खुद भी एक व्यंग्यकार होने के नाते मुझे और भी कई अन्य व्यंग्यकारों का लिखा हुआ पढ़ने को मिला मगर ज़्यादातर में मैंने पाया कि अख़बारी कॉलम की तयशुदा शब्द सीमा में बँध अधिकतर व्यंग्यकार बात में से बात निकालने के चक्कर में बाल की खाल नोचते नज़र आए यानी कि बेसिरपैर की हांकते नज़र आए। ऐसे में अगर आपको कुछ ऐसा पढ़ने को मिल जाए कि हर दूसरी-तीसरी पंक्ति में आप मुस्कुरा का वाह कर उठें तो समझिए कि आपका दिन बन गया।
दोस्तों.. आज मैं ऐसे ही एक दिलचस्प व्यंग्य संग्रह की बात करने जा रहा हूँ जिसे 'बातें कम Scam ज़्यादा' के नाम से लिखा है प्रसिद्ध व्यंग्यकार नीरज बधवार ने। इस व्यंग्य संग्रह में कहीं पुलसिया शह पर फुटपाथ और सड़के कब्ज़ा रहे रेहड़ी- पटरी वालों के ज़रिए दिन प्रतिदिन अमीर पर अमीर होते जा रहे पुलिसकर्मियों के वैभवशाली जीवन पर मज़ेदार अंदाज़ में तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में शादियों और पार्टियों में शगुन से ज़्यादा का खाना ठूँस-ठूँस कर खाने के तौर-तरीकों और कायदों की बात होती नजर आती है।
कहीं आजकल के लड़के-लड़कियों के सैल्फ़ी के प्रति क्रेज़ पर बात होती नजर आती है तो कहीं किसी के नॉनवेज खरीदने के बजाय लौकी खरीदने की बात पर व्यंग्य उत्पन्न होता नज़र आता है। कहीं ट्रैफ़िक की ऑरेंज बत्ती पर गाड़ी भगाने और हरी बत्ती पर रोकने की बात को ले कर मज़ेदार अंदाज़ में सांप्रदायिकता के इंटरनेट की वजह से फ़ैलने की बात होती नज़र आती है।
इसी संकलन के किसी व्यंग्य में हाहाकारी तरीके से युवाओं में दिन-प्रतिदिन सैल्फ़ी के बढ़ते क्रेज़ की धज्जियाँ उड़ाई जाती दिखाई देती हैं। कहीं हर समय जल्दी में रह ट्रैफ़िक के नियमों का उलंघन करने वालों पर तो कहीं बड़े नामी गिरामी कलाकारों को ले कर बनने वाली घटिया फिल्मों के करोड़ों रुपए कमाने पर लेखक तंज कसते दिखाई देते हैं।
इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में सलमान खान के बहाने बॉलीवुड में बनने वाली बेसिरपैर की फिल्मों पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में स्कूलों-विश्वविद्यालयों में दूसरों की ज़्यादा परसेंटेज आने से औसत बच्चे की दुविधाओं का वर्णन किया जाता दिखाई देता है।
इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में दूसरे के महँगे मोबाइल और खूबसूरत बीवी से अपनी बीवी और मोबाइल की तुलना की जाती दिखाई देती है। तो किसी अन्य व्यंग्य में खुद की कुंडली में भ्रष्टाचार का योग खोजा जाता दिखाई देता है। कहीं सोशल मीडिया कंपनियों द्वारा हमारे निजी डेटा का अपने फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करने पर तंज कसा जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी बड़े देश या नाम की वजह से हमारी भावनाएँ आहत होती नज़र आती हैं।
