स्वजनोंकी सहायता
जैसे-जैसे भाईजीकी साधनाकी स्थिति प्रगाढ़तर होती जा रही थी वैसे-वैसे साधकोंका जमघट भी उनके पास एकत्रित होने लगा। साधकोंके लिये बीस नियम बनाये जिनके पालनसे पारमार्थिक उन्नति हो। इस साधन कमेटीके लगभग ५० सदस्य थे जो उत्साहसे नियमोंका पालन करते थे। इन्हीं दिनों भाईजीने अपने अनुभवके आधारपर एक पुस्तक लिखी 'मनको वशमें करनेके उपाय'।
प्रसिद्ध गायनाचार्य श्रीविष्णुदिगम्बरजी भाईजीके परम मित्र थे। उन्होंने एक संस्था गान्धर्व महाविद्यालय खोल रखी थी। उदारतावश वे पैसा खुले हाथ खर्च करते। अतः लगभग पचहत्तर हजारका ऋण हो गया और महाविद्यालयके नीलाम होनेकी नौबत आ गयी। भाईजीके पास यह बात आयी। उनकी स्वयंकी ऐसी स्थिति नहीं थी कि इतनी रकम दे सके। मित्रका संकट दूर करनेकी प्रबल लालसाने इन्हें ऋण लेनेको बाध्य कर दिया। श्रीबालकृष्ण लालजी पोद्दार, श्रीनिवासदासजी पोद्दार, बिड़ला बन्धु श्रीनिवासजी बजाज, श्रीलक्ष्मणदासजी डागा आदिसे अपने नामपर ऋण लेकर पचहत्तर हजार रुपया इकट्ठा करके महाविद्यालयका ऋण चुकाया। पं० विष्णु दिगम्बरजीका रोम-रोम इनके प्रति कृतज्ञतासे भर गया। इस ऋणके कारण भाईजीको भी बड़ी कठिनाई उठानी पड़ी और इसका परिशोध बारह साल बाद स 1992 (सन् 1935) में हुआ।
एक बारकी बात है — मारवाड़ी-अग्रवाल-जातीय कोष के कैशियर:श्रीराजारामने अपने खर्चके लिये दो हजार रुपये रोकड़मेंसे ले लिये। पता लगते ही अधिकारियोंने उसे पुलिसमें गिरफ्तार करा दिया। किसीको अपना सहायक न देखकर वह भाईजीके सामने रोने लगा। भाईजीके हाथमें उन दिनों रकमकी बिलकुल छूट नहीं थी। परन्तु इसकी परवाह न करके
दो-तीन मित्रोंसे भाईजीने रुपये उधार लेकर उसे छुड़ा दिया। वह भाईजीके कृपाके सामने नतमस्तक हो गया। भाईजीने अनेकों बार अपने कष्टकी परवाह किये बिना दूसरोंको कष्टसे मुक्त कराया।
दूसरी बारकी बात है— सांगीदास जैसीराम' नामकी फर्ममें इनकी फर्म चिरंजीलाल हनुमानप्रसाद को लगभग दस हजार रुपये लेने थे। भाईजी यह जानते थे कि सट्टेमें घाटा लगनेके कारण सांगीदासजीकी अवस्था गिरी हुई है। अतः तकाजा करना तो दूर रहा, जब सांगीदासजी कहीं रास्तेमें मिल जाते तो ये आँख बचाकर निकल जाते, जिससे उन्हें संकोचमें न पड़ना पड़े। एक ओर इनका तो इतना साधु व्यवहार था, पर
इनके साझीदार चिरंजीलालजी रुपया वसूल करनेके लिये आकाश-पाताल एक कर रहे थे। उन्होंने देखा कि भाईजीकी जानकारीमें तो रुपये वसूल होना कठिन है इसलिये इनसे कुछ नहीं कहकर उन्होंने नालिश कर दी तथा उनके नाम वारंट कट गया। वारंट कटनेपर, बात भाईजीके पास जा पहुँची और पता लगते ही अविलम्ब पहली चेष्टा इनकी यह हुई कि टेलीफोनसे सांगीदासजीको सूचित कर दिया कि मेरे अनजानेमें इस
प्रकारसे बातें हुई हैं। आपको पकड़वाने लोग जा रहे हैं, आप अपना बचाव कर लें। सचमुच ही अपने साझीदार चिरंजीलालजीके व्यवहारसे भाईजीके मनमें बड़ा विचार हुआ, पर शीलतावश ये उनसे भी प्रकटमें कुछ नहीं कह सके। जो हो, इस प्रकारकी अनेकों अत्यन्त साधुतापूर्ण चेष्टाके कारण लोग
इनके प्रति बहुत विश्वास रखते थे। इसीसे जब भाईजी ऋषिकेश गये तो वहाँसे बम्बईके मित्रोंका आग्रह देखकर शीघ्र लौटना पड़ा। इसके अतिरिक्त
इनके बाहर चले जानेसे सत्संगभवनकी सम्भालका काम भी अस्त-व्यस्त हो जाता था। सत्संगका काम स्वयं इन्हें तथा इनके पथ-प्रदर्शक (पूज्य श्रीसेठजी) को अतिशय प्रिय था, अतः यह भी शीघ्र लौट आनेमें हेतु हुआ।
कल्याणका शुभारम्भ
भाईजीका मारवाड़ी अग्रवाल सभा के साथ सम्बन्ध था, केवल समाजसेवाकी दृष्टिसे। उनकी परमार्थ-साधनाका यह विशेष अंग कदापि नहीं था। यों तो सभी शुभ चेष्टायें परमार्थमें सहायक होती हैं, पर जैसे कर्मयोगीका तो साधन-क्षेत्र ही शुभ कर्म होता है, वैसे इन चेष्टाओंसे सम्बन्ध नहीं था। फिर भी ये प्रत्येक अधिवेशनमें ही जाया करते थे।
मारवाड़ी अग्रवाल सभाका आठवाँ अधिवेशन (चैत्र शुक्ल 1, 2.
