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अनमने सी मेंहदी बस में बैठी। तीन बजे उसे पता चला कि कॉलेज से निकली बस से स्वागता गायब है और उसके साथ कुछ और दोस्त भी। इस खबर से वह जरूर परेशान हुई लेकिन अपनी माँ से इस बात को छुपा कर रखा। उसने अपने स्कूल के कुछ एमरजेंसी मीटिंग का बहाना कर सूटकेस में कुछ कपड़े डाल कर घर से निकल पड़ी। समय शाम चार बजे थे। स्वागता का बस से अलग हो जाना उसे परेशान कर रही थी।
ठंडी हवा चेहरे पर गुदगुदा रही थी। खिड़की के पास बैठी मेंहदी के बाल हवा में लहराते रहे। पवन सुमधुर संगीत से ताल देते बस भाग रहा था पुणे की ओर। उसके मन की खिड़की से कई घटनाएँ एक के बाद एक झाँक रहीं थीं। जिंदगी के पहले पड़ाव से लेकर आज तक एक-एक हर गुजरे पल के यादों में खो गई। मन कुछ भारी सा था। एक लंबी जिंदगी के बाद कुछ ही खुशी के पल आये थे, जिन एहसासों को कैद कर मन के अकेलेपन को कुछ कम करने की कोशिश की थी। सूखे पत्तों के बीच से धूल उड़ाते हुए बस आगे बढ़ रही थी और उतने ही वेग के साथ मन पीछे दौड़ रहा था।
एक छोटी सी दुनिया है उसकी। एक स्कूल जहाँ वह काम करती है। उस छोटे से स्कूल में टीचर की नौकरी करते छोटे-छोटे बच्चे व उनकी प्यारी-प्यारी बातें दिन का थकान को भुला देते थे। उसकी जिंदगी में एक और पहचान भी है, उसे लिखना बहुत पसंद है। मन की हर बात कागज़ पर अक्षरों से एक जगह बना लेती है और जब लिखने बैठती है तो पता ही नहीं चलता वक्त कैसे दौड़ने लगता है। इसी में वह अपनी खुशियाँ ढूँढ लेती है। ये सिर्फ और सिर्फ उसकी दुनिया है, एक कल्पना की दुनिया। उस दुनिया में कागज-कलम ही उसके साथी, सहेली और सब कुछ हैं। बस यही उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है और ताकत भी। साफ-साफ लफ्ज में कहा जाए तो मेंहदी एक लेखिका भी है लेकिन उसने आज तक दुनिया की नजरों में इस पहचान को जाहिर होने नहीं दिया।
उसके परिवार के बाद अगर और कुछ चीज मायने रखता है तो वह है उसका लेखन के प्रति प्रेम। उसका परिवार कहने को तो बहुत छोटा है मगर उसके लिए सब कुछ है। माँ और एक बहन यही है उसका परिवार। जब से होश सँभाला है तब से लेकर आज तक माँ ने ही माँ-बाप बनकर पढ़ाया-लिखाया है। खुद सारा दिन नर्स की नौकरी करते हुए ही दोनों बहनों की परवरिश में कोई कमी आने नहीं दी।
गौतमी को बच्चों के बड़े हो जाने का एहसास शायद उस दिन हुआ जिस दिन मेंहदी ने पहली बार तनख्वाह लाकर अपनी माँ के हाथ में दी। शायद पहली बार उन्हें रोते हुए देखा है। मुश्किल भरी ज़िंदगी में उन्होंने कभी हार नहीं मानी थी। उस दिन मेंहदी के लिए बहुत ही खास था जब माँ गौतमी उसे गले लगाकर कंधे पर सिर रखकर रो पड़ी। उस दिन को आज तक भूल नहीं पाई ना ही कभी भूल पाएगी। उन आँखों में आँसू पहले कभी नहीं देखे थे मेंहदी और स्वागता ने। दो नन्हीं बच्चियों को गोद में लेकर पहाड़ जैसी जिंदगी को कंधे पर उठाते-उठाते शरीर थक चुका था, मगर कभी उन आँखों में आँसू नहीं देखा। शायद रोते-रोते उन आँखों में आँसू सूख चुके थे।
