रात अपने प्रिय अस्त्र चाँदनी के साथ शीतलता बरसा रही थी। जिससे कोमल भावनाओं वाले प्रेमी उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर जाते है। बिंदु अपने कमरे में पलंग पर अपने वक्ष स्थल के नीचे तकिया रखकर उलटी लेटी हुई दिवास्वप्न में मग्न थी। उसके रेशमी केश पलंग पर बिखरे हुए थे। मन में कभी जगजीत से हो चुकी बात को पुनः मन में दोहराती तो कभी मन ही मन उस बातचीत को आगे बढ़ा देती।
मानव मन या तो भविष्य में गोते लगाता है अथवा भूत में डूबा रहता है। वह वर्तमान में कभी रहता ही नहीं। अगर कोई वर्तमान में जीने लग जाता है वह या तो साधु हो जाता है अथवा देवता। भूत और भविष्य मन को केवल व्याकुल करते है । शांति केवल वर्तमान में रहती है। अपने भूत और भविष्य में उलझी बिंदु अब जगजीत से हकीकत में तो नहीं मिल सकती पर मन ही मन वह भूत और भविष्य में उससे कई बार मिल आई।
अब वह हमेशा सपनों में खोई खोई सी रहती। जब कभी पिता घर पर नहीं होते वह घर से बाहर निकल जाती और बाज़ार घूम आती। पिता के प्रति मन में क्रोध तो था ही जब पिता को ख़बर लगी कि बिंदु अब अकेली घर से बाहर घूमने चली जाती है तो उसने बिंदु से इस बारे में समझाना चाहा व मना किया ,पर बिंदु की क्रोधाग्नि को प्रज्वलित करने के लिए इतनी चिंगारी ही काफ़ी थी। बिंदु अब पिता से सीधे मुँह बात न कर हमेशा अपना गुस्सा उन पर निकाल लेती। विक्रम खुद अचंम्भित था कि इतना बदलाव आखिर उसमें कैसे आ गया। पहले तो वह ऐसे न करती थी। एक दिन विक्रम ने प्रेम से सारी बीमारी की जड़ का पता लगाना चाहा । उसने बिंदु को बोला,"बेटा , आजकल तुम्हें क्या हो गया है? मुझसे ऐसी भला क्या गलती हो गयी है?"
"मुझे भला क्या हुआ है ?पापा! मैंने भला ऐसा क्या काम किया है जो आप मुझे ऐसा बोल रहे हो?"
"फिर क्यों तुम ऐसे बिना बताये घर से निकल जाती हो? पहले तो नहीं जाती थी।"
"अब मैं छोटी नहीं हूँ पापा! जो खो जाऊँगी। मैं क्या दिन भर घर में कैद ही रहूं?"
"मैं तुम्हें घुमाने ले तो जाता हूँ।"
"तो क्या बस आप पर ही निर्भर रहूँ? मेरी कोई स्वतंत्रता नहीं है?"
"ऐसी बात नहीं है बिटिया !"
"फिर कैसी बात है?"
"आजकल जमाना बहुत ख़राब है। मुझे हर पल तुम्हारी ही चिंता लगी रहती है।"
"अच्छा फिर क्या पूरे बाज़ार में कोई लड़कियाँ नहीं होती है यहाँ? और जो होती है क्या वो ख़राब नीयत की है सब?"
"मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ ? आज कल के लड़के बहुत बदमाश है। उनका भरोसा नहीं है। क्या पता कौन तुम्हारा पीछा करता हुआ घर तक आ जाये?"विक्रम के प्रेम से समझाने वाला स्वर अब धीरे-धीरे क्रोध का रूप ले रहा था।
बिंदु ने भी कठोर स्वर का जवाब कठोरता से देते हुए कहा,"आज कल के लड़कों को दोष देते हो, आप कौनसे दूध में धुले हुए हो? इतनी उम्र हो गयी, आप को अय्याशी करते हुए शर्म नहीं आई।"
"मैंने कौनसी अय्याशी की? पूरी ज़िंदगी तेरे पर समर्पित कर दी। और तू क्या बोल रही है? होश भी है कुछ!" विक्रम ने आवेश में आकर कहा।
"हाँ!हाँ! रहने दो आपका ढोंग। आप कितने पानी में हो मुझे सब पता है। मुझे शर्म आती है, आपको पापा कहते हुए।" बिंदु ने आखिर वह बोल ही दिया जो वह बहुत समय से अपने भीतर दबाए हुए थी।
"बिंदु..." विक्रम ने एक जोरदार चांटा बिंदु के कोमल कपोल पर मारते हुए कहा। विक्रम जिसने अपना सुख-दुःख न देखकर हमेशा सिर्फ बिंदु का हित देखा। जब इतने प्रेम और समर्पण के बावजूद उसको ऐसा सुनने को मिला तो उसका चित अस्थिर हो उठा।
बिंदु रोते हुए अपने कमरे में चली गयी। अब बिंदु और विक्रम दोनों की ज़िंदगी किसी बुरे सपने की तरह गुजरने लगी। बस दोनों जी रहे है। बिना किसी उमंग , बिना किसी रस के। एक शाम को विक्रम परेशान होकर अपने पड़ोसी शर्मा जी के घर चला गया जहाँ जाने के पश्चात कुछ ऐसा हुआ ;जिससे बिंदु का जीवन पूरी तरह बदलने वाला था.....
क्रमशः.....