3/ 1983 वि०) दिल्लीमें हुआ। इस बार सभापति श्रीजमनालालजी बजाज थे एवं स्वागताध्यक्ष थे श्रीआत्मारामजी खेमका। दोनोंसे ही भाईजीका घनिष्ठ सम्पर्क था। किसी कारणसे आत्मारामजीने तो पहले स्वागताध्यक्षका पद ग्रहण करना ही अस्वीकार कर दिया था, पर जयदयालजी गोयन्दका
एवं भाईजीके आग्रहसे स्वीकृति दे दी। स्वीकृति मिल जानेपर यह प्रश्न उठा कि इतनी शीघ्रतामें स्वागताध्यक्षका सर्वांग सुन्दर भाषण तैयार हो जाना बड़ा ही कठिन है, क्योंकि २४ घंटेमें लिखकर छपकर दूसरे ही दिन उसे पढ़ना था। खेमकाजीने इसका भार भाईजीपर डाला। सचमुच ही इनके सिवा इतनी शीघ्रतामें गम्भीरतापूर्ण भाषण तैयार कर देने वाला और कोई था भी नहीं। ये भी खेमकाजीकी प्रेमभरी इच्छाकी उपेक्षा नहीं कर
सके। रातमें ही भाषण लिखकर, छपाकर इन्होंने तैयार कर दिया। दूसरे दिन अधिवेशनमें भाषण पढ़ा गया। लोगोंको बड़ा सुन्दर लगा। अधिवेशन में श्रीघनश्यामदासजी बिड़ला भी आये हुए थे। यद्यपि बिड़लाजीके एवं भाईजीके विचारोंमें मतभेद था, पर बचपनकी मित्रता थी। इस बारका होनेपर बातके सिलसिलेमें भाईजीसे बोले— भाई, तुम लोगोंके विचार क्या भाषण उन्हें भी मतभेद रहते हुए भी अच्छा लगा। वे अधिवेशनके समाप्त हैं? कैसे हैं? कहाँतक ठीक हैं ? इसकी आलोचना हमें नहीं करनी है, पर इसका प्रचार जगत्में तुम लोगोंके द्वारा हो रहा है। जनता इसे दूरतक मानती भी है। यदि तुमलोगोंके पास अपने ही विचारोंका, सिद्धान्तोंका एक
पत्र होता तो तुम लोगोंको और भी सफलता मिलती। तुम लोग अपने विचारोंका एक पत्र निकालो।
बिड़लाजीने परामर्शके रूपमें एक चुभती हुई-सी बात कह दी थी, पर सचमुच ही यह चर्चा 'कल्याण' मासिक पत्रके जन्ममें हेतु बनी। अधिवेशन समाप्त होनेपर सभी अपने-अपने गन्तव्य स्थानकी ओर चल पड़े। भाईजी भी बम्बईकी ओर चले। उस समय श्रीजयदयालजी चूरूसे
भिवानी आये हुए थे। उन्हें बाँकुड़ा जाना था। सत्संगके लिये भिवानीमें ठहर गये थे। भाईजीके मनमें आया कि दर्शनका सुयोग क्यों छोडूं ?
