36----
===============
कुछ देर बाद अम्मा-पापा मेरे कमरे की ओर आए और उन्होंने मुझे बताया कि वे दोनों सड़क पार ‘मुहल्ले’ में जा रहे हैं, उनके पास महाराज का फ़ोन आ गया था | मेरी आँखों में प्रश्न देखकर पापा ने मेरे सिर पर हाथ रखकर कहा कि वे देख लेंगे, वहाँ जिस चीज़ की ज़रूरत होगी, मुझे चिंता नहीं करनी चाहिए | उन्होंने ड्राइवर को फ़ोन कर दिया था और वह बड़े गेट पर गाड़ी ले आया था | जितना वह स्थान पीछे से पास दिखाई देता था उतना ही घूमकर जाने पर लगभग आधा कि.मीटर जाना पड़ता था | अम्मा-पापा वहाँ तक पैदल नहीं चल सकते थे |
मुझे अच्छा लगा उन लोगों के वहाँ जाने का निर्णय लेकिन मन में यह विचार भी था कि अम्मा-पापा उनके बड़ों की हैसियत से जा रहे हैं, मैं जानती थी वे उस परिवार को किसी भी प्रकार की परेशानी में नहीं देख सकते थे लेकिन मुझे भी तो जाना चाहिए था, शीला दीदी और रतनी मुझसे कितने खुले हुए थे | सारी परेशानियाँ, समस्याएँ मुझसे साझा करती थीं वे दोनों !पापा मेरे मन में उठने वाले तूफ़ान को समझ रहे थे इसीलिए वे बार-बार मेरे सिर पर हाथ रखकर सांत्वना देने का प्रयास कर रहे थे | अम्मा की आँखों व चेहरे पर भी लगभग वही भाव थे, जैसे पापा के चेहरे पर थे |
“अभी तुम वहाँ न जाओ तो ही ठीक है बेटा---पता नहीं अभी क्या स्थिति होगी ? हम लोग जा ही रहे हैं | हो सकता है पैसे की ज़रूरत हो, पुलिस भी परेशान करती है ऐसे में !एक बार हो आएँ, बताते हैं आकर---”मैं चुप बनी रही | क्या ही बोलती उनके सामने ? यह ज़िद करने जैसी बात या स्थिति भी नहीं थी |
अम्मा-पापा तुरंत निकल गए, अभी तो पूरी तरह शायद वे जागे भी नहीं होंगे | पापा को तो पूरी तरह जागने में समय लगता था, हाँ---अम्मा की आँखें एक खटके में खुल जातीं | यह तो ऐसी स्थिति थी कि वे दोनों ही पूरी तरह जागृत लग रहे थे | घबराहट के कारण अम्मा का मुँह पीला पड़ा हुआ था | उन दोनों के निकलते ही मैं फिर से खिड़की पर आकर चिपक गई | पीछे बड़ी सी बाउंड्री वॉल थी जो वैसे तो काफ़ी ऊँची थी लेकिन नीचे कुछ डिब्बा या कुर्सी या कोई ऊँचा पत्थर रखकर गार्ड के बच्चे उन पर चढ़कर बाहर की ओर झाँकते रहते थे | इस समय भी वे किसी टीन के डिब्बे पर चढ़े उस दीवाल पर लटके हुए थे | वैसे वे इस समय सो रहे होते हैं लेकिन शायद अफरा-तफ़री में वे जाग गए होंगे | माता-पिता तो घर में थे नहीं | संस्थान का कोठी वाला और पीछे वाला हिस्सा इतना पैक था कि बच्चों की कोई चिंता नहीं थी | उन्हें यह समझाया हुआ था कि भूख लगे तो महाराज को बता दें | रसोईघर की खूब बड़ी सी खिड़की और एक दरवाज़ा भी उधर की ओर था | महाराज भी बच्चों के माता-पिता की अनुपस्थिति में बच्चों का ध्यान रखते थे |
