Mukhya Dhara in Hindi Classic Stories by Yogesh Kanava books and stories PDF | मुख्यधारा

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मुख्यधारा

बहुत दिनों से सन्देश कहीं जा नहीं पाया था। वो बस अपने ही कार्यालय की मारामारी में उलझा सा रह गया था। सन्देश जैसा घुम्मकड़ प्रवृति का व्यक्ति एक कुर्सी से बंधकर रह जाये तो उसके भीतर की कुलबुलाहट का सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। वो कई दिनों से इस कोलाहल से दूर निकलने की जुगत कर रहा था लेकिन हर बार दफ्तर के कामों के फेहरिस्त उसके सामने आ कड़ी होती थी। आज अचानक ही उसे एक निमंत्रण मिला था ,एक संगोष्ठी थी। विषय था बाज़ारवाद ,मुख्यधारा और आम आदमी। पहले तो उसने सोचा क्या करूँगा वहां जाकर। वही भाषणबाज़ी , वही आलाप और वही लोग। जब लोगों के पास कुछ भी करने को नहीं होता है तो बस कुछ लोगों को इकट्ठा करने का यह सबसे आसान तरीका है। लोगों को इकट्ठा करो और फिर उन पर बौद्धिक उल्टी करो। अब दस्त तो वहां कर नहीं सकते इसलिए उलटी ही सही जान पड़ती है। अब सुनने वालों को उस बौद्धिक उलटी से बदबू आये चाहे ज्ञान मिले ये उनके सामर्थ्य पर निर्भर करता है। उनका काम है अपनी बौद्धिक उलटी से, अपना हाज़मा सही करने से। सामने वाले से कोई उसका कोई सरोकार नहीं। 

  बस कुछ इसी तरह से वो सोच रहा था कि जाऊं या नहीं जाऊँ। पता नहीं क्या सूझा कुछ अनमने से वो चल दिया। वहां पर बाज़ारवाद के पक्षकार अपने तरीके से समझा रहे थे , पूँजीवाद के गुण गए रहे थे तो वहीं पर कुछ बचे खुचे तथाकथित सर्वहारा मार्क्सवादी उसका विरोध कर रहे थे। वो शांत एक कोने में बैठा सब सुन रहा था बिना किसी रिएक्शन के। तभी अचानक मंच से एक इठलाती सी उद्घोषिका ने उद्घोषणा की - और अब आपके सामने आ रहे हैं जाने माने पत्रकार ,विचारक और प्रख्यात मीडिया कर्मी संदेशजी। अचानक ही अपना नाम सुनकर वो चौंक पड़ा , उसे नहीं मालूम था कि उससे बिना मशविरा किये ही उसे इस तरह मंच पर आने का न्योता दिया जायेगा। बड़े ही असमंजस में था सन्देश , कोई तैयारी नहीं थी इस विषय पर क्या बोलेगा ? खैर वो धीरे से उठा और साढ़े हुए से क़दमों से मंच पर डायस के सामने जा कर खड़ा हो गया एकदम खामोश। लोग सोच रहे थे बोलता क्यों नहीं है ,लगता है भूल गया। तभी वो बोले - आप सोच रहे होंगे कि मैं खामोश क्यों हूँ ? मैं यही सोच रहा हूँ कि मैं यहाँ अपने हिसाब से बोलूं या फिर जो धरा बाह रही है उसी के साथ बाह लूँ उसी मुख्यधारा का हिस्सा बन जाऊँ। वैसे निजी तौर पर मैं कभी भी भीड़ का हिस्सा नहीं रहा हूँ और ना ही बनना चाहता हूँ। हो सकता है आपको मेरे विचार अच्छे ना लगें क्योंकि मैं मुख्यधारा का पात्र नहीं हूँ। यह बात सुनकर सभी असमंजस में पद गए कि आखिर सन्देश कहना क्या चाहता है। सभी जानने को उत्सुक भी थे। वो फिर से बोलै - मुख्यधारा अपनी धरा बदलती रहती है ,तुलसी बाबा ने कहा था समरथ को दोष नाही गुसाई। सदियों पहले जो मुख्यधारा थी वो आज दकियानूसी हो गयी है तब की मुख्यधारा से दूर त्रासद जीवन जीने को मजबूर शूद्र, अछूत थे। उनको हक़ नहीं था मुख्यधारा के साथ चलने का , और आज क्या है जो मुख्यधारा सोचे वही सोचो वही करो नहीं तो कुचल दिए जाओगे। किसी को नहीं पता कि वो सोच किसकी है ,जिसकी धरा में वो बिना कुछ सोचे समझे बाह रहे हैं। बस एक भीड़ है जो बहे जा रही। 