भिवानी चलूँ, वहाँसे साथ ही रिवाड़ी चला जाऊँगा। रिवाड़ीसे बम्बई चला जाऊँगा, यही हुआ। भिवानीका सत्संग समाप्त करके श्रीजयदयालजी बाँकुड़ाके लिये रवाना हुए। गाड़ीमें अधिवेशनकी चर्चा छिड़ गयी। उसी
प्रसंगमें भाईजीने घनश्यामदासजीकी पत्र निकालनेकी सलाहवाली बात कह डाली। पासमें बैठे थे लच्छीरामजी मुरोदिया। मुरोदियाजी सुनते ही बोले— बस-बस बिल्कुल ठीक है, अवश्य निकलना चाहिये। इतना ही नहीं, गाड़ीके एक कोनेमें ये भाईजीको ले गये तथा अत्यन्त प्रेमभरे आग्रहसे समझा-बुझाकर इनसे वचनतक ले लिया कि मैं प्रतिदिन दो घंटा सम्पादनका कार्य किया करूँगा। इनसे वचन लेकर गोयन्दकाजीके पास आये तथा पत्र
निकालनेकी स्वीकृति माँगने लगे। गोयन्दाकाजीने जब यह सुना कि भाईजीने सम्पादनका भार सम्भालना स्वीकार कर लिया है तो उन्होंने भी सहर्ष अनुमति दे दी। गाड़ीमें ही चैत्र शुक्ल 9 सं० 1983 को यह निश्चय हुआ कि पत्रका नाम 'कल्याण रहेगा तथा यह व्यवस्था हुई कि बम्बईसे इसका प्रकाशन प्रारम्भ हो। पास बैठे हुए सत्सगियोके आनन्दका पारावार न रहा। देखते-ही-देखते गाडी रिवाडी आ पहुँची। गोयन्दकाजी बाँकुडेकी ओर चल पड़े और भाईजी बम्बईकी ओर। हृदयमें एक नयी सेवाका भाव,
नया प्रेम, नयी उमंग लेकर बम्बई आ पहुँचे।
'कल्याण' की तैयारी आरम्भ हुई। सबसे पहले उसके रजिस्ट्रेशनका
प्रश्न था। इस क्षेत्रका अनुभव तो इन्हें था नहीं कि कैसे क्या होता है। अतः किञ्चित् विचारमें पड़ गये। पर जिन विश्वसूत्रधार प्रभुको कल्याण निकलवाना अभिप्रेत था, उन्होंने अपने-आप सारा संयोग लगा दिया। भाईजीके मित्रोंमेंसे वैंकटेश्वर प्रेसके मालिक श्रीश्रीनिवासजी बजाज भी थे। उनसे बात चलनेपर
प्रकाशन सम्बन्धी सभी कार्य करा देनेका भार उन्होंने उठा लिया। इनको साथ लेकर उन्होंने रजिस्ट्रेशन आदि सभी कार्यवाहियोंकी व्यवस्था करा दी तथा कल्याण के प्रथम अंककी तैयारी होने लगी।
इसी बीचमें भाईजीको पुनः एक बार राजस्थान जाना पड़ा। लक्ष्मणगढमें लच्छीरामजी चूडीवालाका एक ब्रह्मचर्याश्रम है, उसीका वार्षिकोत्सव था। लच्छीरामजीका अत्यन्त आग्रह था कि भाईजी उत्सवमें
पधारें, इसलिये इन्हें जाना पड़ा।
बम्बई लौटनेपर 'कल्याण के प्रकाशन कार्यमें तत्परतासे जुट
पड़े। भाईजीके अथक परिश्रमसे 'कल्याण' का प्रथम अंक सर्वथा शुद्ध आध्यात्मिकतासे रंगा हुआ श्रावण कृष्णा 11 सं० 1983 के दिन सत्संगभवन, बम्बईके द्वारा वैकेटेश्वर प्रेसमें छपकर प्रकाशित हुआ। प्रथम अंकमें श्रीसेठजीके दो लेख तथा एक पत्रको स्थान दिया गया। महात्मा गाँधीका एक लेख था। इसके अतिरिक्त प्राचीन-अर्वाचीन संतोंकी वाणीसे, शास्त्रोंसे संकलन था तथा शेष भाईजीकी कृतियाँ थी। बम्बईमें उस
समय लेखोंके संग्रहसे लेकर ग्राहकोंतक पहुँचानेका सारा कार्य भाईजीको अकेले ही करना पड़ता था। बम्बईमें इतना समय देनेमें 'कल्याण के सम्पादन कार्यमें बाधा आती थी। श्रावण शुक्ल पंचमी सं० 1983 (13 अगस्त 1926) के पत्रमें भाईजीने दुजारीजीको लिखा--"यह आवश्यक है कि छपाने और
ग्राहकोंके यहाँ पहुँचाने वगैरहके झंझटसे मुझे जितना शीघ्र मुक्त कर दिया जाय उतना ही सम्पादनका कार्य सुचारु रूपसे होना संभव है।" इस
संकेतको पाकर दुजारीजी अपने सनावद (मध्यप्रदेश) की दुकानके कामको छोड़कर भाईजीको पूर्ण सहयोग देनेके लिये बम्बई आ गये क्योंकि उस
समय कल्याण की स्थितिको देखते हुए किसीको वेतन पर रखना संभव
नहीं था। दूसरे वर्षसे 'कल्याण' का प्रथम अंक विशेषांकके रूपमें
श्रीगम्भीरचन्दजी दुजारीकी प्रेरणासे भगवन्नामांक निकला। श्रीदुजारीजीने
अपने साथी श्रीरामकृष्णजी मोहताके सहयोगसे 'कल्याण के बहुत नये ग्राहक बनाये।