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समय के साथ-साथ सुलेमा और कबीर के बीच की नजदीकियाँ बढ़ने लगीं। सुलेमा के परिवार वालों को कबीर और सुलेमा की दोस्ती से ऐतराज नहीं था। कबीर बाग से फूल लाकर हवेली के कोने-कोने में सजाता और साथ-साथ सुलेमा भी कबीर की मदद करती, उन दोनों में गहरी दोस्ती कायम होने लगी। सुलेमा को कबीर का हवेली में आना-जाना अच्छा लगता था। सुलेमा की खिलखिलाती हँसी कबीर में एक नया जोश भर देती। सुलेमा की खुशी के लिए कुछ भी करने को हर दम तैयार रहता था।
कबीर का अक्सर हवेली में आते-जाते रहना सुरेय्या को बिल्कुल पसंद नहीं था। इस तरह कबीर और सुलेमा की दोस्ती कहीं कोई बड़ी मुसीबत खड़ी न कर दे, इस बात का डर था, लेकिन कबीर के सामने कुछ कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाता। बड़े लोगों से दोस्ती कोई विपदा खड़ी न कर दे, यह बात सुरैया को डरा रही थी। जितना जल्दी हो सके कबीर को शहर वापस भेज देना चाहता था। उसका डर बेवजह नहीं था हुआ भी यही था।
उन दोनों की दोस्ती कब प्यार में बदल गई उन्हें पता ही नहीं चला। घण्टों एक-दूसरे के बारे में सोचना, चोरी-चुपके से कभी बाग में मिलना, कभी कुछ बहाने से हवेली में आते-जाते रहना, हवेली के लोगों को भी आदत सी पड़ गई। इसलिए उन्हें कभी कोई पहरेदार रोकने की हिम्मत नहीं करता था, न ही किसी को उन पर कोई शक हुआ, लेकिन जो होना होता है उसे कौन रोक पाता है। हवेली की राजकुमारी, सुकुमारी सुलेमा तब तक कबीर से गहरे प्यार में बँध चुकी थी।
एक दिन सुलेमा और कबीर की नजदीकियाँ, सुलेमा के चाचा अहम्मद अली को पता चला गया। यह बात राजा मुहम्मद अली तक पहुँचने में देर नहीं लगी। फिर कबीर के लिए कानून कड़े कर दिए गए।
एक दिन सुरेय्या को हवेली से बुलावा आया। साफ-साफ लफ्ज में कबीर को शहर भेजने के लिए ताकीद कर दिया गया और उसी दिन कबीर शहर के लिए रवाना हो गया। जाने से पहले वह सुलेमा से मिलना चाहता था लेकिन उसे मौका नहीं दिया गया।
महीनों बीत गए। कबीर की कोई खबर नहीं मिली। सुलेमा, कबीर के इंतजार में दिन गिनती रही। सारा से कबीर के बारे में पूछती मगर सारा किसी न किसी बहाने से वहाँ से चली जाती। छह महीने बीत जाने के बाद भी कबीर की कोई ख़बर न आने पर सुलेमा परेशान होने लगी। सारा से कबीर के बारे में जानना चाहती मगर सारा टाल जाती। एक दिन वह सारा से छत पर मिली । कबीर की कोई खबर न मिल पाने से अपनी चिंता साफ-साफ जाहिर की। कबीर से संबंधित सारी बात जानने की कोशिश की।
मगर उसने कुछ नहीं बताया और रोती रही। इस बात से सुलेमा और भी घबरा गई और साफ-साफ बताने को कहा। सारा रोती हुई वहाँ से चली गई। सुलेमा सारा के व्यवहार से दुखी होकर पूरी तरह हिम्मत हार चुकी थी। वह खुद सारी बात जानने के लिए सारा के घर पहुँची। सुलेमा, सुरेय्या से पूछने पर उसने कड़क आवाज़ से कहा,‘‘यहाँ से चले जाइए, मेम साहब हम बहुत छोटे लोग हैं, अगर आपको यहाँ किसी ने देख लिया तो फिर ठीक नहीं होगा। नहीं, हम कबीर के बारे में नहीं जानते चले जाइए यहाँ से, आपका अहसान होगा।"