दूसरे दिन मेंहदी जब तैयार होकर स्कूल के लिए निकल रही थी, माँ गौतमी भी रोज़ की तरह नर्स के कपड़े पहनकर काम के लिए निकल पड़ी।
"माँ, अब तो मैंने स्कूल में जॉइन कर लिया है न, फिर आप अब घर पर आराम करोगी और कहीं नहीं जाओगी।” पूरा हक जताते हुए उसने कहा था।
"नहीं बेटा, २२ सालों से यह काम करती आई हूँ और पता है यह मेरे लिए सिर्फ एक काम नहीं है, यह मेरे जीवन का एक संकल्प बन चुका है। समर्पण और सेवा में मैंने देवत्व महसूस किया है। लोगों के दुख-कष्ट में उनका साथ देना, दो बातें प्यार की करना यह तो भगवान की सेवा हुई ना। यह मैं काम समझकर नहीं प्यार से करती हूँ। जिस काम से खुशी मिलती है वह बोझ नहीं, कर्तव्य बन जाता है। जब तक मेरे शरीर में दम है न बेटा तब तक मुझे मत टोक। जब मेरा शरीर काम करने से इनकार कर देगा तब तू जैसे कहेगी मैं वैसा ही करूँगी।”
"लेकिन माँ.......।”
"मैं समझती हूँ, तुम क्या कहना चाहती हो, मगर अभी नहीं बाद में , अभी मुझे देर हो रही है मुझे जाने दे और हाँ, टेबल पर नाश्ता रख दिया है तू और स्वागता खा लेना और देख स्वागता तैयार हुई कि नहीं? नहीं तो कॉलेज जाने में देरी हो जाएगी।" मेंहदी को आगे कुछ कहने का मौका ही नहीं दिया। अपना बैग लेकर अस्पताल के लिए चल पड़ी।
"लेकिन माँ आप नाश्ता कर लो।"
"मुझे देर हो रही है बेटा।”
"नहीं माँ मैं ऐसे आपको जाने नहीं दूँगी।”
"ठीक है फिर नाश्ता एक डब्बे में भर दे मैं वहीं जाकर खा लूँगी।”
सुबह उठकर अपने सारे कार्य समाप्त करने के बाद मेंहदी और स्वागता के लिए नाश्ता तैयार करना, फिर खाना तैयार छोड़कर, अपने काम के लिए निकल जाती है गौतमी। ये उनका दैनिक काम है। कभी-कभी मेंहदी मदद कर देती है, मगर वह खुद करना पसंद करती है। अपने हाथों से बच्चों को खाना खिलाने में एक अलग ही सुख होता है।
"माँ अब तो हम बड़े हो चुके हैं ना हमें भी कुछ काम करने दो।" कभी-कभी जिद करने लगती मेंहदी ।
मेंहदी ने एक डिब्बे में नाश्ता पैककर गौतमी के हाथ में दिया। गौतमी मेंहदी का माथा चूमकर वहाँ से चली गई। मेंहदी अच्छे से समझ गई कि माँ कभी अकेले बैठ नहीं सकती है, उन्हें अगर इसी में खुशी मिलती है तो यही सही।
मेंहदी और स्वागता गौतमी के जीने का सहारा हैं। वे बच्चों के लिए प्रेरणा और साहस बनकर बनकर जीना चाहती हैं। उनकी अपनी जिंदगी में काम बहुत मायने रखता है यह सोचकर मेंहदी के मन में उनके प्रति और भी इज्जत बढ़ जाती है। वे एक आदर्श बनकर हमेशा साथ देती आईं हैं। उसके कुछ साल बाद गौतमी हृदय रोग से पीड़ित हुईं और नर्स के काम से अवकाश प्राप्त कर घर पर रहना पड़ा। इसके बावजूद भी वे हर किसी की मदद करने में आगे रहतीं। हर किसी के दुख-कष्ट में शामिल होना उनकी आदत बन चुकी थी।
