन्दर बैठे हैं।
देखिये तो सही, कैसा सुन्दर स्वरूप है, प्रकाश -ही-प्रकाश चारों तरफ हो रहा है। आपकी जगह भी वही हैं, मेरी जगह भी वही हैं। जायेंगे कहाँ वे ?
आकर हाथ पकड़कर यहाँ तक पहुँचा गये, फिर तो चले गये।
गये जायेंगे कहाँ ? सब जगह वही है।
फिर घनश्यामजी ज्वालाप्रसादजीको भाईजीके पास बैठाकर भोजन
करने चले गये। घनश्यामजीसे श्रीसेठजीने पूछा- हनुमानका क्या हाल है, भोजन करेगा क्या ? तब घनश्यामजी बोले- वो तो कह रहा था, बहुत
है। तब आपने (श्रीसेठजीने) घनश्यामजीसे कहा--तुम
लड्डू-पेड़ा खाया उसे दूध भी पिला दो। उससे कहो कि लड्डू-पेड़ेपर दूध भी पी लो ।
घनश्यामजी एक गिलास दूध ले आये और भाईजीसे बोले- दूध आप (श्रीसेठजी) ने भेजा है। भाईजी बोले- प्रसाद सब लोगोंमें बाँट दो। तब घनश्यामजीने दूध द्वारका, शुभकरण, रामेश्वर केदारनाथजीको दिया तथा
खुद भी लिया। बाकी बचा दूध भाईजीने पी लिया। दूध पीनेके उपरान्त बोले-—आप (श्रीसेठजी) के पास चलें क्या ? फिर श्रीसेठजीके यहाँ गये और तख्तपर बैठ गये। इतनेमें ही सेठजी आ रहे थे। उन्हें देखकर भाईजी
बोले――भगवान् आ रहे हैं! उठो ! और बेहोशीकी हालतमें श्रीसेठजीके चरणोंमें गिर गये। फिर श्रीसेठजीके पास कुछ देर रहकर सोनेके लिये आ गये। रात्रिमें आनन्द बहुत अधिक रहा। निद्रा बिलकुल नहीं आयी।
उपर्युक्त घटनाका विवरण भाईजीने बादमें बोलकर निम्नलिखित
शब्दों में लिखवाया --
मेरी बड़ी उत्कंठा थी कि कोई रहस्यकी बात प्रत्यक्ष देखूँ । भगवान्के साक्षात् दर्शनोंकी उत्कंठा मेरे जीवनमें कभी भी हुई नहीं। मेरी सेठजीसे भगवान् रामके दर्शनोंकी बात और ज्वालाप्रसादजीसे श्रीसेठजीके प्रेम-भावकी बात होनेसे उत्कंठा बहुत ज्यादा बढ़ गयी थी ।
इस निमित्त उनसे प्रार्थना करनेकी...........। घनश्याम मेरे
साथ था। जाते ही बिना कहे ही सेठजी बोले कि चलो आज ध्यान करने पहाड़ीपर चलें। पहाड़ी पर जानेकी बात अलग लिखी हुई है। जब मैंने
ध्यानकी भावना की, तब सब दृश्य एकदम जाते रहे। चारों तरफ अकस्मात्
बड़ा भारी प्रकाश हो गया।
जिस जगह श्रीसेठजी विराजमान थे, उस जगह भगवान्की चतुर्भुज मूर्तिका मुझे प्रत्यक्ष आँखें खोले हुए, दो व्यक्ति आमने-सामने बैठे हों उस
प्रकार, दर्शन होने लग गया। मेरे आनन्दका पार नहीं रहा। मैंने थोड़ी देर भगवान्के रूपका वर्णन किया । वृत्तियाँ बाहरसे बिलकुल हट गयीं। मैंने भगवान्के चरणोंको स्पर्श करनेके लिये हाथ आगे बढ़ानेके लिये कई दफे चेष्टा की, पर हाथ आगे नहीं बढ़े। किन्तु भगवान्का आसन पीछे हट गया। फिर मैंने कहा, तब भगवान्का आसन मेरे हाथके समीप आ गया। मैं चरण-स्पर्श करना चाहता था कि इतनेमें भगवान् अन्तर्धान हो गये और
