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कबीर एक सुंदर-सुशील नौजवान था। वह शहर में रहकर पढ़ाई करता था। वह अपनी रोजी-रोटी के लिए बच्चों के ट्यूशन लिया करता और उसी कमाई से अपना खर्चा चलाया करता। कभी-कभी कुछ पैसे अपने घर भी भेज दिया करता। इस वजह से उसके परिवार को दो हाथ सहारा मिल जाता था। एक माली का बेटा होते हुए भी पढ़ाई-लिखाई में वह बहुत होशियार था।
सुरैय्या को अपने बीवी-बच्चों के लिए दो वक्त का खाना जुटा पाना मुश्किल था। उसने अपने बेटे को शहर भेजने के लिए भी अपनी छोटी-सी जमीन गिरवी रख दी। बच्चों की पढ़ाई के लिए हवेली में नौकरी करने को तैयार था। कबीर की कामयाबी ने उनकी खुशियाँ दो गुनी कर दीं । कबीर अपनी पढ़ाई पूरी कर कुछ दिन के लिए घर आ रहा था। वह इस बार अपने परिवार को अपने संग शहर ले जाने के लिए सारी तैयारियाँ कर रखा था।
कबीर चाहे गरीब घर में पैदा हुआ हो उसके पिता सुरैय्या और माँ शहनाज हवेली में काम कर उसकी सभी जरूरतें पूरा करते थे। कबीर के भविष्य को लेकर बहुत सपने सँजोये थे दोनों ने। सुरैय्या सारा दिन बगीचे का काम करता और शहनाज हवेली की साफ-सफाई का काम सँभाल लेती। सुरैय्या हिंदू परिवार से था पर शहनाज से प्यार हो जाने के बाद उन्होंने हिंदू और मुस्लिम धर्म के तहत शादी और निकाह भी किया। न धर्म, न मज़हब, न ही दोनों के परिवार उन्हें अलग कर सके। वे दोनों इन सारी रीतियों से अलग अपना एक अलग मज़हब बना लिया। जिसमें प्यार के अलावा धर्म या मज़हब का कोई स्थान नहीं था। कुछ दिनों में उनके घर कबीर हुआ और फिर सारा, जो कबीर से चार साल छोटी है।
कबीर एक होनहार छात्र था। इस कारण उसे आगे की पढ़ाई के लिए स्कूल की ओर से स्कॉलरशिप मिला जिससे उसकी पढ़ाई का खर्च स्कूल ने उठाया । उसके अलावा भी बाकी के खर्चे जैसे शहर में रहते खाने-पीने का खर्च, किताबें खरीदना आदि के लिए पैसों की इंतज़ाम करना गरीब सुरेय्या के लिए मुमकिन नहीं था। बच्चों की ट्यूशन लेते हुए उसने अपना खर्चा खुद सँभाला और अपनी पढ़ाई जारी रखी।
कुछ ही दिनों में उसने अपना गिरवी रखा मकान भी छुड़ा लिया। कबीर की कामयाबी से सुरेय्या और उसका परिवार बहुत खुश थे। घर में खाना बनाने के लिए कुछ बर्तन के अलावा एक टेबल और पुराने एक पलँग के अलावा कुछ और नहीं था। कबीर की माँ सहनाज ने कबीर के आने की खुशी में सारे घर को सजा रखा था।
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बगीचे में सुंदर फूलों की मनमोहक खुशबू के बीच सूरज की लालिमा से भरे आकाश के नीचे सहेलियों के संग खेलना, फूलों पर उड़ती हुए तितलियों को पकड़ना सुलेमा को बहुत पसंद है। लेकिन हवेली के चारों तरफ लंबी दीवारें बाहर की दुनिया से हवेली को अलग करती हैं। सुलेमा के लिए बाहर की दुनिया एक अजूबा है क्योंकि इस राजपरिवार का पहरा बहुत सख्त था। बड़े लंबे लोहे के दरवाजे पर भयानक दिखने वाले पहरेदार हमेशा खड़े पहरा देते थे। किसी को अंदर आने या बाहर जाने के लिए कई पाबंदियाँ थीं।
