Agnija - 138 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 138

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अग्निजा - 138

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-138

उस रात को प्रसन्न सो नहीं पाया। उसका तकिया गीला हो रहा था। उसे पश्चाताप हो रहा था कि उसने बेकार ही केतकी को उसके भूतकाल की याद दिला दी। क्या उससे उसका मन हल्का हुआ होगा? या फिर से और तकलीफ हुई होगी? प्रसन्न ने कम से कम पांच बार उन कागजों को पढ़ा। उसका एक-एक शब्द उसे दिल-दिमाग पर आघात कर रहा था। रातभर के जागरण के बाद भी वह स्कूल जाने के लिए तैयार हो गया। आज घंटा भर पहले ही स्कूल पहुंचकर वह केतकी की राह देखने लगा। केतकी सामने आयी तो वह इच्छा होकर भी हंस नहीं पाया। ‘केतकी, प्लीज तुम्हारी मदद की आवश्यकता है।’

‘क्या...कहिए न...’

‘तुमसे दो शब्द कहने हैं, थैंक्स और सॉरी...लेकिन पहले क्या कहूं समझ नहीं पा रहा हूं।’

‘दोनों शब्द मुझ तक पहुंच गये। इस लिए अब चिंता छोड़ दें।’

‘आज हम दोनों छुट्टी लेंगे। मुझे तुमसे बहुत सारी बातें करनी हैं।’

‘नहीं...शाम को मिलते हैं। ’

‘प्लीज...’

‘प्रसन्न, मेरे जीवन भर की वेदनाओं को बताने के लिए एक पूरा दिन भी कम पड़ेगा। शाम को मिलते हैं।’ इतना कहकर वह आगे बढ़ गयी। चार कदम चलन के बाद फिर से दो कदम लौटी और बोली, ‘पहले तुम मेरे जीवन में ताक-झांक करते थे तो मुझे अच्छा नहीं लगता था लेकिन अब...थैंक्यू वेरी मच...’

प्रसन्न के चेहरे के भावों को देखे बिना केतकी चल पड़ी। धीरे-धीरे वह उसकी नजरों से दूर हो गयी, लेकिन फिर भी उसके ह्रदय में उसने घर कर लिया, हमेशा के लिए।

स्कूल समाप्त हुआ तब केतकी एकदम अलग ही दिख रही थी। उसके चेहरे पर चमक थी और ओठों पर मुस्कान थी। दिन भर के काम के बाद भी थकान या बोरियत के स्थान पर आनंद था। संतोष था। अभिमान था। प्रसन्न को ही नहीं, तो केतकी को स्वयं भी महसूस हो रहा था कि आज वह कुछ अलग ही हो गयी है। ऐसी केतकी उसने पहले कभी नहीं देखी थी। ये केतकी एकदम नयी थी।

उसे खुश देखकर प्रसन्न को भी अच्छा लगा। दोनों ने तय किया कि किसी शांत जगह पर जाकर बैठा जाए। भावना को नौ बजे दक्खन सेंटर में आने का कहकर दोनों एक ऐसे रेस्टोरेंट में जाकर बैठ गये जहां भीड़भाड़ कम थी। चाय-नाश्ते का ऑर्डर देने के बाद दोनों एकदूसरे को देखते हुए बैठे रहे।

केतकी ने बातचीत शुरू की, ‘सच कहूं तो मैं, मेरे दुःखों को किसी के साथ बांटना ही नहीं चाहती थी। वैसे, किसी को मेरे दुःखों को जानने के प्रति रुचि भी नहीं थी। मेरे जख्म मेरे भीतर ही पड़े हुए थे। उन जख्मों के दर्द की मुझे आदत हो गयी थी। उनके नशे में मैं यंत्रवत जी रही थी। लेकिन तुमने आकर इस यंत्र में जान फूंक दी। तुमको सबकुछ लिखकर दे देने के बाद मुझे बहुत हल्का महसूस हो रहा है और आनंद का अनुभव भी हो रहा है, इसका कारण क्या होगा? ’

‘केतकी तुम दुःख भरी एक लंबी अंधेरी सुरंग को पारकर बाहर निकली हो, लेकिन उनकी यादों को अब भी अपने भतर पाल रही थी। कल उस सुरंग में तुमने मुझे प्रवेश की इजाजत दी। या फिर ऐसा कहें कि तुमने अपने दुःख में मुझे सहभागी बना लिया। इसी कारण वे वेदनाएं, वे दर्द आधे रह गये न? अब वही वेदनाएं तुम्हारी कमजोरी नहीं ताकत बन गयी हैं। जो भूतकाल था उसे भुलाया तो नहीं जा सकता लेकिन आखिर कितने दिनों तक उसका गुलाम बन कर रहा जाए? क्या भूतकाल को अपने साथ रखकर वर्तमान को बनाया जा सकता  है? और अपना आज गंवाया जा सकता है?’