माँ की बीमारी के बाद मेंहदी की जिंदगी ने एक नया मोड़ लिया। बहन स्वागता की सारी जिम्मेदारी उसने अपने ऊपर ले ली। उसीकी जिम्मेदारी आज यहाँ तक ले आयी है। पिकनिक जाने वाली बस से कुछ छात्र-छात्राओं के लापता होने की खबर जैसे मिली वह तुरंत ही कुछ कपड़े सूटकेस में भरकर निकल पड़ी।
शाम के छः बजने को थे। न जाने स्वागता कहाँ है किन हालात में है। मन में अनेक सवालों के साथ बस में सफर करते थक गई थी वह। न जाने अभी कितना दूर है। सोचा कितनी जल्दी वह अपनी बहन से मिले। उसकी मन की बात से बस को कोई जल्दी नहीं थी। बस सड़क के एक चाय की दुकान के पास रुक गई। गला सूख रहा था, उसने बस से उतरकर एक कप चाय के लिए कहा।
"मैडम, कुछ मिनटों में बन जाएगी, बस थोड़ी देर बैठ जाइए।"
मेंहदी आस-पास के नजारे देख रही थी। कहीं कोई सुराग मिल जाए। चाय की दुकान के आस-पास कुछ नहीं था,न किसी गाँव का चिह्न, न ही कोई शोर-शराबा। एकदम शांत वातावरण, कोई कोयल कुहके या कोई चिड़िया चहके तो साफ सुनाई दे रहा था। सड़क के उस पार एक कुआँ नज़र आया। रास्ते के दोनों तरफ लंबे-लंबे वृक्ष, बीच में से सूरज की रोशनी चमक रही थी।
बस में से कुछ लोग इस सुंदर नज़ारे का आनंद लेने बस से उतर गये। शहर की चहल-पहल से दूर यह प्रशांत वातावरण मन को प्रफुल्लित कर रहा था। साथ-साथ प्रदूषणविहीन हवा का रुख एक शांत परिवेश को जन्म रहा था। चाय पीते हुए उसने पूछा, “यहाँ तो किसी गाँव या शहर की परछाई भी नज़र नहीं आ रही फिर इस जंगल के बीच आप अकेले यह चाय की दुकान कैसे, डर नहीं लगता?" खूब आश्चर्य से पूछा।
"सालों से हम यहाँ चाय बेचते आ रहे हैं मैडम, डर तो नहीं लगता है। आगे जाओ तो दो-तीन चाय की दुकान और भी मिल जाएगी ।
"यह पूरा जंगल लगता है फिर यहाँ जंगल में कौन आता है। रात को तो और भी भयानक लगता होगा ।"
"हाँ, रात को यहाँ तो कोई नहीं रहता मैडम, मगर दिन में कभी-कभी लोग यहाँ घूमने आ जाते हैं और रात होने से पहले ही यहाँ से निकल जाते हैं।" चाय वाले ने चाय देते हुए कहा। उसका मैडम शब्द का उच्चारण एक खास ढंग से सुनकर मेंहदी परेशानी में भी मुस्कुरा दी।
“क्या हुआ मैडम ?" चाय वाले ने आश्चर्य पूछा।
"कुछ नहीं, पहले ये बताओ कि यहाँ जंगल में देखने लायक क्या है जो लोग यहाँ इस जंगल में घूमने आते हैं।" उसने पूछा।
"यहाँ जंगल में एक हवेली है, राजा-महाराजाओं की, जो सालों पुरानी है। उस हवेली को देखने कभी-कभी लोग यहाँ आते रहते हैं। इसलिए एक दो चाय की दुकान के अलावा यहाँ कुछ देखने को नहीं मिलता।”
"हवेली में कौन रहता है ?".