मुझे अपने कमरे से सड़क पर होने वाली सभी गतिविधियाँ दिखाई दे रही थीं | अम्मा-पापा की गाड़ी भी आकर सड़क पर खड़ी हो गई थी | अंदर मुहल्ले की गलियाँ छोटी होने से वहाँ साइकिलें, दोपहिया वाहन, अधिक से अधिक ऑटोरिक्शा तो किसी तरह चले जाते थे लेकिन छोटी गाड़ी भी अंदर ले जाने से लोग कतराते थे क्योंकि सामने से साइकिल भी आती तो फँसने का अवसर बन जाता था |
सामने भीड़ बढ़ती जा रही थी और कुछ पुलिसकर्मी अपने डंडे हवा में घुमाते हुए उन्हें हटाने का अपना कर्तव्य पूरा कर रहे थे | हाँ, शीला दीदी का घर सड़क के किनारे होने से दृष्टि वहाँ तक बिलकुल सीधी चली जाती थी | इस जासूसी के शुभ काम के लिए मैं अपनी खिड़की पर कभी भी तैनात हो जाती थी | उस घर को मुहल्ले वालों ने घेर रखा था लेकिन पुलिस को देखते ही वहाँ से खिसकने में ही शायद उन्हें अपनी खैर दिखाई दी होगी | पुलिस के डर के कारण मुहल्ले के लोग जिन्होंने शीला दीदी के घर को घेर रखा था अब चार/छह के टोले बनाकर सड़क पर निकलकर गुटबंदी सी करके खड़े शीला दीदी के घर की ओर अजीब-अजीब से इशारे करके सड़क पर चलते हुए तमाशा देखने के लिए रुके हुए अनजाने लोगों को भी शायद उस परिवार का इतिहास बताने के अपने पावन कर्तव्य में व्यस्त हो गए थे | उनकी भाव-भंगिमा से स्पष्ट पता चल रहा था कि वे लोग स्वयं को महान घोषित करने का ठप्पा लगवाने के पुण्य काम में बड़ी शिद्दत से मशगूल थे |
अम्मा-पापा भी क्षण भर को दिखाई दिए लेकिन फिर भीड़ में न जाने कहाँ सरक गए | लगभग घंटे भर मैं यूँ ही खिड़की से झाँकती रही फिर मुझे थकान होने लगी और मैंने आकर अपने आपको पलंग पर गिरा दिया | रात को ठीक से नींद न होने के कारण मुझे बहुत जल्दी थकान होने लगती थी और जहाँ मैं बिस्तर पर गिरती, आँखें बंद हो जाती थीं यद्यपि नींद नहीं आती थी लेकिन आँखें जैसे कोई चिपका देता था, खुलती ही नहीं थीं | इस बात से भी मैं काफ़ी परेशान रहती | योग, मेडिटेशन आदि के लिए मुझे कहा गया था लेकिन न जाने क्यों रेग्युलर कुछ भी न हो पाता | वैसे तो लगातार नृत्य ही करती रहती तो वह क्या कम था?
नहीं पता कब मेरी आँखें लग गईं जैसा अक्सर हो जाता था फिर कई घंटे बाद खुलती थीं, अंदर वही सब नाटक चल रहा होता जिसे ओढ़कर मेरी पलकें झपक जाती थीं लेकिन कुछ भी स्पष्ट न होता | ऐसा होता कम ही था लेकिन कभी मस्तिष्क के अधिक परेशान हो जाने से यह होता ही रहता था | आज भी बिना कमरे का दरवाज़ा बंद किए मैं पलंग पर अर्ध निद्रावस्था में या आधी बेहोशी की हालत में पड़ी थी |
अम्मा-पापा ने बाहर से दरवाज़े को नॉक किया तब मैं हड़बड़ाकर उठी और खिड़की की ओर आधी मुँदी आँखों से चल पड़ी | अम्मा ने आगे बढ़कर मुझे झकझोर दिया |
“कहाँ जा रही हो बेटा ? ” तब पूरी तरह मेरी आँखें खुलीं लेकिन फिर भी मैं सहज स्थिति में नहीं थी | आगे बढ़ते हुए मेरे पैर वहीं रुक गए और मैं फिर से पलंग पर धम्म से बैठ गई |
“क्या हुआ ---? ” उनींदी आवाज़ में मैंने पूछा |
“कुछ नहीं ----सब हो गया---” पापा ने कहा | अम्मा-पापा दोनों पलंग पर मेरे दोनों ओर बैठे थे |
मेरी यह समझ में नहीं आ रहा था कि आखिर हुआ क्या? बाहर से नॉक हुई ---
“आ जाइए महाराज----”पापा बोले, शायद ये लोग मेरे लिए कॉफ़ी बनाने के लिए कहकर आए थे |
अम्मा ने महाराज से कॉफ़ी ले ली और मुझसे कहा कि मैं फ़्रेश होकर आ जाऊँ | उन्होंने मेरी साइड टेबल पर कॉफ़ी रख दी | मेरी आँखें अचानक सामने की दीवार घड़ी पर पड़ीं | बारह बज गए थे !मैंने अपनी आँखें मसलीं और खिड़की से होती हुई वॉश-रूम में चली गई | इस समय तो सड़क पर कुछ भी नहीं था | मैं स्वप्न देख रही थी क्या? अजीब सी मन:स्थिति में मैं वॉशरूम गई और जल्दी ही ब्रश करके, मुँह-आँखें धोकर बाहर आ गई | अचानक मेरा दिल बुरी तरह से धड़कने लगा |
पापा मेरे पलंग के साइड में पड़े सोफ़े पर बैठ चुके थे, अम्मा वहीं पलंग पर थीं | मैं भी पापा के पास जाकर सोफ़े पर बैठ गई | अम्मा मुझे कॉफ़ी देने के लिए उठने लगीं तो पापा ने उन्हें हाथ से इशारा कर दिया | मेरी कॉफ़ी उनके अधिक करीब थी, उन्होंने हाथ उठाकर मुझे कॉफ़ी का मग पकड़ा दिया |
“क्या हुआ है---बताइए तो---”मैंने कॉफ़ी सिप करते हुए पूछा, लग रहा था मैं नशे में बोल रही थी |
पापा ने मुझसे कुछ छिपाए बिना जगन के बारे में सब कुछ खोलकर बताया तो लेकिन मुझे लग रहा था कि उसके बारे में वे दोनों मुझसे अधिक बात नहीं करना चाहते थे |
“मुझे जाना चाहिए न ? ” स्वाभाविक था, मैं बहुत-बहुत असहज थी | मेरे अंदर क्या चल रहा था? मैं उनके साथ कैसे शेयर करती जो कुछ वे मुझसे साझा नहीं करना चाहते थे? मुझे तो अर्ध निद्रावस्था में जैसे एक धुंधली सी फ़िल्म से बहुत कुछ पता चल गया था |
“पुलिस से किसी तरह पीछा छूटा, फिर----” पापा कहते हुए चुप हो गए | मैने इस विषय में कोई उत्सुकता नहीं दिखाई |
“दिव्य और डॉली कहाँ हैं? ” कॉफ़ी गले में उतारते हुए बच्चों के बारे में मेरी चिंता उत्सुकता के रूप में स्वाभाविक रूप में बाहर निकल आई |
“दिव्य को वहीं रहना होगा अभी, डॉली को हम लोग सोच रहे थे कि यहाँ ले आते लेकिन वह रतनी को छोड़कर आने के लिए तैयार नहीं है---” अधूरी सी बात कहकर वे फिर से चुप हो गए---
“सब लोग ठीक हैं ? ”मैं बेचैन थी और किसी तरह शीला दीदी, रतनी, दिव्य और डॉली को देख लेना चाहती थी | अम्मा, पापा दोनों मेरे मन की स्थिति समझ रहे थे |
“तुम हो आना बेटा लेकिन इतनी जल्दबाज़ी मत करो | सब ठीक है वहाँ, क्या कर सकते हैं ? ”अम्मा ने व्यवहारिक बात की | कुछ देर मेरे पास बैठकर वो दोनों चले गए |