दीवार के सामने खड़े होकर जब वह आर-पार देखती सुलेमा का मन करता कि पंख खोलकर दीवार के उस पार की रंगीन दुनिया में उड़ जाए। कभी जिद कर जब बाहर जाती भी उसके साथ कई द्वारपाल रहते जिन्हें देखते ही लोग गलियाँ छोड़कर घर में घुस जाते। चहल-पहल रंगीन खिलखिलाता गाँव एकदम सूना हो जाता था। कभी अगर दादीजान के साथ बाहर निकलती घर की खिड़कियों से कुछ चेहरे छिपकर देखते मगर सामने आने का साहस कोई न करते। इस तरह गाँव की गलियों की एक झलक देखने को मिल जाती।
गाँव के कच्चे रास्ते पर धूल उड़ाना, बहती हुई नदी के साथ-साथ ताल से ताल मिलाकर गुनगुनाना, पक्षियों जैसी मीठी आवाज निकालना, हवा के संग ताल देते नाचना सुलेमा को खूब पसंद है। प्रकृति की गोद में खिलती हुई हिरन जैसी चंचल-सी आँखों वाली सुलेमा को हवेली की शान कहा जाता था। सुलेमा के लिए खुला आकाश भी छोटा पड़ता था, फिर ये चार दीवारें उस छोटे से मन को कहाँ रोक पाते?
राजमहल में काम करने वाले लोग, बगीचे से कुछ दूर हवेली के पीछे नौकरों के क्वार्टरों में रहा करते थे। उन्हीं में से एक क्वार्टर में सुरेय्या और सहनाज भी रहते थे। कबीर की बहन सारा जो कबीर से चार साल छोटी है सुलेमा की खास सहेली में से एक है। एक दिन सारा ने कबीर से कहा, "भैया जाओ न मेरे लिए बगीचे से कुछ फूल तोड़कर ले आइए, मुझे सुलेमा के लिए गुलदस्ता बनाना है।" सारा पेपर पर ड्राईंग बनाते हुए कबीर को अनुनय करने लगी।
“अरे मैं क्यूँ, तुम जाओ न, मुझे यहाँ कोई पहचानता नहीं। फूल तोड़ते देखकर अगर किसी ने कोई शिकायत कर दी तो? नहीं रे बाबा, मुझे नहीं जाना तुम चली जाना।" सारा की तरफ सिर उठाकर एक बार देखा और फिर अपने काम में मग्न हो गया।
"नहीं भैया कुछ नहीं होगा, अगर कोई पूछे तो यह कह देना कि आप मेरे भाई हो, तुरंत ही छोड़ देंगे।" नाटकीय भँगिमा से कहा।
‘‘चल पगली, ठीक है ले आता हूँ लेकिन अगर मुझे कोई पकड़ लिया तो मुझे बचाने की जिम्मेदारी तुम्हारी, ठीक है।" कबीर अपना काम छोड़कर बगीचे की तरफ चल पड़ा।
बगीचा दूर-दूर तक फैला हुआ है। चारों ओर फूल ही फूल। रंग-बिरंगे गुलाब के साथ-साथ चंपा-चमेली, हर समय के हर रंग के फूल। हवा में खुशबू बिखरी हुई थी। जाने-अनजाने बगीचे में बहुत देर तक घूमता रहा। संध्या का समय था, बिखरी हुई फूलों की मनमोहक खुशबू के साथ हल्की-हल्की हवा मन को स्फूर्ति से भर देती। पीले रंग का कुछ गुलाब काटकर एक हाथ में रखा और कुछ तोड़ने ही वाला था कि...., "हे | तुम कौन हो? हमारे बगीचे में क्या कर रहे हो?" पीछे से एक लड़की की आवाज सुनाई दी। पीछे मुड़ने की कोशिश कर ही रहा था फिर से आवाज आयी, "हिलना मत, वहीं से जवाब देना, कौन हो तुम ? क्या नाम है तुम्हारा ?”
"जी मेरा..." कबीर कुछ कहने से पहले ही एक आवाज ने उसे टोक दिया। "जितना पूछा जाए उतना ही जवाब देना, ज्यादा बकवास मत करना, नहीं तो अंदर हो जाओगे ।”
"जी मेरा नाम कबीर मैं.......”
