Agnija - 135 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 135

Featured Books
Categories
Share

अग्निजा - 135

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-135

वॉचमैन निशांत ने उसे जो बताया उसे सुनकर केतकी को झटका लगा। वह बेचैन हो गयी। उसने कहा, ‘मैडम, आप बड़ी भाग्यवान हैं। बालों के बिना भी लोगों के बीच उठ-बैठ सकती हैं। बाहर निकल पाती हैं। आप नसीबवान हैं, हिम्मती भी...हमारे छोटे से गांव में एक सत्रह-अठारह साल की लड़की को ऐसी ही बीमारी हो गयी और उसके बाल झड़ने लगे, तब वह जब भी घर से बाहर निकलती, लोग उसे पत्थर मारने लगते ...अपने पास नहीं आने देते...अपने घर के पास से भी गुजरने नहीं देते.. कहते हैं वह टोटका करती है.. परिवार के लोग भी उसे अपने पास नहीं रखते। उस पर गुस्सा करते हैं। उसे घर के गोठे में रख दिया था, गाय-भैंसों के साथ..खाने-पीने के लिए वहीं पर देते थे..वह वहीं पर चारे पर सो जाती थी...एक दिन वह वहां से गायब हो गयी, लेकिन किसी ने उसकी चिंता नहीं की। किसी ने भी उसे खोजने की कोशिश नहीं की। सबको राहत मिल गयी, घर के लोगों को भी। उसके लापता होने पर घर के लोगों ने पुलिस में भी शिकायत नहीं दी। पता नहीं वह कहां चली गयी? कहीं जान तो नहीं दे दी उसने? मैं जब भी गांव जाता हूं तो उसके बारे में पूछताछ करता हूं तो सब लोग मेरा मजाक उड़ाते हैं और कहते हैं कि तुम्हें उसमें बड़ी रुचि है? मैं जब-जब आपको देखता हूं, तो मुझे उस सुंदरी की याद आती है...कहां गयी होगी बेचारी, क्या करती होगी? जिंदा भी है या नहीं? उसे गायब होकर भी आज सात साल हो गये...’

केतकी को समझ में नहीं आ रहा था कि इस पर क्या कहा जाए? उसने जैसे-तैसे कहा, ‘मिल जाएगी...अच्छी ही होगी।’ और इतना कहकर वह वहां से निकल गयी, पर उसे अपन शब्द खोखले लग रहे थे। उसे खुद को भी सुंदरी के बारे में भरोसा नहीं था। वह कब वापस आएगी इसका...वह ठीक होगी इसका...घर लौटने के बाद केतकी का कहीं मन नहीं लग रहा था। थोड़ी देर टीवी पर सर्फिंग करती रही, फिर टीवी भी बंद कर दिया। सीतामढ़ी गांव की सुंदरी लगातार उसकी नजरों के सामने आ रही थी। उसे नींद भी नहीं आ रही थी इन विचारों के कारण। वह भावना की राह देख रही थी। उसने कंप्यूटर ऑन करके इंटरनेट चालू किया। एलोपेशिया बीमारी के बारे में जानकारी निकालकर पढ़ने लगी। उसमें एक हिंदी समाचार पत्र की हेडलाइन पढ़कर पर थम गयी। उसने हिम्मत जुटा कर जैसे-तैसे वह खबर पढ़ी। खबर ने उसका कलेजा चीरकर रख दिया। ‘सिर पर बाल कम थे, चेहरा ढंक कर निकलना पड़ता था। परेशान होकर ट्रेन के सामने कूद गयी छात्रा, मौत।’

मध्यप्रदेश के खंडवा जिले की थी यह खबर। वहां की निकिता अनिल लाडे नामक की एक 21 वर्षीय महाविद्यालयीन युवती ने सिर पर बाल न होने के कारण ट्रेन के सामने कूद कर आत्महत्या कर ली थी। पुलिस ने उसके मृतदेह के पास मिले पर्स से उसका पहचानपत्र, आधारकार्ड, मार्कशीट और साथ में सुसाइड नोट भी बरामद किया। उसमें लिखा था, ‘मेरे सिर पर बाल बहुत कम हैं। कहीं भी जाते समय सिर ढंक कर ही जाना पड़ता था। बहुत इलाज करवाया, लेकिन बाल झड़ते ही गये। मैं बहुत परेशान हो गयी हूं। इस लिए आत्महत्या कर रही हूं। मुझे माफ कर देना मम्मी-पापा...आई लव यू...’

केतकी पसीना-पसीना हो गयी, ‘यह लड़की...निकिता...भावना से भी छोटी...केवल सिर पर बाल ने होने के कारण उसने आत्महत्या कर ली? ये दिन तो उसकी मौज-मस्ती के थे...तितली की तरह चंचलता भरे जीवन के थे...इस उम्र में ये क्या कर बैठी? किस लिए? समाज के ताने, बुरी नजरें उसे असहनीय हो गयी होंगी? निकिता ये तुम्हारी आत्महत्या नहीं है...समाज ने तुम्हारी हत्या की है...उसी समाज में मैं भी शामिल हूं...’

वह बड़ी देर तक खबर में छपी निकिता की छोटी सी तस्वीर की तरफ देखती रही। ‘कितनी सुंदर है...मासूम। न जाने कितने सपने, इच्छाएं, महत्वाकांक्षाएं होंगी इसके मन में...लेकिन केवल बाल होने की वजह से सब खत्म हो गया?’ उसने कंप्यूटर बंद कर दिया, भावना को एसएमएस किया, चाबी से दरवाजा खोल कर आ जाना। मैं सो रही हूं। उसे रात भर नींद नहीं आयी। जैसे ही आंख बंद करती उसकी आंखों के सामने हंसती-नाचती निकिता ही सामने खड़ी हो जाती थी...अचानक वह रोने लगती थी और रोते-रोते ट्रेन के सामने छलांग लगा देती थी। केतकी चौंक कर उठ गयी। बिस्तर से उठकर बैठ गयी। भावना ने नींद में ही पूछा, ‘क्या हुआ केतकी बहन?’ ‘कुछ नहीं, तुम सो जाओ।’ इतना कहकर केतकी फिर लेट गयी।

सुबह छह बजे केतकी उठी और उसने अपना नित्यक्रम निपटाया। रात भर का जागरण होने के बावजूद उसके चेहरे पर प्रसन्नता थी।  उसने भावना को उठाया, लेकिन वह हमेशा की तरह फिर से सिर तक चादर खींचकर सो गयी। लेकिन आज केतकी ने उसका दुलार करने के बजाय चादर खींच ली। पंखा बंद किया। परदे सरकाकर खिड़कियां खोल दीं। और बैठे-बैठे भावना के मोबाइल पर रिंग देने लगी। आखिर भावना उठकर बैठ गयी, ‘अरे तुम रात भर सोयी नहीं हो, थोड़ी देर तो आराम करो...और मुझे भी करने दो... ’

‘बहुत आराम हो गया....अब काम करने का समय आ खड़ा हुआ है। अर्जेंट काम है। आधा घंटे में तैयार होकर आओ...नहीं तो केतलीकी चाय सिर पर उड़ेल दूंगी...’ केतकी का स्वर और तेवह देखकर भावना को समझ में आ गया कि कुछ तो गड़बड़ है। अब सो नहीं सकते। वह तुरंत उठकर खड़ी हो गयी। केतकी रसोई घर में गयी। उसने भावना के लिए चाय बनाने के लिए रख दी। केतकी डायनिंग टेबल पर बैठकर अखबार में निकिता के बारे में खबर खोज रही थी। लेकिन गुजरात के अखबार में मध्यप्रदेश के एक छोटे से गांव में रहने वाली निकिता की खबर कैसे आती भला? और फिर उसमें पाठकों को कितनी रुचि रहेगी? केतकी इन विचारों में खोयी हुई थी कि भावना मुंह धोकर आ गयी। उसने तैयार होने के लिए आधा घंटे की बजाय पच्चीस मिनट ही लिए। केतकी ने उसके सामने चाय का कप रख दिया। कप को नीचे रखते हुए भावना ने पूछा, ‘ आज तुमको क्या हो गया? ’ ‘अब मैं जाग गयी हूं...’

‘वो तो मैंने देख ही लिया आधा घंटा पहले ही। लेकिन सुबह सुबह इतनी गंभीर क्यों दिख रही हो?’ ‘रात की नींद से नहीं, जीवन की नींद से जाग गयी हूं। मुझे क्या करना चाहिए, यह मैंने तय कर लिया है। इस काम में तुम मेरी मदद न करो तो भी चलेगा, लेकिन मुझे दूसरे आलतू-फालतू कामों में व्यस्त मत कर देना। ’

‘मैं तुमको आलतू-फालतू काम बताऊंगी क्या कभी...?’

‘हां, ब्यूटी कॉन्टेस्ट उसका ताजा उदाहरण है। अब मैं ऐसे किसी भी काम में पड़ने वाली नहीं। मैंने अपने जीवन का ध्येय तय कर लिया है।’

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

======