विचार सरिता
विराट यज्ञ में मनुष्य द्वारा आहुति
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में कहा है:-
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः।।3/14।।
इसका अर्थ है,सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं।अन्न वर्षासे होती है। वर्षा यज्ञ से होती है। यज्ञ कर्मोंसे उत्पन्न होता है। कर्मों को तू वेद से उत्पन्न जान और वेद को परं ब्रह्म से प्रकट हुआ जान, इसलिए वह सर्वव्यापी परमात्मा यज्ञ में सदा ही प्रतिष्ठित हैं।
लौकिक जीवन में अन्न की बड़ी महिमा है। मनुष्य को भोजन चाहिए तो पशु पक्षियों को भी।वनस्पतियों को भी।लौकिक रूप से खाद्य पदार्थ अगर शरीर की पुष्टि और कार्यक्षम स्थिति के लिए के लिए आवश्यक है, तो हमारे मन और आत्मा की खुराक है सद्विचार। असीम शांति। भीतर की प्रसन्नता। भीतर की प्रसन्नता के लिए बाहर भी संतुलित रहना बहुत आवश्यक है। शरीर ईश्वर के रहने का मंदिर है और आत्मा में स्वयं परम ब्रह्म विराजित हैं तो यह भी आवश्यक है कि इस शरीर का संरक्षण होना चाहिए। शरीर की खुराक मनमाना खा लेने में नहीं है। पिछले श्लोक में यज्ञ के भोग उपरांत अर्थात परसेवा की भावना और उसे कार्यरूप में परिणित करने के उपरांत प्राप्त अन्न ही ग्रहण करना श्रेयस्कर है। कुल मिलाकर हम अपने कर्मों को यज्ञरूप बना लेते हैं।
अन्न के लिए धन - धान्य चाहिए उसके लिए वर्षा आवश्यक है। स्वाभाविक रूप से होने वाली वर्षा के अतिरिक्त मानव प्रकृति का संरक्षण कर अपने यज्ञमय कर्म के रूप में इसमें योगदान करता है।अब रही हमारे व्यवहार की बात तो यह अपनी आस्था के अनुसार वेदों और इसी तरह के प्रेरक ग्रंथों से प्रभावित है।वेद जैसे मार्गदर्शक ग्रंथ परमात्मा की प्रेरणा से ही युग ऋषियों द्वारा रचे जाकर परमात्मा से ही उत्पन्न हुए हैं। इस तरह से एक चक्र बनता है जो मनुष्य की अंतरात्मा उसके यज्ञमय कर्म ,उसके आचरण से पर्यावरण और परिवेश,वर्षा,अन्न यज्ञ रूपी बाह्य और आंतरिक आचरण,परोपकार व सेवा के रूप में पूर्ण होता है।सभी मानवों को अपनी-अपनी आस्था पद्धति के अनुसार इस विराट यज्ञ में सद्कर्मों की आहुति देने का प्रयत्न अवश्य करना चाहिए।
(श्रीमद्भागवतगीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा वीर अर्जुन को महाभारत के युद्ध के पूर्व कुरुक्षेत्र के मैदान में दी गई वह अद्भुत दृष्टि है, जिसने जीवन पथ पर अर्जुन के मन में उठने वाले प्रश्नों और शंकाओं का स्थाई निवारण कर दिया।इस स्तंभ में कथा,संवाद,आलेख आदि विधियों से श्रीमद्भागवत गीता के उन्हीं श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों को मार्गदर्शन व प्रेरणा के रूप में लिया गया है।भगवान श्री कृष्ण की प्रेरक वाणी किसी भी व्याख्या और विवेचना से परे स्वयंसिद्ध और स्वत: स्पष्ट है। श्री कृष्ण की वाणी केवल युद्ध क्षेत्र में ही नहीं बल्कि आज के समय में भी मनुष्यों के सम्मुख उठने वाले विभिन्न प्रश्नों, जिज्ञासाओं, दुविधाओं और भ्रमों का निराकरण करने में सक्षम है।यह धारावाहिक उनकी प्रेरक वाणी से वर्तमान समय में जीवन सूत्र ग्रहण करने और सीखने का एक भावपूर्ण लेखकीय प्रयत्नमात्र है,जो सुधि पाठकों के समक्ष प्रस्तुत है।)
(अपने आराध्य श्री कृष्ण से संबंधित द्वापरयुगीन घटनाओं व श्रीमद्भागवत गीता के श्लोकों व उनके उपलब्ध अर्थों व संबंधित दार्शनिक मतों पर लेखक की कल्पना और भक्तिभावों से परिपूर्ण कथात्मक प्रस्तुति)
डॉ. योगेंद्र कुमार पांडेय