"अब तो हवेली को सरकारी गेस्ट हाउस बना दिया है। मगर रात को वहाँ कोई नहीं रहता मैडम, लोग डरते हैं। कहते हैं रात को अजीब-अजीब आवाजें सुनाई देती हैं।"
उस बंदे को एक नज़र ध्यान से देखा। रंग काला, बड़ी मूँछे, चेहरे पे एक गहरा निशान जैसे किसी तेज छुरा से घायल किया गया है। उस आदमी का मैडम कहकर पुकारना भी उसे अजीब-सा लग रहा था।
"अगर रात को कोई मेहमान आ जाते हैं तो?" संदेह में पड़ गई।
"हाँ, एक बूढ़ा वॉचमैन हमेशा वहाँ रहता है। सुना है उनका इस दुनिया में कोई नहीं। इसलिए वह हवेली के आस-पास ही कहीं रहते हैं। साथ-साथ वहाँ की देखभाल भी करते हैं। यह सुनने के बाद मैं सोच में पड़ गई। ऐसा लगा कि शायद यही वह हवेली है जिसके बारे में बहुत पहले ही सुनने को मिला था।
मुगल काल की वह हवेली जिसमें बहुत सालों तक राजा-महाराजा और उनके वंशजों से घर में चहल-पहल मची रहती थी। फिर अचानक ही कुछ ही दिनों में एक-एक कर लोग उस हवेली को छोड़कर चले बसे तो कुछ हवेली छोड़ चले गये। उस हवेली में रहने वाले क्यों और कहाँ गये ये बात राज बनकर रह गई। मेंहदी को यकीन हो गया ये वही हवेली है, जिस जगह के लिए स्वागता के कॉलेज के विद्यार्थी निकले थे।
जल्द से जल्द स्वागता से मिलने को मन बेचैन हो उठा। पता नहीं स्वागता किस हालत में है। एक गहरी साँस दिल से निकल गयी। आखिर वह उस जगह पर पहुँच ही गई जिसकी तलाश थी। एक ठंडी हवा झोंके से शरीर में एक कँपकँपी सी उठी । पहले स्वागता को ढूँढना है फिर इस हवेली की सच्चाई के बारे में जानना है। बस, जैसे ही यह ख्याल मेरे मन में आया वह अपना सूटकेस लेकर बस से उतर गई। उसके पीछे कोई और भी सूटकेस लेकर उतरा जो उसकी नजर से बाहर था।
एक हाथ में सूटकेस और दूसरे हाथ से साड़ी सँभालते हुए पर्स लेकर आगे बढ़ने लगी। सूखे पत्ते पैरों के दबाव से चर्र-चर्र की आवाज़ कर रहे थे। खुद के पैरों की आहट से चौंक रही थी। लग रहा था कोई उसके पीछे भारी कदमों से पीछा कर रहा हो। पीछे मुड़कर देखने को भी साहस नहीं था। उसके पैरों की आहट कुछ अजीब सी लग रही थी। चारों तरफ एक नजर देखा। भयानक से जंगल में वह अकेली, कुछ दूर रास्ता पार करने के बाद आगे कच्चा रास्ता, जंगल और भी धना होने लगा। इस तरह एक अनजान जंगल की राह पर अकेले अकेले चल पड़ी...