सुलेमा के कुछ कहने से पहले ही सुरेय्या ने बीच में ही रोक दिया । “देखो बेटी जिस दिन से कबीर हवेली छोड़कर गया, तब से लेकर आज तक कबीर के बारे में कोई भी ख़बर नहीं मिली। न कोई चिट्ठी, न ही कोई ख़बर जब हम ही कुछ नहीं जानते तो आपको क्या बता सकते हैं? इसलिए हम जैसे हैं वैसे ही हमें छोड़ दीजिए और आप यहाँ से जाइए। यह सोच लें कि कबीर नाम का कोई शख्स था ही नहीं। यही आपके लिए और हमारे लिए ठीक रहेगा।” आँखों में आँसू लिए वहाँ से चली गई सुलेमा।
सारा ने सुरेय्या को पूछने पर बताया, "बहुत दिन तक सब यही सोच रहे थे कि कबीर शहर चला गया लेकिन कबीर के जाने के चार दिन बाद जब कबीर के ऑफिस से बुलावा आया तब हम सब परेशान हो गये थे। और जब मैंने शहर जाकर पूछताछ की तब खबर मिली कि घर से जाने के बाद वह कभी ऑफिस पहुँचा ही नहीं।" सबके होश उड़ गये थे, सुरैया सिर पकड़कर जमीन पर बैठ गया। शहनाज बेहोश हो गई। बहुत पूछताछ करने के बाद भी कबीर की कोई खबर नहीं मिली। पुलिस में भी दरख़ास्त की गई, पता चला वह इस दुनिया में नहीं है, किसी ने जंगल में उसे गोली मारकर हत्या कर दी है।
सुलेमा और कबीर की दर्दभरी कहानी सुनकर मेंहदी दुखी हो गई। अजनीश भी स्तब्ध हो गया। मेंहदी और अजनीश रघु काका के घर से वापस आ गये। रास्ते में दोनों के बीच मौन राज कर रहा था। वे कुछ देर नदी के किनारे बैठ गये। सूरज की किरणें नदी के पानी में आँख-मिचौली खेल रही थी। सुनहरा रंग मिश्रित लाली नदी पर इंद्रधनुष का आभास दे रहा था। नदी के पानी में पैर रखकर बैठी मेंहदी सोच में डूब गई। वह ये भी भूल गई कि अजनीश पास में खड़ा है। शाम का सूरज डूबने को कुछ ही वक्त था। थोड़े समय बाद मेंहदी ने सोच से बाहर आकर अजनीश से सवाल किया, "क्या आप वही सोच रहे हो जो मैं सोच रही हूँ ?
"शायद ।"
रघु काका ने जो भी कहा और मैंने जो खुली आँखों से देखा है, ये दोनों कहीं न कहीं जुड़े तो नहीं हैं ?"
"हो भी सकता है और नहीं भी......"
“क्या आपको अब भी ऐसा लगता है कि मैंने जो सब देखा है भ्रम है? या मनगढ़ंत है।" “नहीं मैं ये नहीं कह रहा कि आपने झूठ कहा है, मैं ये कहना चाहता था कि यह सब आँखों का भ्रम हो सकता है या कोई बुरा सपना। इस बात को दिल पर लेना ठीक नहीं है। ये सब भूल जाओ और बस दो ही दिन की बात है फिर हम यहाँ से चले जाएँगे। इस बात को यहीं फुलस्टॉप देकर इस प्रकृति का मजा उठाएँ तो ठीक होगा, अब चलें अँधेरा हो रहा है।” दोनों हवेली वापस आ गये। समय पाँच बजकर तीस मिनट हुआ था। अभी तक अन्वेशा, स्वागता और बाकी सब लौटे नहीं थे। मेंहदी अपने कमरे में जाकर आराम करने की कोशिश करने लगी, मगर दिमाग कुछ और सोचने पर मजबूर कर रहा था। थकावट के कारण धीरे गहरी नींद की गोद में चली गई। जब मेंहदी की आँख खुली वक्त रात के ग्यारह बज चुके थे।