नीलम कुलश्रेष्ठ
उनके बचपन ने मौत को बेहद करीब से देखा था। यों तो उनके अब्बा हुज़ूर उनमें अकल आने से पूर्व ही दुनिया से कूच कर गये थे, लेकिन मूसा कच्छी ने इस मौत को अपनी अम्मी जान की ज़िन्दगी के लिये जद्दोजहद कश्मकश में तिल-तिल कर उभरते देखा । कतरा-कतरा मौत अपनी पूरी शख्सियत से उनकी रूह समाती चली गयी । बड़े होते ही जैसे एक जुनून सवार हो गया मौत को पकड़ने का। किसी सड़क दुर्घटना की खबर मिलते ही दौड़ पड़ते सड़क पर पड़े जख़्मी आदमी को देखने, जो तड़प-तड़प कर मौत के करीब जा रहा होता । अस्पताल से किसी हितैषी का फोन मिलता, एक मरीज मौत के मुँह में जा रहा है, वे तुरंत अस्पताल पहुँच जाते। उन्होंने कई दिन कोल्ड रूम में बिताये, जहाँ बर्फानी ठंड़ से अधिक तो उन्हें एक के बाद सफ़ेद चादरों से ढंकी लाशों की विभीषिका ने थर्राया है, लेकिन मौत कब अपने समग्र रूप में किसके हाथ आयी है ? जो कुछ भी चेहरों की शिकनों की बेबसी, उसकी तड़प, अनंत यात्रा पर जाती आत्मा की बेचैनी का, जो कतरा हाथ आया मूसाजी ने उसे ही कैनवास पर उतारा।
अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त चित्रकार मूसा कच्छी गुजरात के कच्छ के सूमरा जाति से संबंधित हैं। कभी उनका परिवार राजकीय परिवार था लेकिन वक्त के थपेड़ों ने सब कुछ बदल दिया। उनके पिता की मृत्यु के बाद उनके बड़े भाई को बड़ौदा आना पड़ा। बाद वे भी बड़ौदा आ गये। पढ़ाई के साथ एक दुकान पर पेंटिंग और ड्राइंग करने लगे। बाद में उन्होंने सिनेमा के पोस्टर बनाना आरंभ किया।
उन्हें तभी एक शौक और लगा शरीर सुगठित बनाने का। उन्होंने शरीर इतना सुगठित कर लिया था कि फ़िल्म का एक भारी-भरकम पोस्टर जो दो-तीन लोग मिलकर उठाते थे, वे स्वयं ही अकेले उठाते किंतु बचपने में पीछा करती मौत की छवि फिर उन पर हावी हो गयी । उन्हें लगा जब मौत के बाद ये शरीर मिट्टी में ही मिल जाता है फिर क्यों शरीर के रख-रखाव के लिये तो इतनी मेहनत की जाये। कुछ ऐसा क्यों न किया जाये जो लोगों के लिये उपयोगी हो। वे अचानक आध्यात्मिक भी होने लगे । उन्हें लगने लगा कि वे अकेले अपने आपको सार्वभौमिक सत्य में ही विलीन कर दें । किसी ने उनके बनाये पोस्टर देखकर राय दी कि इस क्षेत्र में आदमी कहीं नहीं पहुंच पाता। वे क्यों न बड़ौदा फ़ाइन आर्टस में एडमिशन लेलें । उनकी उम्र अधिक हो चुकी थी । वहाँ दाखिला भी मुश्किल से मिला । वहाँ वे चित्रकला के विभिन्न आयामों का सात वर्ष तक अध्ययन करते रहे । वहीं से उन्होंने ग्रेजुएशन किया। पढ़ने के दौरान भी उन्होंने मौत को ही अपना मुख्य विषय बनाया । विभाग के लोगों ने उन्हें बहुत समझाया कि ‘यह विषय बहुत कठिन है, तुम्हारे चित्र नहीं बिकेंगे।’
मौत जैसे उनकी रूह में जज़्ब हो गयी थी । फिर तो वे चित्र बनाते चले गये। इसी शृंखला से संबंधित है, उनकी बेज़ोड़ कलाकृति ‘गुड बाई’ ।
पढ़ाई के बाद उन्होंने आजीविका के लिये सूरत की कपड़ा मिल में काम किया। लेकिन लगा अरे! कपड़े पर ड़िजाइन बनाने में रचनात्मक काम तो कुछ भी नहीं है फिर वहाँ भी नौकरी छोड़कर बड़ौदा में चित्रकला के अध्यापक हो गये तथा अपनी कला की साधना करने लगे।
"आज स्थिति यह है कि मेरे साथ पढ़ने वाले लोगों में किसी ने नौकरी करली, किसी ने व्यापार, सिर्फ़ मैं ही अब तक कला से जुड़ा हुआ हूँ ।
मुसाभाई के चित्र अति यथार्थवाद और कल्पना का मिला-जुला रूप हैं। वे कहते भी हैं," मैं अपनी ख़ुशी के लिये चित्र बनाता हूँ किंतु यह भी मानता हूँ, देखने वाले की वह समझ में भी आये और उसे उससे कुछ ख़ुशी भी मिले, देश और समाज के लिये भी वह उपयोगी हो तभी मेरी चित्रकला की सार्थकता है । मैं ऐसी कला पर विश्वास नहीं करता, जिसका सिर और पैर किसी की समझ में नहीं आये। "
