भाग 2
उसने नजर उठा कर पूरे घर का चप्पा-चप्पा निहारा था। दीवारों को हाथ से छुआ था। आइने को देख कर आँखें छलछला पड़ी थीं, ये वही आइना था जिसमें सुबह-शाम वह दौड़ी-छूटी खुद को निहारा करती थी। कभी अम्मी जान से नजर बचा कर तरह-तरह के चेहरे बनाती तो कभी खुद पर ही लजा जाती और मुस्कुरा कर भाग जाती।
उसने विदाई के वक्त घर के फर्नीचर से लेकर छत तक सब से विदाई की इजाज़त माँगी थी। घर के सामान से, भरी हुई आँखों ने छुप कर बातें भी की थीं, बगैर ये जाने उन्होनें सुनी भी होगीं या नही? फिर भी एक-एक चीज़ को छू-छू कर देखा था और उस लम्हा दीवारें भी जैसे सजीव हो उठी थीं, मानो कह रही हों- 'फिज़ा बिटिया कब आओगी? जल्दी-जल्दी आती रहना, हमें तुम्हारे बगैर रहने की आदत नही' जिसे महसूस कर वह फफक पड़ी थी।
कितना रोई थी वह, ये सोच कर अब तक जहाँ रह रही है वह उसका घर नही रहा। क्यों अम्मी जान ने ऐसा बोला था? उन्होंने झूठ क्यों बोला था? क्या वह भी इन्ही लोंगों की तरहा हैं? क्या फर्क है उनमें और इन लोगों में? उन्होने मेरी खुशियों का वास्ता देकर घर से दूर कर दिया था और इन लोगों ने अपनी खुशियों के वास्ते निकाल दिया। दोनों ही सूरत में दाँव पर तो वह ही लगी। 'अब मैं कहाँ जाऊँ? क्या अपनी अम्मी के घर? उसी घर में, जहाँ से उन्होने ज़िन्दगी भर के लिये विदा कर दिया था। और इस घर को क्या कहूँ? शायद ये किराये का घर था? और ज़हेज की रकम इसका किराया थी जो इन लोगों के लिये नाक़ाफी थी।'
वह इस घर में हुये अपने साथ तमाम ज़ुल्मोसितम को याद करने लगी। एक-एक बात उसके आँखों के आगे घूमने लगी। कितनी रोक-टोक लगाई गयी थी उसकी हर एक बात पर? उसका साँस लेना भी दूभर कर दिया था इन लोगों ने, फिर भी वह सब सहती रही यह सोच कर तालमेल बिठाती रही कि 'अगर वह सही है तो एक दिन जरुर सब ठीक हो जायेगा। मगर कुछ भी ठीक नही हुआ, बल्कि दिन-पर-दिन सब बिगड़ता ही गया।'
अब वह ये सोच कर तड़प उठी थी, अब यहाँ उसका कोई हक़ नही। उसे यहाँ से जाना होगा। वह उस अदालत से डरने लगी, जहाँ उसकी सुनवाई होनी थी। ये अदालत और कोई नही ये समाज ही होता है जो औरत के सामने ज़िरह के लिये खड़ा हो जाता है तमाम सवाल पूछ डालता है कुछ सीधे-सीधे कुछ आढ़े-टेढ़े तरीके से और उसे गुनाहगार साबित करने के लिये पूरा जोर लगा देता है।
कड़बे तजुर्बों में वह घुलती रही और उन्हें दूर से देखती रही, जो उसे पास आते महसूस हो रहे थे।
मोम की मूर्ति का आग में तप कर बह जाना और चन्द लम्हों में ही उसकी पहचान का खत्म होना, ये आसान काम नही था। 'वो मोम की गुड़िया नही बनेगी' कहना तो वह यही चाहती थी पर चाह कर भी इस फ़ैसले को लेने की हिम्मत अभी उसमें नही थी।
जहाँ आदमी की हुकूमत चलती हो, उस समाज में एक औरत की कौन सुनेगा? जब एक औरत को औरत ही न समझ पाई तो भला मर्द क्या समझेगा। औरत होना एक गुनाह है? या इज्ज़त और समाजिक रवायतों की सूली पर खुद को टाँग देना? क्या गुनाह है उसका? अपने वालदेन की ख्वाहिश को मुकम्मल ही तो किया है उसने? उनका कहा माना। वरना आजकल तो सभी लड़कियाँ अपनी पसंद खुद ही बताती हैं और वालदेन उनकी पसंद को मानने भी लगे हैं। मगर खुद को तबज्जो न देकर वालदेन की मर्जी को मान लेना, ये भी कोई गुनाह है? या ज़हन्नुम सी जिन्दगी पर उफ्फ भी न करना, ये गुनाह है? तो औरत की चमड़ी के जूते बना कर डाल दिये जायें मर्द के पाँव में, जिसे वह कुचलता रहे और जब जी भर जाये तो ठोकर मारता रहे। एक, दो, तीन जितनी चाहे औरतों को नोचता रहे और औरत रवायतों पर कुर्बान होती रहे। फिज़ा, बेइज्जती, गम और तन्हाई से भरभरा कर टूट रही थी।
