Agnija - 133 in Hindi Fiction Stories by Praful Shah books and stories PDF | अग्निजा - 133

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अग्निजा - 133

लेखक: प्रफुल शाह

प्रकरण-133

बाहर निकलने के बाद केतकी के मन में आया कि भागकर भावना को गले से लगा लिया जाए। पर उसने मन में कोई विचार आया और फिर उसने जानबूझकर अपने चेहरे पर गंभीरता का मुखौटा ओढ़ लिया। भावना उसकी तरफ देख रही थी, लेकिन वह उससे कुछ नहीं बोली। उल्टा जरा तीखे शब्दों में बोली, ‘चलो, जल्दी से यहां से निकलते हैं।’

होटल के बाहर आकर थोड़ दूर आगे बढ़कर केतकी बोली, ‘उपाध्याय मैडम को फोन लगाओ। कॉन्फरेंस कॉल करके चंदाराणा सर और प्रसन्न को बुलाओ..आज उन्हें साफ साफ शब्दों में बता देना है...सभी मुझे समझते क्या हैं?’

भावना ने डरते-डरते फोन लगाया। और वह धीरे से बोली, ‘केतकी बहन को आपसे कुछ कहन है...मुझे तो वह जरा नाराज दिख रही है...’ फिर उसने केतकी के हाथ में फोन दे दिया। ‘मैं हैलो हाय करने के मूड में बिलकुल नहीं हूं...ऑडिशन समाप्त हो गया है...बाकी सभी लोगों के नतीजे दो दिनों बाद घोषित होंगे...लेकिन मुझे उन्होंने ऑन द स्पॉट, मेरे मुंह पर एकदम साफ शब्दों में कह दिया कि..... ’ फिर वह रुंआसी होकर बोली, ‘यू आर सिलेक्टेड...’ इतना कहकर वह जोर-जोर से हंसने लगी। हंसते-हंसते ही वह वास्तव में कब रे लगी उसे भी पता नहीं चला। भावना को कुछ समझ में नहीं आ रहा था। वह कभी फोन को तो कभी केतकी की तरफ देखती रही। बाद में फोन को हाथ में लेते हुए बोली, ‘हम बाद में बात करते हैं.. फोन रखती हूं...’ फोन बंद करने के बाद वह केतकी की तरफ देखने लगी। भावना ने केतकी का चेहरा अपने हाथों से ऊपर करते हुए उसके आंसू पोंछे, ‘चलो, पार्टी करते हैं।’ ‘नहीं...ये सब अहमदाबाद पहुंच कर...’ ‘अरे, तब तक राह क्यों देखनी..? पहले कहीं पर बढ़िया सा खाना खाते हैं। आज तो तुमने सुबह से कुछ खाया ही नहीं, फल भी नहीं।’

फिर दोनों एक खास महाराष्ट्रियन रेस्टोरेंट में गयीं। वहां झुणका-भाकरी, मिसल और वड़ा पाव मंगवाया। यह सब बहुत तीखा था फिर भी उन्हें बहुत मीठा लग रहा था उसके बाद मुंबई की खास आइसक्रीम खायी। सच कहें तो जो कुछ हुआ, उस पर उन दोनों को भरोसा ही नहीं हो रहा था।

सुबह मोबाइल बज रहा था लेकिन साइलेंट पर होने के कारण उन्हें सुनाई नहीं पड़ा। भावना और केतकी गहरी नींद में थीं। एक बार इंटरकॉम बजा, पर भावना ने रिसीवर उठा कर बाजू में रख दिया। पंद्रह मिनट बाद डोरबेल बजी तब न चाहते हुए भी भावना को उठना ही पड़ा। दरवाजा खोला तो सामने वेटर खड़ा था। उसके हाथ में एक सुंदर सा गुलदस्ता था।

‘आप भावना मैम?’

‘हां, क्यों?’ ‘आपके लिए बुके आया है...’ वेटर ने बुके उसके हाथों में दे दिया। भावना को आश्चर्य हुआ, ‘बुके? वह भी मेरे लिए, किसने भेजा होगा? ये शहर कमाल का है...’

‘किसने दिया ये बुके?’

‘वो साहब ने...वहां साइड में खड़े हैं...’

‘कहां हैं?’ इतना कहकर भावना ने दरवाजे से बाहर झांककर देखा। तभी किसी ने उसे अपने दोनों हाथों से अपनी ओर खींच लिया। और उसके मुंह पर हाथ रख दिया। भावना देखती ही रह गयी। जैसे तैसे उसके मुंह से निकला, ‘प्रसन्न भाई? आप? यहां? इस समय?’ प्रसन्न ने हंसकर उसकी नाक पर ऊंगली रखते हुए चुप रहने का इशारा किया।

‘मुझे, कीर्ति सर और उपाध्याय मैडम को लगा कि केतकी को सरप्राइज दिया जाये इसलिए जैसे जैसे रात की ट्रेन में घुस गया।’

‘रिजर्वेशन मिल गया?’