उस जगह श्रीसेठजी दीखने लग गये। मैं बोला- ये क्या बात हुई ? तब श्रीसेठजी बोले- मुझे ये स्फुरणा हुई कि मैं वर्णन करूँ। तब मैं बोला मैं
करता हूँ, पर मुझे भगवान्के चरणोंका स्पर्श होना चाहिये। तब श्रीसेठजी
बोले-पहले हुआ, वैसा ध्यान होना तो बहुत सहज है, पर चरणोंका स्पर्श होना तो अगलेकी मर्जीपर है।
इतना कहनेके साथ अकस्मात् अनन्त प्रकाश हो गया। मुझे फिर उसी तरह दर्शन होने लग गये। मैं आनन्दमें विह्वल होकर भगवान्के दाहिने चरणको पकड़ लिया और चरणों में बलात्कारसे जा पड़ा। भगवान्ने मेरे
मस्तकपर हाथ रख दिया। तब पीछेसे लोगोंने कहा कि तुम तो
श्रीजयदयालजीके चरणोंपर पड़े थे। बाकी मेरी दृष्टिमें उस जगह भगवान्ना रायणके सिवाय और कोई भी नहीं था। श्रीजयदयालजी भी नहीं थे। केवल श्रीनारायणदेव ही थे। इस स्थितिमें मैं बहुत देरतक पड़ा रहा और भगवान् मेरे मस्तकपर हाथ रखे हुए हँसते रहे। कुछ समयके बाद मुझे यह
दिखा, कोई विलक्षण पुरुष भगवान्की षोडशोपचारसे पूजा कर रहा है। मैं पूजाको देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। कुछ समयके बाद मैं देखता हूँ तो बहुत से ऋषि पधारे हैं। ऋषियोंमें भगवान् नारद, व्यास, सनत्कुमार, हनुमान इत्यादि थे । वे आते ही अपना-अपना नाम बताकर मेरी ही तरह भगवान्के चरणों में प्रणाम करने लग गये और मुझे भगवान्के चरणों में पड़ा हुआ देखकर बहुत प्रसन्न हुए। इसके बाद विलक्षण पुरुष द्वारा पूजा करते समय जो प्रसाद लगाया गया था, वह प्रसाद सबको बाँटनेके लिये भगवान्ने एक ऋषिबालकको आज्ञा दी और उसने भगवान्की आज्ञा पाकर सबको प्रसाद बाँट दिया। तब भगवान्ने कहा- इसे भी दो । तब मुझे भी उठकर प्रसाद दिया और मैंने बड़े आनन्दके साथ उस प्रसादको खाया। इतने विलक्षण स्वादका अनुभव जीवनमें कभी भी हुआ नहीं। इसके थोड़ी देर बाद श्रीभगवान्के अन्तर्धान होते ही मेरे चित्तमें व्याकुलता-सी होकर आँख खुल गई और मैंने कहा- भगवान् तो चले गये। तब श्रीसेठजीने कहा--हमलोग भी चलें। मैंने देखा मेरा सिर श्रीज्वालाप्रसादजीकी गोदमें था। उन लोगोंने मुझे उठाया, पर मेरे अन्दर आनन्दकी इतनी बाढ़ थी कि मेरा बाह्यज्ञान फिर जाता रहा । मुझे प्रत्यक्ष दिखा कि भगवान् मेरे साथ चल रहे हैं। मैं बड़े आनन्दके साथ चलता रहा। मुझे लाकर भवनमें बिठा दिया। वहाँ भी मुझे उन्हीं श्रीभगवान्के दर्शन होते रहे। फिर मुझे श्रीजयदयालजीके पास ले गये, वहाँ फिर श्रीभगवान्के दर्शन हुए तथा मैंने दण्डवत की। उसके पश्चात् मुझे बाहरी ज्ञान हो गया ।