मन में डर था अगर कोई जंगली जानवर सामने आ जाए तो क्या कर सकती है? और शाम हो चली है, कुछ ही देर में अंधेरा हो जाएगा। स्वागता को ढूँढे तो कैसे? जैसे ही उस तक खबर पहुँची वह खुद को रोक नहीं सकी ना ही इंतज़ार किया कि कोई अच्छी खबर मिल जाए बल्कि उसने तुरंत ही स्वागता से मिलने चल पड़ी। लेकिन इस समय वह भी एक अकेली लड़की है और अपरिचित रास्ता। जमाना भी बहुत खराब है, अगर कोई अकेली लड़की देखकर बदतमीजी करने की कोशिश करे तो खुद को बचाने का प्रावधान भी नहीं उसके पास। मन ही मन अपने दुःसाहस के लिए खुद को कोसने लगी। अकेले इस तरह आने से अच्छा था कि किसी को अपने साथ ले आती। कम से कम कोई साथ रहते तो अच्छा होता। शायद उसे पहली बार साथी की कमी महसूस होने लगी। एक क्षण के लिए मन विचलित हो गया।
जल्द से जल्द हवेली पहुँचना है। साड़ी को एक हाथ से पकड़कर जल्दी-जल्दी चलने की कोशिश कर ही रही थी कि "आह !" अचानक एक पत्थर से ठोकर खाकर सूटकेस हाथ से छूटकर कुछ दूरी पर जा गिरा। पैर में चोट लगने के कारण वहीं एक पेड़ के नीचे बैठ गई। पैर से खून निकलने लगा। घाव की जगह पर रुमाल बाँधने की कोशिश कर रही थी।
'मे आई हेल्प यू।' पीछे से एक आवाज़ सुनाई दी।
उसने पीछे मुड़कर देखा करीब ३०-३२ साल का एक युवक, काँधे पर एक बैग लेकर सामने खड़ा है, "जी मैंने पूछा क्या मैं आपकी कोई मदद कर सकता हूँ।"
"नो थैंक्स" मेंहदी ने रुमाल से खून साफ करने लगी। घाव पर रुमाल बाँधकर उठने की कोशिश कर रही थी। देखा वह आदमी अब तक वहीं खड़ा है।
"अरे, अब तक आप यहीं पर हैं ? मैंने कहा है न मुझे आपकी मदद की कोई जरूरत नहीं। मैं बिल्कुल ठीक हूँ, आप जा सकते हैं।"
"लेकिन मैडम आपको चोट लगी है। खून निकल रहा है और इस जंगल में अकेले बिना कोई गाड़ी के आप आगे कैसे जा सकती हैं? अगर आप कहें तो मैं आपके साथ चल सकता हूँ।"
"आप अपने काम से मतलब रखिए, मुझे मेरे हाल पर छोड़ दीजिए।"
"ठीक है, अगर आप खुद को सँभाल सकती हैं तो मेरा क्या ? मैं चला जाता हूँ।" कुछ ही पल में वह आँखों से ओझल हो गया।
मेंहदी धीरे से अपनी जगह से उठकर आगे बढ़ने लगी। सूटकेस को एक हाथ में पर्स को एक हाथ में पकड़कर चलने की कोशिश कर रही थी। मगर साड़ी पैरों में अड़ने लगी। चोट के ऊपर साड़ी का धार बार-बार लगने से दर्द होने लगा। दूसरे हाथ में पर्स के साथ-साथ साड़ी को पकड़कर चलना मुश्किल हो रहा था। कुछ दूर बढ़ने के बाद और आगे जाना मुश्किल लगा। 'लगता है किसी की मदद लेनी ही पड़ेगी। अकेले आगे बढ़ना मुश्किल है। तब याद आया, मुश्किल से एक सहारा मिला था और उसे भी भगा दिया मैंने। इस जंगल में कौन है जो मेरी मदद कर सकता है। मगर ऐसे किसी को भी कैसे मदद के लिए कह सकती हूँ। अच्छा किया, न जाने कौन था? किसी के मुँह पर थोड़े ही लिखा होता है कौन कितना शरीफ है? लड़की देखते ही बंदर जैसा व्यवहार करने वालों को बहुत देखा है फिर यहाँ जंगल में अकेली लड़की का किसी पर भी भरोसा करना ठीक भी तो नहीं।' मन ही मन कहते हुए आगे बढ़ने लगी।
फिर मन को बहलाने लगी “लेकिन वैसे आदमी देखने में बुरा भी तो नहीं था, हाव-भाव और बातों से तो शरीफ लग रहा था। अगर ऐसा वैसा कोई होता तो अकेली लड़की के साथ कुछ भी कर सकता था। पता नहीं क्या सोचा होगा, लेकिन अब मैं कैसे चलूँ, भारी सूटकेस भी तो उठानी है, पागलपन नहीं तो क्या बिना माँगे मदद मिल रही थी। उसे भी भगा दिया।"
वह मन ही मन बातें कर ही रही थी कि एक आदमी पेड़ के नीचे बैठे दिखाई दिया। ये वही था जो मेंहदी की मदद करने को आगे आया था। मेंहदी को देखते ही उसने मुँह फेर लिया। मेंहदी को भी आगे और चलना मुश्किल लग रहा था।
अब मेंहदी की बारी थी उसे मनाना, "सुनिए मिस्टर, प्लीज हेल्प मी।"
अजनीश टाँग खिचाई करने के मूड में आ गया। अनजान जैसे मुँह फेर लिया, जैसे कि उससे नहीं किसी और से बात कर रही हो।
“सुनिए, मिस्टर कैन यू हेल्प मी। "
"जी, मुझ से कुछ कहा?"