जिस कला को उन्होंने जीवन का एक बड़ा अंश समर्पित किया, वही कला उन्हें किस मुकाम पर पहुँचा पायी ? ये बताते हैं, देहली में राष्ट्रीय कलाकारों की चित्रकला प्रदर्शनी में मैंने दो वर्ष से चित्र भेजना बंद कर दिया है । बच्चों के मुँह से निवाला छीनकर काफ़ी ख़र्च कर के पेंटिंग भेजना का इंतजाम कर पाता हूँ, नतीजा कुछ नहीं निकलता। वहाँ के लोगों ने चित्रों की प्रशंसा में जमीन-आसमान एक कर दिया लेकिन कोई चित्र ख़रीदने की कोशिश नहीं करता ।
भारत की ही एक तस्वीर यह भी है कि जिस कलाकार को सरकार राष्ट्रीय स्तर का कलाकार मानती है, आज उसके पास एक छोटा-सा स्टूडियो भी नहीं है। मूसा कच्छी के एक बिल्डर दोस्त एक सोसायटी बनवा रहे थे, उसी ने उन्हें एक कमरे का फ़्लैट बतौर स्टूडियो प्रदान कर दिया था। कुछ दिनों बाद वह फ़्लैट बिका, उनका स्टूडियो दूसरे फ़्लैट में चला गया। ऐसे ही तीसरे-चौथे फ्लेट में शिफ्ट होते गये। इस तरह दो वर्ष निकल गये। अब स्थिति यह है कि उनकी इस उधार के स्टूडियो में बनायी पेंटिंग घर के कोने में सिमट आयी है और वे स्वयं?
"बस, अब मन चित्र बनाने से उचाट ही गया है । मैं शाम को मस्जिद चला जाता हूं, देर रात में लौटता हूँ, चित्रकला बहुत महंगा शौक है, कोई आर्थिक फायदा हो नहीं पा रहा। अपने पीछे पूरा लष्कर (परिवार) लेकर बैठा हूँ।"
"आप के व्यक्तित्व पर सबसे अधिक प्रभाव किसका पड़ा है ?"
"मेरी माँ का, उन्होंने ही मुझे सिखाया था कि कभी हराम की रोटी मत खाना, सचाई के साथ ही हमेशा रहना । मैं सच के साथ ही जिंदा हूं । राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर सिर्फ प्रशंसा ही मेरे हिस्से में आय़ी है फिर भी मैं मानता हूँ रियायतों के सफ़े तोड़कर आगे बढ़ो वरना जो लोग तुमसे आगे हैं, रास्ता नहीं देंगे ।
दोस्तों के बहुत समझाने पर उन्होंने आधुनिक चित्रकला का एक नया रास्ता चुना है, जिसमें ज़िन्दगी के अन्य रंग भी मुखरित हुए हैं। चार महीने की कड़ी मेहनत से उन्होंने एक चित्र बनाया ‘द ग्रेट क्रिएशन’। एक बार बड़ौदा आते ही राजीव गाँधी ने कहा था कि मैं मूसा कच्छी से मिलना चाहता हूँ । मेनका गाँधी को भी उनकी कला की कशिश उनके स्टूडियो ले गयी थी ।
"राजीव जी आपसे मिलने आये थे ?"
"पहले तो उनके मुंह से मेरा नाम सुनकर सारे अफ़सर हैरान हो गए थे। बाद में उन्होंने मेरे मिलने का इन्तज़ाम करवाया था। "
"राजीव जी से मिलने के बाद भी आपकी स्थिति नहीं सुधरी ?"
"राजीव जी ने दिल्ली में होने वाली मेरी एकल प्रदर्शनी के उद्घाटन का भी वायदा किया था, लेकिन गुजराती में एक कहावत है ‘अक्करमीनो पडियो काणो’ अर्थात् भाग्यहीन के दोने में भी छेद होता है, जो भी डालो नीचे से निकल ही जाता है । देहली की प्रदर्शनी की बात चल ही रही थी कि राजीव जी बम विस्फोट में मारे गये । "
"आपके जीवन की यादगार घटना ?"
"जब मैंने मुंबई के वानखेड़े स्टेडियम में सचिन तेंदुलकर को उनका बनाया पोट्रेट गिफ्ट किया था। "
उनकी तपस्या से दिन बदलने लगे थे। उन्हें अमेरिका में प्रदर्शन लगाने का मौका मिला था. गुजरात ललित कला अकादमी से एक लाख का पुरस्कार पाने वाले मूसा जी ने इंदिरा गांधी जी, अमिताभ बच्चन, बिल क्लिंटन, शबाना आज़मी के चित्र बनाये थे, अपनी मृत्यु से दो वर्ष पहले उन्हें अम्बानी परिवार ने अपने परिवार के सदस्यों के पोट्रेट बनाने के लिए अनुबंधित किया था।
इनका जन्म जामनगर ज़िले में 13 अक्टूबर 1943 को हुआ था। दिसम्बर 2015 में बड़ौदा में उनका इंतकाल हो गया था।
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नीलम कुलश्रेष्ठ
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