अमन कुमार त्यागी
चारों ओर हाहाकार मचा था। शहर का एक भी अस्पताल ऐसा नहीं था जिसमें संक्रमित मरीजों को भर्ती न कराया गया हो। पत्रकारों के लिए यह अच्छी ख़बर थी और चिकित्सकों के लिए अच्छा सीजन। एक-एक घर से पाँच-पाँच या घर के सभी सदस्य उल्टी दस्त से जूझ रहे थे। गाँव का एक बुजुर्ग रोते हुए बता रहा था- ‘साहब मौत मुझे आनी चाहिए थी, मेरी आँखांे के सामने मेरे दो पोते काल के गाल में समा गए। क्या हुआ, कुछ कह नहीं सकता।’
आज के ताज़ा अख़बार में अधिकाँश ख़बरे संक्रमित बीमारियों से मरने की पढ़कर बड़ा अजीब लग रहा था। मुझे याद आ रहा था वह दिन, जब तालाब के पानी को पीकर एक ही गाँव के लगभग पचास पालतू जानवर मर गए थे। गाँव वालों ने इन जानवरों को गाँव के पास बंजर पड़े खेतों में यूँ ही डाल दिया था। चार दिन बाद ही गाँव के लगभग सत्तर या अस्सी कुत्ते अज्ञात बीमारी के कारण मौत को गले लगा चुके थे। सिलसिला यही थमता तो अच्छा था, हुआ ये कि गाँव में झोलाछाप चिकित्सकों के यहाँ मरीजों की भीड़ लगने लगी और जब तक कोई समझ पाता, तब तक गाँव के अनेक बालक-वृ( काल के गाल में समा चुके गए।
अख़बार की यह ख़बर पढ़कर बड़ा अजीब लगा कि पानी की टंकी में बंदर गिर जाने से उसकी मौत वहीं हो गई और जब उस बंदर को निकाला गया तब तक तमाम पानी संक्रमित हो चुका था। आरोप-प्रत्यारोपों का सिलसिला ठीक वैसे ही जारी था, जैसे कि मौत का। पहले दिन तीन जिंदगियों को मौत ने लील लिया, दूसरे दिन यह संख्या पाँच हो गई, तीसरे दिन यह संख्या आठ और फिर बढ़ती चली गई। यही नहीं पहले एक गाँव से ख़बर आई थी, परंतु बाद में अनेक गाँवों से भी इसी प्रकार की ख़बरें आने लगीं। पानी के नमूने लिए गए और वो जाँच में सही भी पाए गए।
बड़ी अजीब बीमारी है संक्रमण की, एक को लगती है तो हज़ारों को लग जाती है। ऐसे में ना राम किसी को बचा पाते हैं न ही देव और न ही कोई बाबा। ऐसे में दोषारोपण करना भी उचित नहीं होता। आला अधिकारियों और समाजसेवियों के दौरे प्रारंभ हो गए। मरीज अधिकारियांे की हमदर्दी पाकर निहाल हो रहे थे। उनकी समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि वो अपनी बीमारी पर दुःखी हों अथवा अधिकारियों को अपना हाल सुनाकर ख़ुशी ज़ाहिर करें।
मुझसे भी घर में रहा नहीं गया तो निकल पड़ा बीमारों का हाल जानने के लिए।
एक अस्पताल में नन्हा मोहन लगातार उल्टी कर रहा था। उसके दोनों हाथ पेट पर इस तरह रखे थे, जैसे कि अंतड़ियाँ बाहर आने को हों। मोहन की माँ लगातार मोहन की पीठ पर हाथ फेर रही थी और दवाई लेकर खड़ी नर्स से कह रही थी- ‘पता नहीं, भगवान कौन से कर्म की सज़ा हमारे गाँव को दे रहा है।’
नर्स उस महिला को समझा रही थी- ‘घबराओ मत बहन! यह बरसात का मौसम है, इस मौसम में ज़रा सी लापरवाही से संक्रमित बीमारियाँ भयानक रूप धारण कर लेती हैं।’
नर्स की बात सुनकर वह महिला बिफ़र उठी-‘बातें मत बनाओ देवी जी! तुम्हारी ये बीमारी क्या हमारे गाँव को ही संक्रमित करने के लिए है?’