पल भर में ही सब पराया हो गया था। ये बैड, ये चादर, तकिया, कपड़े और अल्मारी में रखा दुल्हन का जोड़ा सब कुछ। उसने एक-एक कर सबको देखा। फिज़ा ने आइने के सामने धुँधलाई हुई आँखों से खुद को भी देखा, वह औरत नही, दीवार पर लगी कोई तस्वीर सी नजर आई, एक बिखरी हुई तस्वीर, जिसके रंगों को उसकी किस्मत ने धो दिया था वह फीके दिखाई पड़ रहे थे बावजूद इसके वो मुँह फाड़-फाड़ के हँस रहे थे।
उसने खुद को छिपा लिया, मगर कानों में कर्कश ठहाकों की आवाज़ अभी भी बरकरार थी। जो उसकी खिल्ली उड़ा रही थी। शरीर बेजान था।
उसकी बची -कुची हिम्मत भी तब जवाब दे गयी, जब आरिज़ की अम्मी कमरें में आईं। उस वक्त वह बुर्कापोश थीं सिर्फ नकाब को उतार दिया था। यानि कि वह घर में पहले से नही थीं। उन्हे नही पता था घर में क्या हुआ है। शायद उन्हे बताया गया था और जो भी उन्हें बताया गया था उसमें उनकी रजामंदी शामिल थी। ये बात उनके जिस्म की हरकत से साफ झलक रही थी।
उन्होने फिज़ा से बगैर कोई सवाल किये गुर्रा कर कहा- "चल उठ जा अब, कब तक मातम मनायेगी? तू आरिज़ को खुश नही रख पाई इसमें उसकी क्या गलती है? जो अल्लाह को मंजूर था हो गया। अब तू उठ कर जल्दी से बुर्का ओढ़ ले। ड्राइवर भाई जान तुझे तेरे मायके छोड़ देगें।" इतना वह सपाट लहजे में कह कर चली गयी थीं।
उसे उनकी बातें एक तीर की तरह चुभी थीं। फिज़ा कुछ न बोली, बस चुपचाप रोती रही। बैठी-बैठी सुबकती रही। उसके घुटनों के पास की सलवार आसूँओ से भीग कर तर हो गयी थी। जो घुटनों में चिपकने लगी थी।
सीधे-सीधे उनका ये कहना जख्मों पर नमक छिड़कने जैसा था। आरिज़ जो जख़्म देकर गया था उससे भी ज्यादा तकलीफ देय था ये।
सब कुछ इतनी जल्दी हो रहा था जैसे सुपर फास्ट ट्रेन छोटे-मोटे स्टेशनों को छोड़ती हुई रफ्तार से दौड़ कर आगे निकल जाती है और पीछे मुड़ कर नही देखती। स्टेशन पर खड़े हुये लोग उसे जाते हुये तब तक देखते रहते हैं जब तक वह आँखों से ओझल नही हो जाती।
उनके सीने में एक औरत का नही बल्कि आरिज़ की खुदगर्ज माँ का दिल था जो बेरहम और क्रूर था। पत्थर सी वह औरत बिल्कुल अपने बेटे के जैसी ही थी। जिस तरह आई थी उसी तरह लपक-धपक के वापस लौट गयी, उसने एक बार भी ये जानने की कोशिश नही की, पिछले एक घण्टें में इस कमरें में क्या हुआ है?
फिज़ा उन्हे जाते हुये देख रही थी। वह तेजी से पूरा दालान पार कर गयीं।
उन्होनें एक बार भी पीछे मुड़ कर नही देखा। हलाँकि कमरे के दरवाजे पर परदा लटका हुआ था फिर भी उसे बाहर क का दिखाई पड़ रहा था। क्यों कि वह बार-बार हवा से झूल रहा था। मगर दरवाजा तब से खुला था जब से आरिज़ बाहर निकल कर गया था। अब्बू मियाँ दालान पार कर सामने ही बैठे हुक्का गुड़गुड़ाते थे। बेपर्दगी न हो इस बजह से फिज़ा अपने कमरें का दरवाजा बन्द ही रखती थी। आज वह भी वहाँ नही थे। पूरे घर में सन्नाटा था, जैसे कुदरत ने अनहोनी के लिये पहले से ही माहौल तैयार कर रखा हो।
तकलीफ के समय कोई सिर पर हाथ रख दे तो दिल हल्का हो जाता है। इसी उम्मीद से उसने अब्बू मियाँ को ढ़ूँढ़ना चाहा था। मगर वह तो आरिज़ के अब्बू मियाँ थे, उसके नही। वह भला उसका साथ क्यों देने लगे? फिर भी उसे उम्मीद थी अब्बू मियाँ जरूर कुछ बोलेंगें। हलाँकि इन बारह महीनों में उन्होंने एक बार भी उससे बात नही की थी। पता नही क्यों? सही-सही तो उसे भी नही पता। बस इतना जानती थी कि वह जो भी ज़हेज अपने मायके से लाई थी उससे वह लोग नाखुश थे। दूसरे, औरतों के अत्याचार के खिलाफ उसने जो एन.जी.ओ. खोल रखा था, उससे भी सब नाखुश थे। वो लोग नही चाहते थे कि उनके खानदान की दुल्हन वेपर्दगी करे। बाहर निकले और अपनी आवाज़ बुलन्द करे। ये कोई छोटा-मोटा ईशू नही था।
क्रमश: