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उस रात कितने ही चित्र मेरी आँखों के सामने गड्डमड्ड होते रहे | कभी-कभी मुझे लगता कि मैं किसी खोज में चलती ही जा रही हूँ, चलती ही जा रही हूँ लेकिन कहाँ? धूल भरे रास्तों की ओर, नदी-पर्वत को पार करते हुए, किसी की निगाह को पहचानने की कोशिश में----पता नहीं कहाँ ? धुंध भरे रास्ते और किन्ही सँकरी गलियों में से निकलने को आतुर मन ! लेकिन कुछ भी स्पष्ट नहीं होता था | सच कहूँ तो मुझे बड़ी शिद्दत से लगने लगा था, मुझे किसी मनोवैज्ञानिक इलाज़ की सख्त ज़रूरत थी जो मेरे मन के चोर को पकड़ सके, मैं तो अपने लिए ईमानदार बन ही नहीं पा रही थी | मुझे वह बता तो सके मेरे मन के सागर में इतनी लहरें आखिर क्यों मुझे डुबाती-उतारती रहती हैं या फिर इंसान का मन ही ऐसी गुत्थी है? भई, बड़े-बड़े संत, विद्वान कहते हैं न कि मनुष्य के मन में एक पल में न जाने कितने विचार चलते हैं ! मस्तिष्क कभी खाली नहीं रहता | तो क्या और सबके मन में भी इतनी उठा-पटक होती होगी? फिर तो कोई भी सामान्य नहीं है, सभी असामान्य हैं लेकिन दिखाई तो सामान्य देते हैं? पता नहीं, इंसान स्वयं अपनी बात कर सकता है, दूसरे के मन में कैसे कूदे? मैं भी तो सबको सामान्य ही दिखाई देती हूँगी लेकिन भीतर से तो मेरा मन जानता है कि क्या उठा-पटक चल रही होती है, हर समय !
कभी यह भी लगता कि समाज की बँधी-बंधाई लक्ष्मण रेखा के भीतर रहना ही सामान्य रहने की परिभाषा है क्या? यानि-----मुझे ऊपर से दिखाई देने वाले सभी लोग इसलिए सामान्य लगते हैं कि वे इन सरहदों के भीतर बने रहते हैं ! यह भी एक विषम प्रश्न था कि सच में सरहदों के भीतर रहते हैं या केवल दिखाई देते हैं? मेरे मन में जो मनोवैज्ञानिक से सलाह लेने की बात छोटी सी झिर्री से झाँक रही थी उसके लिए शायद अम्मा-पापा ने दो/एक बार इशारा भी किया था लेकिन वे डरते थे | क्या--हद है न, माता-पिता बच्चे से ही डरें? क्या इसीलिए उन्होंने जन्म दिया था ? ये सब बातें मेरे मन को उद्वेलित करतीं रहतीं जिनका प्रभाव नींद पर पड़ना स्वाभाविक था |
आज करवटें बदलते हुए कभी मेरे वे दोस्त सामने आ खड़े हुए जिन्होंने बरसों पहले मुझे अपनी ज़िंदगी में शामिल करने की इच्छा ज़ाहिर की थी, कभी कुछ वे जिन्हें अम्मा-पापा ने इसी विचार से कहीं न कहीं, किसी न किसी बहाने से मुझसे मिलवाया था, कभी आचार्य प्रमेश तो कभी श्रेष्ठ, जिससे मुझे आज ही मिलवाया गया था और सबसे आगे की पंक्ति में उत्पल! ये तो अपने आप ही मेरे करीब आता जा रहा था ----और मेरे इन उद्गारों, अहसासों को छोड़ भी दें तो दिव्य भी कई बार मेरी आँखों के सामने आया और मेरा मन उसके लिए करुणा से भर उठा | खैर, वैसे यह एक अलग विषय था दिव्य यानि शीला दीदी के परिवार के लिए तो मेरे मन में प्यार, करुणा, सहानुभूति, आक्रोश--क्या-क्या नहीं भरा था? जो मैं सोचती, वही सब नींद न आने पर जैसे मेरे सामने फ़िल्म सी बनाता चला जाता और मैं उस फ़िल्म में अपने चरित्र बदलती रहती | अम्मा-पापा को मेरी आँखों के चारों ओर कालिमा दिखाई देती और उनके चेहरे मुरझाने लगते | आखिर उनकी बेटी को ऐसी कौनसी तकलीफ़, परेशानी है जो वह असहज नज़र आती है!
पता नहीं, गई रात के किन पलों में मुझे नींद ने अपनी आगोश में लिया हो लेकिन जब आँखें खुलीं तो सड़क पार के उस शोर ही से ! अधिकतर रात के जागरण के कारण मेरा पूरा शरीर टूटा सा लगता जैसे अंदर बुखार भरा हुआ हो | ऊपर से जब शोर से आँखें खुलतीं तब जैसे सिर फटने को हो जाता लेकिन यह तो लगभग हर दूसरे/चौथे दिन की बात थी फिर इतना प्रभाव क्यों पड़ना चाहिए था मुझ पर ? इससे निकलने के रास्ते भी थे ही और सबसे सरल रास्ता था, उस कमरे से कहीं दूसरी जगह चले जाना लेकिन ज़िद्दी बंदी को कोई समझाता भी कैसे? न जाने उस सबसे मुझे मोह था या उस जाले में मकड़ी जैसे उलझने का शौक?
जब खिड़की के पास जाती थी उस पर पड़े हुए भारी पर्दे खींच देना मेरी आदत में शुमार हो चुका था जिससे काँच की साफ़ खिड़कियों से सामने सड़क और सड़क पर का मुहल्ला दूर तलक दिखाई देता रहे | अभी पूरी तरह आँखें खुली भी नहीं थीं और रात में न सो पाने के कारण पूरा बदन बुरी तरह टूट रहा था | मुश्किल से पैर घसीटते हुए मैं अपने कमरे की फेवरेट खिड़की पर बिना स्लीपर पैरों में डाले ही पहुँच गई | लेकिन सड़क पर देखते ही मेरी आँखें पूरी तरह खुल गईं, मेरी आँखें चौड़ी हो गईं थीं | ये भीड़ तो समझ आती थी, कोई नई बात नहीं थी | हर दूसरे दिन के किसी भी नाटक के बाद मुहल्ले से निकलकर भीड़ सड़क तक पसर जाती थी, लेकिन ये पुलिस क्यों पसरी हुई थी यहाँ ? मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा | एक/दो पुलिसकर्मी नहीं, पूरी पुलिस की गाड़ी भरी हुई सड़क के किनारे पर खड़ी थी जिसमें से पुलिस वाले उतरकर इधर-उधर फैल रहे थे | कुछ तो अलग है, मैंने सोचा और पैरों में उलटे-सीधे स्लीपर डालकर कमरे का दरवाज़ा खोल दिया |
कमरे के बाहर भी अपने सहन में आज शांति नहीं, अफ़रा-तफ़री दिखाई दी | सब लोगों के चेहरों पर चिंता पसरी हुई थी, एक उद्विग्नता सबमें दिखाई दे रही थी और जैसे सब भागदौड़ में थे | पूरा स्टाफ़ जाग गया था, परिवार के गिनती के तीन लोगों में से एक मैं ही उनींदी सी जागी थी जिसकी आँखें किसी अनजानी चिंता में चौड़ी होकर चारों ओर का जायज़ा लेने की कोशिश कर रही थीं |
“क्या हो गया? ”गार्ड तेज़ी से जाता हुआ दिखाई दे गया | वह बोलने जा रहा था किन्तु कुछ ठिठका ---
“बोलो न क्या हुआ ? ” मैंने थोड़ा ज़ोर से पूछा |
“जी -----“कहकर वह फिर क्षण भर रुक गया और उसने मेरे चेहरे पर अपनी दृष्टि चिपका दी फिर जल्दी से बोल उठा ----
“वो जगन जी----शीला दीदी के भाई ----”
:क्या हुआ उन्हें? ”
“उनका एक्सीडेंट हो गया है | पुलिस आई है ---कुछ ज़्यादा चोट लगी दिखती है ---” उसके शब्द जैसे उसके मुख से फिसलकर भाग रहे थे |
“ओह !”मेरे मुँह से एक उदास आह निकली |
“कोई गया या नहीं शीलाजी के घर? ”संस्थान में वैसे तो कई गंभीर समझदार लोग थे, उन पर ही संस्थान चल रहा था लेकिन सबसे समझदार और गंभीर यह गार्ड ही था जो बरसों से सभी कठिन परिस्थिति संभाल लेता था | अभी काम की अधिकता के कारण कुछ नया स्टाफ़ आया था लेकिन उन्हें वैसा लगाव नहीं हो सकता था शीला दीदी और रतनी के परिवार से जितना इसको था | लंबे समय से काम कर रहा था और बरसों साथ रहने के कारण परिवार के सदस्य से ही हो जाते हैं ये लोग |
“मैं उधर ही जा रहा था ---छोटे को बड़े गेट पर बैठाकर ---” उसने कहा | गार्ड की सहायता के लिए अभी लगभग साल भर से दो युवकों को रखा गया था जो उसके निर्देश पर काम करते थे | उनमें से एक को छोटे और दूसरे को बाबू कहकर पुकारा जाता था | पता नहीं ये उनके नाम थे या फिर घर के प्यार के नाम ? गार्ड ही लाया था उनको !