"कबीर हो या फकीर, यहाँ क्या करने आए हो ?”
“जी फूल तोड़ने........”
“तुम्हारी इतनी हिम्मत हमारे बगीचे से फूल चुरा रहे हो?"
“जी चुरा नहीं रहा, फूल......”
"पता है, अगर यहाँ तुम्हें कोई पकड़ ले तो सजा क्या मिलेगी?"
“जी नहीं।"
..."और सज़ा भी ऐसी कि जिंदगी भर जेल में सड़ोगे।"
"जी मैं, मुझे ..."
"अरे चोरी तो चोरी ऊपर से सीनाजोरी?"
"मुझसे ही बहस कर रहे हो?"
"मैंने तो अब तक कुछ कहा ही नहीं।" कबीर समझ गया अब और कुछ कहने सुनने को नहीं रहा, लगता है मुझे ये लड़की जेल में ले छोड़ेगी। अब जो होगा देखा जाएगा। उसने पीछे मुड़कर देखा, अचानक ही कोई वहाँ से हटकर पौधे में छुप गया।
इधर-उधर देखकर कबीर समझ गया कि उससे कोई मज़ाक कर रहा है। कबीर धीरे से खुद पौधे के पीछे छिप गया। बहुत देर तक चुप बैठा रहा। कोई आवाज न आने से सुलेमा अपनी जगह से बाहर आ गई।
"शायद डर के भाग गया।" कहते हुए जाने के लिए जब पीछे मुड़कर देखा बिल्कुल उसके सामने कबीर को खड़ा पाया। इस हठात परिणाम से सुलेमा घबरा गई।
सुलेमा का बेपर्दा चेहरा देखकर वह चकित रह गया। इतना खूबसूरत चेहरा उसने कभी देखा हो? उसकी कामयाबी से बहुत सारी लड़कियाँ उसके इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं लेकिन प्रकृति का असली सौंदर्य तो इस गाँव में है। जिसे उसने पहली बार देखा है, कबीर बिन पलक झपकाए देखता ही रह गया।
घबराहट को छिपाने के लिए, सुलेमा पौधे के पीछे से हट गई। "तुम, तुम अभी तक यहीं पर हो, जाओ, चले जाओ यहाँ से... इन फूलों के साथ पकड़े जाओगे तो अंदर बंदकर देंगे।"
सुलेमा को देख कबीर पलक झपकाना भूल गया था। चंचल आँखें, मासूम चेहरा, शरम से गाल गुलाबी पड़ गये थे। महिलाओं को बिना पर्दे के लोगों के सामने आना राजपरिवार इजाजत नहीं देता। इसलिए जब सुलेमा बगीचे में घूमने के लिए निकलती उस वक्त वहाँ किसी की भी मौजूदगी को गुनाह माना जाता था।
"यह सब आपके लिए।” हाथ के फूलों को आगे बढ़ाया।
“मेरे लिए, मुझे नहीं चाहिए, जल्दी से बाहर निकलो।" कहते हुए वहाँ से भाग निकली सुलेमा। हाथ में जो भी कुछ फूल थे वह लेकर घर पहुँचा कबीर।
"वह जो भी कोई थी, उसका चेहरा आँखों के सामने बार-बार आकर खड़ा हो जाता। अगर वह चाहती तो उसकी शिकायत कर सकती थी, लेकिन उसने ऐसा कुछ नहीं किया, उसे चुपचाप जाने दिया। बड़ा आश्चर्य हुआ कबीर को और जैसे कि उसने सब कुछ सारा को बताया तो सारा हँसने लगी।
“कहीं सब तुम्हारा रचाया हुआ खेल तो नहीं ?" कबीर सारा को शक की नज़र से देखने लगा।
"नहीं भैया, कसम से मैं नहीं जानती थी कि सुलेमा इस वक्त वहाँ आ सकती है। इसमें मेरा कोई हाथ नहीं है। हो सकता, सुलेमा ने तुम्हारे साथ मजाक किया हो और सुलेमा को मेरे भाई के बारे में सब कुछ पता है। इसलिए तुम्हें जाने दिया। "
“तो ये बात है।” कबीर ने कहा।