केतकी उसकी तरफ देखती रही, फिर धीरे से बोली, ‘प्रसन्न, यदि तुम मेरे जीवन में न आए होते तो यह भूतकाल मेरे मरने के बाद और मेरी चिता जलने के बाद भी शायद मेरे ह्दय को जलाता रहता। तुमने मेरे लिए जो कुछ किया, उसका धन्यवाद किस तरह दिया जाए, मुझे समझ में नहीं आ रहा। धन्यवाद शब्द छोटा है।’

‘बस, एक ही शब्द कहो-हां’

केतकी ने अपनी आंखें बंद कर लीं, ‘तुम कहोगे तो कुएं में भी छलांग लगाने को तैयार हूं। कहो, किस बात के लिए हां कहना है?’

‘मैं, मैं...तुम पर प्रेम कर सकता हूं?’ प्रसन्न से ये शब्द सुनकर केतकी के शरीर में बिजली दौड़ गयी। उनसे फिर से आंखें बंद कर लीं। उसे लगा कि प्रसन्न को कसकर गले से लगा लिया जाए। उसका हाथ पकड़कर रखा जाए, देर तक और सबकुछ भूल जाया जाए।

तभी वेटर ने टेबल पर चाय और कॉफी लाकर रख दी। केतकी आंखें खोलकर वास्तविकता में आ गयी। थोड़ी शांत होने के बाद बोली, ‘प्रसन्न, तुम्हें मेरे प्रति सहानुभूति है। तुम एक अच्छे इंसान हो, इस लिए मेरे दुःखों को समझ सकते लो। लेकिन मेरे प्रति तुमको सहानुभूति है, उसे दूसरा नाम मत दो, प्लीज।’

‘केतकी, तुमको क्या लगता है मैं इतना मूर्ख हूं कि सहानुभूति को प्रेम समझ बैठूंगा? खैर, अब जब बात निकल ही गयी है तो बताता हूं, मैं तुम से प्रेम करता था, करता हूं  और करता रहूंगा...हमेशा...तुम पर कोई जबरदस्ती नहीं है। इस लिए तुम निश्चिंत होकर मुझे एक वचन दो। ’

केतकी हंसी, ‘ ये अच्छी दादागिरी है..चलो कहो...क्या वचन चाहिए तुमको?’

‘इस प्रेम प्रपोजल को चाहो तो जीवन भर बिना फैसले के यूं ही पड़े रहने दोगी तो भी चलेगा, लेकिन इसके कारण हमारी दोस्ती में कभी कोई ग्रहण लगने पाये।’

ये वचन तो मेरे लिए फायदेमंद ही है। प्रसन्न शर्मा जैसा दोस्त मिलने वाला होगा तो मैं बार-बार जन्म लेने को तैयार हूं। उस पर, आज की इस भेंट के बाद भी वह जरा भी बदलने वाला नहीं होगा, तो इससे अच्छा और क्या? केतकी थोड़ा गंभीर होकर उसकी तरफ देखनेलगी। ‘सच कहूं तो तुम्हारे प्रपोजल से मुझे खुशी से पागल हो जाना चाहिए था। मैं ही क्या, कोई भी लड़की होती उसे भी इसी तरह का आनंद हुआ होता। मैं अपने भोगे हुए दुःखों के कारण एकदम रूखी, मुंहफट और कठोर स्वभाव वाली हो गयी हूं। जिद्दी हो गयी हूं। शायद आत्मकेंद्रित भी। अब, मेरा किसी भी आदमी पर जल्दी से भरोसा होता नहीं है। हालांकि, तुम इसका अपवाद हो। तुम्हारे जैसा आदमी मिलेगा नहीं। तुम बहुतअच्छे हो और इसी लिए मैं नहीं चाहती कि अपने हिस्से का दुःख तुम्हें बांटने के लिए दूं। अब तुम मुझे पसंद न करो लेकिन हम दोनों में बहुत फर्क है, कुछ भी मेल खाता नहीं।’

‘मेल खाता नही, मतलब?’

‘मतलब, तुम कोहिनूर हो, मैं साधारण कांच का टुकड़ा भी नहीं। मैं बिलकुल भी तुम्हारे लायक नहीं।’

‘ओह, ऊंचाई, वजन, बुद्धिमानी इन सबके तराजू पर व्यक्ति को तौलने के बाद प्रेम किया जाता है, ये तो मुझे पता ही नहीं था। मुझे तो केवल एक ही बात महत्त्वपूर्ण लगती है...ईक्यू। ’

‘ये क्या होता है?’

‘इमोशनल कोशंट। मुझे तुम्हारे प्रति अपनापन लगता है इसका मतलब है मैं तुम्हारा। तुम मेरी होगी या नहीं, यह पूरी तरह से तुम्हारा निर्णय होगा। लेकिन मेरी बात भी सुन लो...मेरे भीतर एक केतकी है...वह पूरी तरह से मेरी है...’

‘वह मेरी भी नहीं है क्या?’

‘नहीं, मेरे अस्तित्व के साथ एकरूप हो चुकी, मुझमें समा चुकी केतकी सिर्फ मेरी है...मेरे अकेले की...पूरी तरह से...’ ‘’

 

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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