कहीं कोरोना के समय वैक्सिनेशन सैंटरों पर फ़ैली अफरातफरी और लालफीताशाही पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में लेखक फेसबुक और वहाट्सएपीय ज्ञान की बदौलत बावले हुए लोगों पर मज़ेदार ढंग से अपनी लेखनी चलाता नज़र आता है। इसी संकलन में कहीं किसी अन्य रचना में देश भर में हो रहे घोटालों को लेखक अपनी सोच का शिकार बनाता दिखाई देता है। तो कहीं किसी अन्य व्यंग्य में अपने घर की आस में आम आदमी धक्के खाता दिखाई देता है। कहीं किसी अन्य रचना में ऑफिस में नयी इंटर्न के आ जाने से रौनक के आ जाने की बात की जाती दिखाई देती है। तो कहीं सरकारी अक्षमताओं को निजी कंपनियों द्वारा दूर कर आम आदमी की जेब काटी जाती दिखाई देती है। कहीं किसी व्यंग्य के ज़रिए टैक्स की चक्की में लगातार पिस रहे आम मध्यमवर्गीय की व्यथा व्यक्त की जाती नज़र आती है। तो कहीं किसी अन्य धारदार व्यंग्य में सिगरेट एवं शराब बिक्री को ले कर बनी सरकारी नीति में जनहित से पहले अपने हित की सरकारी पॉलिसी पर कटाक्ष किया जाता दिखाई देता है।
कहीं दफ्तरों में औरों की अपेक्षा खुद को ज़्यादा मूर्ख सिद्ध करना अपना उल्लू सीधा करने के तौर तरीके बताए जाते दिखाई देते हैं तो कहीं आजकल के तथाकथित गुरुओं से आम आदमी का मोहभंग होता दिखाई देता है। कहीं गुरु की बताई सीख पर चलने के बजाय भगतजन उनकी मृत्य के बाद अपनी मनमानी करते नज़र आते हैं। इसी संकलन के किसी अन्य व्यंग्य में मोटिवेशनल स्पीकर खुद ही डिप्रेशन में जाता दिखाई दे रहा है तो कहीं किसीअन्य व्यंग्य में सस्ते में महँगा माल बेचने वाले भ्रामक विज्ञापनों से लेखक आहत होता नजर आता है। कहीं एफ़.एम के चैनल के घटिया जोक्स सुनाने वाले R.Js द्वारा खुद को खुराफाती, दबंग या डॉन बताने और सबका नम्बर वन RJ होने का दावा करने पर कटाक्ष किया जाता नज़र आता है। तो कहीं भारतीय रेल की लेटलतीफी और रेलवे स्टेशनों की दुर्दशा पर कटाक्ष होता दिखाई देता है।
इस व्यंग्य संग्रह के लेखक एवं प्रूफरीडर की तारीफ़ करनी होगी कि मात्र दो जगहों पर वर्तनी की छोटी त्रुटियों के अतिरिक्त खोजने पर भी बस एक प्रूफरीडिंग की कमी दिखाई दी जिसमें कि पेज नंबर 29 में लिखा दिखाई दिया कि..
'यूनिवर्सिटी ऑफ़ ढोलकपुर के स्टडी के मुताबिक इंसान को मरते वक्त इतना अफ़सोस सच्चा प्यार मिलने का नहीं रहता, जितना शादियों और बुफे में पैसे पूरे कर के ना आ पाने का रहता है'
यहाँ 'इतना अफ़सोस सच्चा प्यार मिलने का नहीं रहता' की जगह 'इतना अफ़सोस सच्चा प्यार नहीं मिलने का नहीं रहता' आएगा।
*मुसकराहट- मुस्कुराहट
*मुसलिम- मुस्लिम
143 पृष्ठीय इस मज़ेदार व्यंग्य संग्रह के पेपरबैक संस्करण को छापा है प्रभात प्रकाशन ने और इसका मूल्य रखा गया है 250/- जो कि मुझे आम हिंदी पाठक के नज़रिए से थोड़ा ज़्यादा लगा। आने वाले उज्जवल भविष्य के लिए लेखक एवं प्रकाशित को बहुत-बहुत शुभकामनाएं।