‘कहां...जनरल डब्बे में बैठकर आया हूं। भीड़ इतनी थी कि पूछो मत...जैसे तैसे रात काटी है मैंने...आज मुंबई दर्शन में तुम लोगों के साथ मैं भी रहने वाला हूं। जल्दी से तैयार होकर नीचे आओ। मैं लॉबी में तुम लोगों का इंतजार कर रहा हूं।’

भावना को खुशी के मारे कुछ सूझ ही नहीं रहा था। केतकी बहन का सिलेक्शन और प्रसन्न का यूं इस तरह अचानक यहां आना...ये हो क्या रहा है?

‘खूब भूख लग रही है... ’ इस तरह का हल्ला गुल्ला करते हुए भावना नीचे चली गयी। केतकी भी तैयार होकर निकली। लेकिन दरवाजे में ठहर गयी। दरवाजे पर फूलों का ढेर रखा हुआ था। हर चार गुलाब के फूल के साथ एक केतकी का फूल था। जहां पैर रख रही थी, वहीं फूल ही फूल थे। जैसे-तैसे फूलों को बचाते हुए वह चलती रही। उसके आनंद में वृद्धि होती जा रही थी। मन ही मन वह खूब हंस रही थी। लेकिन ऊपर से उसे यह लग रहा था कि ये क्या पागलपन है? इतना खर्च करने की क्या आवश्यकता थी? ’ इतना कहकर उसने भावना का कान खींचा। तभी पीछे से आवाज आई, ‘इसमें उसकी कोई गलती नहीं है।’

केतकी ने पीछे मुड़कर देखा, तो हाथ में भारी-भरकम गुलदस्ता लेकर प्रसन्न हंसते हुए खड़ा था। ‘बहुत बहुत बधाई। हमेशा इन फूलों की तरह खिलते रहो.. सुगंध फैलाती रहो।’

‘थैंक्यू वेरी मच। लेकिन ये सब क्या है प्रसन्न? अभी केवल ऑडिशन हुआ है। अभी बहुत सारी मंजिलें तय करनी हैं। ये बेकार का खर्च क्यों?’

‘बच्चा जब जन्म लेता है, मिठाई तभी बांटी जाती है। उसके पढ़ने और कमाई करना शुरू करने पर नहीं। ये सफलता की शुरुआत है। बाद में जो हो सो हो, अभी तो इस क्षण का उत्सव मना लिया जाए। ’

‘अरे लेकिन...’

‘वो सब रहने दो...मुझे जोरदार भूख लगी है। भावना को भी लगी होगी।’

‘लेकिन मुंबई दर्शन के लिए देर तो नहीं हो जाएगी?बस निकल गयी तो?’

‘बस का टिकट कहां है? देखूं तो जरा समय...’

केतकी ने पर्स में से बस का टिकट निकालकर दिया, तो प्रसन्न ने उसे फाड़कर फेंक दिया, ‘बस? अब देर नहीं होगी।’

भावना दोनों की तरफ देखती रही। उसके चेहरे पर शरारती मुस्कान थी। आंखों में मस्ती थी। भावना और प्रसन्न ने एकदूसरे को आग्रह करते हुए खूब खाया। केतकी की सफलता के नाम पर। बीच में एक फोन आया तो प्रसन्न ने, ‘अभी नहीं आधे घंटे बाद...’ कहकर पहले पेट भर खा लिया। ‘भावना, भोजन के समय तक क्या करना है? तुम लोगों के पास कोई योजना है क्या?’ केतकी ने कहा, ‘मुंबई दर्शन का टिकट फाड़ क्यों दिया फिर?’ ‘वह सब छोड़ो, जो हुआ सो हुआ। चलो बाहर घूम कर आते हैं।’ प्रसन्न का फोन फिर से बजा। फोन पर केवल ‘हां’ कहकर उसने फोन काट दिया। तीनों होटल से बाहर निकले तो सामने एक लंबी-चौड़ी कार आकर खड़ी हो गयी। प्रसन्न ने उस आलीशान कार का दरवाजा खोला, ‘आइए, केतकी मैडम।’ केतकी अंदर बैठ गयी। उसके पीछे-पीछे भावना भी बैठ गयी। प्रसन्न सामने बैठ गया और उसने कार को आदेश दिया, ‘ऐसी मुंबई दिखाओ, जैसी पहले किसी ने न देखी हो।’

अनुवादक: यामिनी रामपल्लीवार

© प्रफुल शाह

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