 आज किंग लियर की पंक्तियाँ सार्थक लगती हैं - पाप को सोने से मढ़ दो ,न्याय की मजबूत तलवार बिना क्षति पहुंचाए टूट जाती है और यदि इसी पाप को चीथड़ों लपेटो तो बौने का सरकंडा भी इसे पूरी तरह से भेद देगा। ये कौन सी मुख्यधारा है ? सोने की चमक के आगे तलवार बौनी है। जब भी ये सोने की या सत्ता की चमक नृसंशता करे तो इसका वीरोचित गुणगान करो। आज बाज़ारवाद मुख्यधारा बन रहा है इसकी त्रासदियां सोचो। आज बाज़ारवादी व्यवस्था का यह अजगर समूचा ही मानव को निगल रहा है वो भी ख़ुशी ख़ुशी इस अजगर के पेट में जाना चाहता है। फैसला आप के हाथ है आप भीड़ का हिस्सा बनना चाहते हैं तो ज़रूर बनिए शौक से बनिए वहां पर आराम है। न्यूनतम शक्ति व्यय किये बिना ही भीड़ के धक्कों से आप बढ़ जायेंगे उस अनजान डगर पर जिसकी मंज़िल ना तो भीड़ को मालूम है और ना ही उस तथाकथित मुख्यधारा को। 

  इतना कहकर सन्देश एकदम खामोशी के बीच मंच से उतरने लगा और चुपचाप आकर अपनी कुर्सी में बैठ गया। सब आपस में खुसर फुसर कर रहे थे। संगोष्ठी संपन्न होने के बाद वो बस निकल ही रहा था कि वही उद्घोषिका सामने आ गयी और बोली - सर मैं निहारिका हूँ आज पहली बार आपको सुना है वाकई आप बहुत अच्छा बोलते हैं सर। आपकी बुक्स तो पढ़ी हैं लेकिन कभी आपसे मिल नहीं पायी थी सर। मैं भी आपसे कुछ सीखना चाहती हूँ सर। वो बोले - मेरे पास सिखाने जैसा तो कुछ भी नहीं है। वो तत्काल बोली - नहीं सर आज आपने मेरे विचारों की दिशा ही बदल दी है , मुझे भी थोड़ा सा समय दीजिये न सर प्लीज। मैं आपके साथ थोड़ी सी देर बैठ सकती हूँ सर ? सन्देश बिना कुछ बोले खड़ा रहा वो तय नहीं कर पा रहा था कि इस कोमलांगी के साथ बैठ जाये या मन कर कर लौट जाये । तभी वो एक बार फिर बोली - प्लीज सर बस थोड़ी ही देर बस एक कप चाय ठीक है ना सर। 

 ओके चलिए लेकिन ज्यादा देर नहीं रुक पाऊँगा मैं। और फिर दोनों साथ हो लिए पास ही एक रेस्त्रां में बैठ चाय पीने लगे। निहारिका नॉनस्टॉप बोले जा रही थी। सर इतनी सारी बातें आप कैसे कह लेते हैं ? और सन्देश वो बिना आतम्मुदित हुए बस उसे देखता रहा। चाय ख़त्म होते ही सन्देश सहज भाव से उठा उससे विदा लेने लगा , तभी वो बोली सर आपसे बात पूछनी थी , एक सवाल मुझे हमेशा कचोटता रहता है। कई दिनों से मैं परेशान हूँ. सन्देश ज्यादा रुकने के मूड में नहीं था सो उसने टालने के लिए उसे कह दिया कल किसी समय मेरे पास आ जाना तभी बैठकर बातें करेंगे। आज जरा कुछ ज़रूरी काम निपटाने हैं , इतना कहकर वो वहां से चला गया। वो सोच रहा था चलो कुछ काम निपटा लिए जाए। आज बिना वजह ही बहुत सा समय जाया हो गया।