नर्स घबराकर बोली-ऐसी बात नहीं है बहन! यह संक्रमण तो पूरे देश को ही अपनी चपेट में ले रहा है। सरकार बीमारियों से लड़ने का काफ़ी प्रयास कर रही है मगर आम आदमी के पूरी तरह सहयोग न करने के कारण कामयाबी नहीं मिल रही।’
नर्स की बात सुनने के बाद मैं भी जानकारी के लिए चिकित्सक के पास पहुँचा। चिकित्सक ने चिंता व्यक्त करते हुए बताया- ‘बुरी हालत है, जिन क्षेत्रांे से ये लोग आए हैं, आप वहाँ का दौरा कीजिए, आपको पता लग जाएगा कि ये लोग कितनी गंदगी में जी रहे हैं।’
कहने को तो मेरे पास बहुत सी बातें थीं, मगर बीमारों को चिकित्सकों के हाल पर छोड़कर मैं भी अपने घर चला आया। अभी अपने घर के दरवाज़े में घुसना ही चाहता था कि मेरी बेटी ने मुझे दरवाज़े पर ही रोक दिया। दरअसल वह बाल्टी में फिनायल डालकर घर में पौंछा लगा रही थी। उसने पौंछा लगाते हुऐ मुझसे पूछा-‘क्या आपको जानकारी नहीं है कि आस-पास संक्रमण की बीमारी फैली हुई है और बहुतसे लोग इस बीमारी से दम तोड़ रहे हैं।’ अपनी बेटी के मुँह से यह सुनकर आश्चर्य हुआ, मैंने उससे पूछा- ‘तुम्हें कैसे पता?’
-‘मैंने अख़बार में पढ़ा है।’ उसने बताया। फिर वह सफ़ाई करती रही और बोलती रही -‘हमारी स्कूल की किताबों में लिखा है, बरसात के मौसम में खाने की चीजें जल्दी सड़ जाती हैं, इसलिए खाने की चीजें बासी होने पर नहीं खानी चाहिए और अपने घरों को भी साफ़ रखना चाहिए।’
बेटी की बात सुनकर मेरा ध्यान बीस वर्षीय फ़रज़ाना की ओर चला गया। मैंने एक स्कूल में लगे चिकित्सा शिविर में उसे तड़पकर जान देते हुए देखा था। उफ़्फ़ कितना भयानक मंजर था वह। बात करने पर पता लगा कि फ़रज़ाना जीते जी स्कूल नहीं जा सकी थी, जबकि उसकी मौत उसे स्कूल तक खींच लायी थी।
पत्नी ने भेाजन की थाली मेरे सामने लाकर रखी तो मन विचलित हो उठा मृतकों के परिजनों का विलाप मेरी आँखों के सामने से हटने का नाम नहीं ले रहा था। मैंने एक बार थाली की तरफ़ देखा और फिर पत्नी की ओर देखते हुए कहा-‘मुझे अभी भूख नहीं है, तुम खा लो।’
पत्नी थाली लेकर रसोई में चली गई और मैं पुनः घर से बाहर निकल गया, बीमारांे का हाल जानने के लिए। जैसे ही मैंने दरवाज़ा पार किया कि सड़क पर एक दस वर्षीय मासूम बालक भिखारी खड़ा था। मेरी पत्नी उसके बरतनांे में भेाजन डाल रही थी और वो भिखारी बालक उससे सहमे अंदाज़ में पूछ रहा था-‘मैडम जी यह खाना बासी तो नहीं है।’