Agnija - 140 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 140

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अग्निजा - 140

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-140

केतकी को भले ही समझ में नहीं आ रहा था, पर प्रसन्न ने ध्यान दिया कि केतकी की चाल बदल गयी है। उसकी चाल में एक खास तरह की लचक, नजाकत, स्टाइल आ गयी थी। उसकी चाल में आत्मविश्वास था। वैसे भी, भावना जो ग्रूमिंग प्रैक्टिस करवा रही थी, उसकी जानकारी प्रसन्न को थी ही। शायद, प्रसन्न के कहने पर ही ये योजना बनायी गयी हो। उसकी प्रैक्टिस का वीडियो देखते हुए वह खुश हो रहा था और भावना को कुछ निर्देश भी देता जा रहा था। केतकी को लग रहा था कि उसमें बहुत परिवर्तन आ गया है। वह अलग, एक नयी दुनिया में जी रही है। क्या ये भावना की ग्रूमिंग का असर है प्रसन्न के प्रपोजल का? शायद दोनों का। उसकी मनाही के बावजूद प्रसन्न के व्यवहार में, बातचीत में कोई भी अंतर नहीं आया था, पहले की ही तरह अपनापा था, यह बात केतकी की ध्यान में आयी थी। उसका उत्साह पूर्ववत था। वह इतना सहज कैसे रह सकता है? या फिर नाटक कर रहा है सहज होने का?

ग्रूमिंग का पहला राउंड खत्म होने की खुशी में भावना ने मंगलवार को प्रैक्टिस बंद रखी थी। लेकिन उसने केतकी को आदेश दिया, ‘मुझे अभी बहुत सारे काम हैं। लेकिन शाम को दक्कन सेंटर में मिलेंगे। मैं प्रसन्न भाई को एसएमएस करके बुला रही हूं।’ केतकी शाम का इंतजार करने लगी कि कब प्रसन्न से मुलाकात हो और उसे अपनी ग्रूमिंग प्रैक्टिस के बारे में सब विस्तार से बताये। रीसेस में जब वह एक चिट्ठी लिख रही थी उस समय उसके चेहरे के भावों को देखकर कोई भी समझ सकता था कि वह कोई महत्वरपूर्ण और अतिआवश्यक बात लिख रही है। शाम को केतकी ने प्रसन्न से खुद ही पूछ लिया, ‘दक्कन सेंटर में तो रात को खाना खाने के लिए जाना है। तब तक आपके पसंदीदा रेस्टोरेंट में जाकर बैठें? ’ ‘तुम मुझेस पूछो मत, आदेश दो। तुम्हें जो अच्छा लगेगा, उसे करने में मुझे खुशी होगी। ओके?’

‘प्रसन्न तुम भाग्यवान हो क्योंकि तुम दूसरों के लिए कुछ कर सकते हो। दूसरों के लिए खुद को भी बदल सकते हो। दूसरों के सुख के लिए जी सकते हो...लेकिन मैं वैसा नहीं कर सकती। आज मुझे इस बात को स्वीकार करना होगा कि मैं तुम्हारी तरह लोगों के लिए अपने आप में बदलाव नहीं कर सकती। किसी को पसंदगी के लिए नयी बातें नहीं कर सकूंगी या पुरानी बातें छोड़ भी नहीं पाऊंगी।’

‘कोई बात नहीं। तुम अपने तरीके से जीवन जियो, उसमें कोई गलत बात नहीं है।’

‘नहीं, लेकिन मेरे साथ ऐसा क्यों होता है?क्या मैं जिद्दी हूं? स्वार्थी हूं या फिर आत्मकेंद्रित? क्या मुझे अपने सिवाय किसी की परवाह नहीं है?’

‘देखो केतकी, तुम्हारे इस व्यक्तित्व का निर्माण और तुम्हारे स्वभाव का यह स्वरूप तुम्हारी परिस्थितियों की वजह से, तुम्हारे साथ घटी घटनाओं और तुम्हारे अनुभवों, तुम्हारे पालन-पोषण की वजह से बना है। यदि तुम अपना जीवन अपने तरीके से जीना चाहती हो तो उसमें कोई गलत बात नहीं है। तुम बहुत दृढ़ हो, मैं नहीं। सच कहूं तो तुम्हारी मर्जी के अनुसार जीना मुझे अच्छा लगता है। मुझे आनंद मिलता है, और यदि मैं ऐसा मैं अपने आनंद के लिए करता हूं तो और क्या चाहिए?’

केतकी ने अपने चाय और ग्लूटोनफ्री बिस्किट मंगवाए थे तो प्रसन्न ने कॉफी के साथ टोस्ट बटर का ऑर्डर दिया था। इसकेबाद दोनों चुपचाप बैठ गये। केतकी ने अपनी पर्स में से एक चिट्ठी निकालकर प्रसन्न के हाथों में दे दी। ‘मैं बहुत अच्छा तो लिख नहीं पाती। ये मेरा पहला ही प्रयास है।’

प्रसन्न ने वह कागज अपने हाथ में ले लिया। पहले कागज की तरफ और फिर केतकी की तरफ देखते हुए बोला, ‘इसमें तुमने क्या लिखा है मुझे मालूम नहीं। लेकिन यह कागज मेरे लिए कोहिनूर या फिर ताजमहल से भी अधिक कीमती है क्योंकि इसमें तुम्हारा स्पंदन है। तुम्हारी भावनाएं हैं।’ ‘प्लीज, पहले पढ़ तो लो, फिर शायद इसका मूल्य बदल भी जाए। ’