 सन्देश भूल गया था कि कल उसने यूँ ही टालने के लिए उस लड़की को कह दिया था कि कल आ जाये। दरअसल उसे ये अंदाज़ा ही नहीं थी कि वो लड़की आ जाएगी। उसके दरवाज़े पर दस्तक और दरवाजे पर उसी लड़की को देखकर उसे याद आया कि मैंने ही उसे आज बुलाया था। वो बोले - अरे आप आयी हैं मैं तो किसी काम से निकल ही रहा था। वो बोली - कोई बात नहीं सर आप निकलिए न , मैं आपके आने तक वेट कर लुंगी सर। और आप कहें तो मैं कल आ जाऊंगी। सन्देश बोले - नहीं आ गयी हो तो बैठो मैं थोड़ी देर से निकल जाऊंगा। हूँ क्या कहना चाह रही थी ? वो बोली - सर आपने सुना ही होगा पिछले दिनों एक एक गुमनाम चित्रकार अपने शहर में आया था , मैं उससे मिलने गयी थी। मेरे लाख मिन्नतें करने पर भी वो कोई चित्र बनाने को तैयार नहीं था , बस एक ही बात कह रहा था - समाज के ठेकेदारों ने मेरे रंगों को छीन लिया है मैं अब कोई तस्वीर नहीं बन सकता हूँ। मैंने उससे उसके जीवन के बारे में पूछा तो बोला था - क्या करोगी जानकार , तुम रंगों छंदों में समायी सुंदरता हो तुमसे मेरे जीवन के काँटों का एहसास टोला नहीं जायेगा। जाओ तुम अपने घर जाओ , मेरे साथ तुम्हें कोई देखेगा तो समाज का कोई ठेकेदार फिर उठ खड़ा होगा और रंगों को मिट्टी में रौंदते हुए इस सुंदरता पर ग्रहण लगा देगा, और कला तार -तार होती आंसू बहती रहेगी। जाओ मुझे कुछ नहीं कहना है। 

  सर मैं बहुत विचलित हूँ कल आपकी बात सुनकर मुझे लगा कि मेरी इस उलझन का समाधान आपके पास है. मुझे सही उत्तर आप दे सकते हैं। सर क्या वो चित्रकार मुख्यधारा के विपरीत जा रहा था। और यदि कोई मुख्यधारा जो समाज के ठेकेदार तय करते हैं उसके साथ नहीं चलने पर ये ठेकेदार इसी तरह से उसका हश्र करते हैं ? यह मुख्यधारा समाज को जोड़ने वाली है या सच्चाई की कमर और समाज को तोड़ने वाली है सर। बताइये ना सर ये क्या है ? 

 सन्देश मौन साधे उसके चेहरे को अपलक देखता रहा , मानो उसके चेहरे पर उभरते हर अक्स का अर्थ खोज रहा हो। वो सोच रहा था इस लड़की के भीतर एक ज्वाला है यही ज्वाला इसे जीवित रखेगी। वो धीरे से बोले वो जो भी चित्रकार था वो सही मायने में आशिक़ था ,अपने फ़न का। दुनिया का कोई भी काम बिना आशिक़ी के पूरा नहीं हो सकता है। एक जुनून चाहिए और कला -- कला तो जुनून ही मांगती है। सब कुछ भूलकर इसमें डूबना पड़ता है ,तुम्हारे भीतर भी एक ज्वाला दिख रही मुझे। एक जुनु दिख रहा कुछ करने का , बस बच्चे इस जुनून को ,इस आग को अपने भीतर जलाये रखोगी तो ज़रूर कुछ कर जाओगी वार्ना तो उसी मुख्यधरा का हिस्सा बनकर उसी में खो जाओगी। तुम्हारा कोई अस्तित्व नहीं बचेगा। अब तुम्हें तय करना है कि किधर जाना है सुविधाभोगी मुख्यधारा मार्ग पर या चट्टानी पथरीले विपरीत मार्ग पर जहाँ तुम्हारे पैरों को लहूलुहान करने हर क़दम पर कांटे कांटे मिलेंगे। फैसला तुम्हें खुद करना है। एकदम ख़ामोशी थी वो धीरे से बोली - सर मैं आपके साथ काम करना चाहती हूँ , कुछ सीखना चाहती हूँ सर। मुझे थोड़ा सा आपका सहारा चाहिए सर। देंगे ना सर आप मुझे सहारा? सन्देश आँख बंद कर अपने आप में ही खो गया था कुछ नहीं बोले लेकिन उसकी आँखों ने अपने सामने ही एक नए सपने को आकर लेते देखा है अभी अभी।