"क्या आप मेरी मदद कर सकते हैं?"
"माफ कीजिए सुना नहीं जरा जोर से बोलिए, मैं जरा कम सुनने लगा हूँ।" अजनीश ने अपने रवैया बदलकर कहा।
इस बार मेंहदी को जोर से कहना पड़ा।
“मैडम, अनजान राह पर किसी की मदद न करने का फैसला अभी-अभी ले चुका हूँ, अब कुछ नहीं होगा। किसी और से पूछ लीजिए।"
"यहाँ कोई और भी तो नहीं, जरूरत पड़ने पर गधे को भी बाप बनाना पड़ता है क्या करें।" मन ही मन दाँत दबाकर कहा।
"जी मुझसे कुछ कहा?" उसे शक हुआ कहीं उसे मन ही मन गाली तो नहीं दे रही।
दो तीन बार अनुरोध करने के बाद, अजनीश भी कुछ शरारत के मूड में आ गया।
"अच्छा तो पहले प्लीज कहिए।"
"प्लीज", दाँत रगड़ते हुए कहा मेंहदी ने।
"अब ठीक है।" अजनीश ने मेंहदी के सूटकेस को अपने हाथ में लिया और आगे बढ़ने लगा।
“मिस्टर, आप जरा धीरे चलेंगे.....।”
"जी मैडम, शुक्र मानिए कि आपकी मदद कर रहा हूँ। नौकर नहीं हूँ जो आप जैसे कहेंगी वैसे करूँगा।" फिर अपने आपमें कहने लगा, “लोग भी न अँगुली बढ़ाओ तो हाथ पकड़ने में पीछे नहीं हटते।”
"कुछ कहा आपने ?"
"जी, नहीं।"
"सुनिए मिस्टर।"
“मिस्टर, ये कोई नाम है ? मेरे माँ और बाबूजी ने मेरा भी एक प्यारा सा नाम रखा है, चाहे तो आप मुझे उस नाम से पुकार सकती हैं। "
"जी, वह भी बता दीजिए कि आपका प्यारा सा नाम क्या है जो आपकी माँ और बाबूजी ने रखा है?” मेंहदी के चेहरे पर नाटकीय ढंग देखकर अजनीश को बड़ा मज़ा आ रहा था।
"वैसे तो मेरा नाम अजनीश है। प्यार से लोग मुझे अजु कहकर पुकारते हैं। आपको अगर ऐतराज़ न हो तो आप भी अजु कहकर पुकार सकती हैं। वैसे मैं आपका नाम पूछूँगा नहीं, हाँ अगर आप बताना चाहें तो बता सकती हैं। सुन लूँगा।"
“जी नहीं मेरे लिए अजनीश ही ठीक है। मेरा नाम जानने की तकलीफ न ही करो तो अच्छा रहेगा।” कुछ देर बाद मेंहदी का गुस्सा कुछ कम हुआ। वह खुद भी समझ गई थी इस रास्ते अगर कोई उसकी मदद कर सकता है तो वह है अजनीश। इसलिए अजनीश के साथ नर्म रुख अपनाना ही ठीक रहेगा। कुछ क्षण सोचने के बाद धीरे से कहा, "मुझे मेंहदी कहकर बुला सकते हैं। "
अजनीश मन ही मन बड़बड़ाने लगा, “चलो ठीक है नाम तो पता चल गया, वैसे भी मेंहदी नाम कुछ बुरा नहीं है, चलेगा।"
"आपने अभी-अभी कुछ कहा? चलेगा..क्या, क्या चलेगा?”