प्रसन्न केतकी की तरफ देखता रहा, ‘तुम मुझे शायद कभी भी समझ नहीं पाओगी। ठीक है...’ प्रसन्न ने वह कागज अपनी दोनों आंखों पर लगाया। धीरे से उसे चूमा और फिर पढ़ना शुरू किया।

‘सच कहूं तो मैं बहुत विचित्र स्वभाव वाली हूं। मुझे झेल पाना आसान काम नहीं। किसी के लिए भी यह संभव नहीं है। तुमसे मिलने से पहले मैं वैसी ही थी। मुझे हमेशा अपनी मां के बारे में सोचकर बुरा लगता था। लगता था कि उसे जीवन में आखिर क्या मिला। वह दुःख मुझे धीरे-धीरे खोखला करने लगा। मुझे लगता था कि मेरा जन्म ही क्यों हुआ? जन्म लेकर मुझे मिला क्या? मुझे लगने लगा था कि मैं जो जीवन जी रही हूं वही मेरा भविष्य है। यही जीवन है। तो फिर ऐसा जीवन जीने से क्या फायदा? प्रेम की बातें पढ़कर मुझे लगता था कि प्रेम वगैरह भ्रम है। कोरी कल्पनाएं हैं। यदि वे सचमुच होंगी तो मेरे भीतर क्यों ऐसी भावनाओं ने जन्म नहीं लिया, मेरे मन के भीतर क्यों प्रेम की तरंगें नहीं उठीं? मेरा जीवन एक रेगिस्तान की तरह हो गया था, कि उसमें प्रेम की एक बूंद भी बरसेगी ऐसा मुझे नहीं लगता था। लेकिन मेरी कल्पनाओं को तुमने गलत साबित कर दिया। तुमको कई बार लगता होगा कि मैं कठोर हूं, रूखी हूं। लेकिन सच कहूं तो तुम्हारे जैसा व्यक्ति मेरे जीवन में आएगा, मुझे आज भी इस पर विश्वास नहीं होता है। किसी सपने की तरह ही लगता है। मुझे डर लगता है कि न जाने कौन से क्षण मेरा यह सुख समाप्त हो जाए। इसी कारण मैंने अपने मन को समझाती रहती हूं कि पहले जैसा जीवन जीने की तैयारी रखी जाए। तुमसे मिलने के पहले मैं भगवान से न जाने कितनी शिकायतें करती रहती थी। मेरे ही नसीब में ये सब क्यों, मेरा भी भाग्य मेरी मां की ही तरह क्यों, हमारे हिस्से में जो दो पुरुष आए उन्होंने हमारे लिए क्या किया? भगवान...लेकिन तुमने ये क्या किया? मेरे सारे सवालों के जवाब तुमने मेरे जीवन में इस पुरुष को भेज कर दे दिये हैं क्या? मेरे नाना के सिवाय आज तक कोई भी पुरुष मेरे ह्रदय तक पहुंच नहीं पाया था। मेरे कहने से पहले ही मेरी भावनाओं को समझ लेने वाले पुरुष को अपने जीवन में पाकर मैं धन्य हो गयी हूं। सच में, मेरे पास ऐसे कोई शब्द नहीं हैं, जो यह बता पाएं कि मेरे जीवन में तुम्हारा क्या स्थान है। शायद मेरे मन के भीतर पल रही जन्मजन्मांतर की कोई अतृप्त इच्छा हो तुम या फिर किसी जन्म में मेरे द्वारा किए अच्छे कर्मों का फल हो। शायद, अनेक वर्षों से जल रही मेरी आत्मा पर प्रेम का सिंचन करने वाला अमृतकुंभ हो तुम...’

पत्र पूरा पढ़ लेने के बाद प्रसन्न ने अपनी आंखें बंद कर लीं। दोनों हाथों से अपना चेहरा छुपा लिया। वह बड़ी देर तक चुपचाप बैठा रहा। विचारों में खोया सा। भावविह्वल हो गया। चेहरे के ऊपर रखे हाथ किनारे करते हुए उसने अपने आंखों के किनारे पर आए आंसू पोंछ लिये। केतकी उसकी तरफ देखती रही।

‘केतकी...तुमने तो मुझे सातवें आसमान पर बिठा दिया है। मैंने तो कुछ भी विशेष नहीं किया। लेकिन जो कुछ किया, यदि वह तुम्हारे लिए इतना महत्वपूर्ण होगा तो आज तुम्हें एक वचन देता हूं कि ये प्रसन्न तुम्हारे लिए कभी भी नहीं बदलने वाला। तुम्हारे मन की भावनाएं जान लेने के बाद शायद मैं तुम्हारे और करीब आने की कोशिश करूंगा। जाने-अनजाने तुम्हें लेकर मेरे मन में एक अधिकार की भावना जाग गयी हों तो उन्हें प्लीज सहन कर लेना...’

‘प्रसन्न, ये सब स्वीकार करने के बाद भी एक बात मैं तुम्हें फिर से कहूंगी कि मैं तुम्हारे लायक नहीं हूं। मुझे निर्णय लेने की जरा भी जल्दी नहीं है। फिलहाल ईश्वर मेरी प्रार्थनाएं सुनने के मूड में है, तो उससे इतना ही मांगूंगी कि मेरे इस दोस्त को मुझसे कभी भी दूर मत करना। ’ ‘ईश्वर की तर से मैं ही उत्तर दे देता हूं। जब तक मेरी चिता की ज्वाला न जल जाए, तब तक मैं तुमसे दूर नहीं जाऊंगा।’

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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