“हाँ, जल्दी जाओ और देखो किसी चीज़ की ज़रूरत हो तो बताओ--–” मैं बहुत अनमनी हो चुकी थी | आदमी को किसी की इतनी आह भी नहीं लेनी चाहिए, मैं बड़बड़ करने लगी थी | महाराज मेरे लिए कॉफ़ी और अखबार लेकर मेरे कमरे के बरामदे में खड़े थे | उनका भी मुँह उतरा हुआ था | उनकी रसोईघर की खिड़की से तो सड़क पार की सारी हरकतें तक दिखाई देती थीं |
“कुछ पता चला क्या ? ”कहते हुए मैं अपने कमरे में आ गई | मेरा दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़क रहा था |
“लगता नहीं दीदी कि बचा हो ---” महाराज के मुँह से मरियल सी आवाज़ निकली |
वो मेरी कॉफ़ी और पेपर लेकर कमरे में मेरे पीछे-पीछे आ गए थे |
“आपको कैसे पता चला ? ”
“मैंने देखा दीदी, पूरा---”पता नहीं दिव्य कहाँ है ? बहुत बेचैनी होने लगी मुझे |
“पता नहीं दिव्य कहाँ है? बेचारा बच्चा !” मैं बड़बड़ाई तो महाराज बोले ;
“वहीं है, मैंने देखा रसोईघर से ---”
“हम्म---”निकला मेरे मुँह से और मैं अंदर आ गई |
मन बहुत उद्विग्न था, अम्मा-पापा को तो पता तक नहीं होगा | वे दोनों सोए हुए थे | शायद रतनी ने बेटे को फ़ोन किया हो और दिव्य वहाँ चला गया हो ! मन परेशान हो रहा था | वह परिवार अब हमारे परिवार का ही हिस्सा बन गया था जैसे--हम लोगों का ऐसे समय में उनका सहारा होना चाहिए | मैं वहाँ जाने का साहस नहीं कर पा रही थी | वैसे भी पापा से पूछे बिना मैं उस मुहल्ले में नहीं जा सकती थी | मैंने महाराज से पूछा कि शीला दीदी के पास कोई महिला गई हैं क्या? उन्होंने बताया कि गार्ड ने पहले ही अपनी पत्नी को वहाँ भेज दिया था | मैंने एक छोटी सी साँस ली और महाराज से कहा कि अम्मा-पापा के कमरे में उनकी चाय ले जाएँ और जब वे चाय पी लें तब उन्हें बताएँ | बेशक इसके लिए उन्हें वहाँ दुबारा जाना पड़े | मुझे चिंता भी हो गई थी कि उन दोनों को इस हादसे का अचानक पता चलने से उन्हें एकदम झटका न लगे और उनके स्वास्थ्य पर इसका कुछ विपरीत प्रभाव न पड़ जाए!पहले ही उन्हें कहाँ कम चिंताएँ थीं !इस समय शीला दीदी और रतनी को किसी भी तरह की ज़रूरत पड़ सकती थी इसलिए उन दोनों को तुरंत बताना ज़रूरी भी था | मैंने महाराज से कहा कि इस काम के बाद दूसरे स्टाफ़ को काम सौंपकर वह भी वहाँ जाएँ और मुझे वहाँ की स्थिति के बारे में बताएँ | मैं अभी शीला दीदी या रतनी को फ़ोन नहीं कर सकती थी |
आदमी अरबों का हो या कौड़ी का, उसके परिवार के लिए यह समय बड़ा कठिन होता है | क्यों बनाई भगवान ने यह दुनिया? देखो तो सही अपनी दुनिया का हाल! ये मिट्टी के खिलौने कहीं भी, कभी भी टूटकर बिखर जाते हैं | खैर, यह सच है कि किसी भी भौतिक चीज़ का होना, न होने में परिवर्तित होना शाश्वत सत्य है किन्तु ज़रूरत क्या थी इस दुनिया की? न ही बनती दुनिया तो क्या हो क्या हो जाता, जो अब हो रहा है? मैं भीतर ही भीतर असहज हो जाती थी | क्या मैं यह सब सोचकर कोई तोप चला लेती? मेरे हाथ में था क्या कुछ ? फिर किसी भी बात के लिए इतनी उद्विग्नता क्यों? क्या मेरे एकाकी जीवन के कारण? कुछ बुद्धि में न आता | पल भर के लिए विचार आते और फिर न जाने कहाँ तिरोहित हो जाते !
मैं उद्विग्न सी अपनी खिड़की के पास बैठी उधर की ओर ताकती रही, पता नहीं क्या सोचती रही ? शायद यह कि मैं कैसे और क्यों किसी के लिए ऐसे गलत विचार रख सकती थी जो मेरे दिल में जगन के लिए हमेशा से ही थे ! जब इंसान दुनिया में आ ही गया हो तो उसे जितने दिन मिले हों, जीने का अधिकार तो है न !मैं कौन होती थी कुछ भी सोचने के लिए जब उसका परिवार कैसे न कैसे भी उसे निभा तो रहा ही था | इसी बात से तो मैं कुढ़ती थी, मैं अपने आपसे झूठ नहीं बोल सकती थी | अनमनी आँखों में आँसू, दिल में घबराहट लेकर मैं जैसे कुर्सी पर जम सी गई | सामने रखी मेरी कॉफ़ी पानी बन चुकी थी |