“मैं, मैं,....नहीं तो, ये जो रास्ता देख रही हैं ये चलेगा.... हाँ चलेगा ।” मेंहदी ने जब जोर दिया अजनीश ने हडबड़ाते हुए कहा।
"रास्ता चलेगा क्या बोल रहे हैं आप। मुझे कुछ समझ में नहीं आ रहा। "
“हाँ हम अगर इस रास्ते से चलेंगे तो.....तो ... हाँ तो चलेगा, हम हवेली तक जल्दी ही पहुँच जाएँगे।”
"आपको कैसे पता कि मैं हवेली जा रही हूँ।" फिर अचानक पूछ बैठी। कुछ देर सोच कर फिर जवाब दिया अजनीश ने, "हाँ ! यह रास्ता हवेली की तरफ ही तो जाता है। है ना ?"
"इसका मतलब आप मेरा पीछा कर रहे थे।"
"हैल्लो मैडम, एक्सक्यूज मी, क्या समझ रखा है मुझे? मैं आपका पीछा क्यों करूँगा ?"
"फिर आप मेरे.... ”
“जी नहीं मैं भी हवेली ही जा रहा हूँ, लेकिन अपने काम से इसलिए तो आपकी मदद करने...।”
“मतलब आप पहले से ही जानते थे कि मैं हवेली...। लेकिन आपको कैसे पता कि मैं हवेली जा रही हूँ ?"
“आप जब चाय वाले से बात कर रही थी, मैं वहीं खड़ा आप दोनों की बात सुन रहा था। "
"तो ये बात है, आप हमारी बातें सुनकर मेरा पीछा कर रहे थे... और मैं समझ रही थी आप बहुत शरीफ हैं और मैं आपकी बातों में आ गई। दीजिए हमारा सूटकेस हम अकेले जा सकते हैं। " मेंहदी ने सूटकेस लेने के लिए आगे हाथ बढ़ाया।
"हैलो, मुझे कोई शौक नहीं है आपका सामान उठाने का लीजिए अपना सूटकेस, मैं तो चला। भलाई का तो ज़माना ही नहीं रहा। भला करो ऊपर से बातें सुनो और हाँ आप जो समझ रही हैं ठीक है पर पूरा सच नहीं सिर्फ आधा।"
"मतलब?"
"मैं शरीफ जरूर हूँ ये आपने ठीक ही समझा, मगर आपने जो इल्जाम लगाया वो ठीक नहीं है। मैं आपका पीछा नहीं कर रहा था। इस रास्ते में और इस जंगल में कोई अपने शौक से अकेले नहीं आता और आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि यह रास्ता सिर्फ और सिर्फ हवेली तक ही जाता है, कोई हनीमून होटल की तरफ नहीं।" उसने यहाँ आने की वजह भी सब साफ-साफ बता दी। "वैसे आप भी अकेली इस जंगल में मेरा मतलब घूमने तो नहीं आयी होगी... पता है? फिर भी कारण चाहे जो भी हो अगर आप चाहे तो मेरे पीछे आ सकती हैं। अकेली हो, इसलिए कह रहा हूँ और इसी में आपकी भलाई है।" अजनीश की आँखों में सच्चाई साफ नज़र आ रही थी।
मेंहदी को अजनीश के ऊपर भरोसा करने के अलावा और कोई रास्ता भी नहीं बचा। सच्चाई जानने के बाद मेंहदी का गुस्सा कम हो गया। मतलब अजनीश भी उसकी तरह, इन बच्चों की मदद करने ही आया है। मेंहदी का सारा गुस्सा गायब हो गया था। अपने व्यवहार पर पश्चाताप करते हुए अजनीश से माफी माँगी और साथ चलने लगी।