Hanuman Prasad Poddar ji - 7 in Hindi Biography by Shrishti Kelkar books and stories PDF | हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 7

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हनुमान प्रसाद पोद्दार जी (श्रीभाई जी) - 7

बम्बईका जीवन

भाईजी सपरिवार रतनगढ़ पहुँच गये पर वहाँ घर के सिवा और था ही क्या ? दादाजी की कमाई शिलाँग में भूकम्प के भेंट चढ़ गई थी। कलकत्ते की वृत्ति से ही कुछ मिला वह राजनीति, समाज-सेवा और संत-महात्माओं के समर्पित हो गया। पिताजी के जानेके बाद कलकत्ते की दूकान भाईजी सँभालते थे, पर इनकी अनुपस्थिति में वहाँ केवल कर्ज ही बचा था। इस अव्यवस्थित स्थिति में पारिवारिक जीवन-निर्वाह की समस्या सामने थी। भाईजी के मनमें कोई उद्वेग नहीं था, क्योंकि ये सब बातें पहले सोचकर ही राजनीति मे प्रवृष्ट हुए थे। अनुकूल पत्नी और सहिष्णु दादी के कारण दिन हँसते-हँसते कट रहे थे। पर वृत्तिके लिये कुछ व्यवस्था तो करनी ही थी। इसी सोच-विचारमें थे कि एक दिन अचानक सेठ जमनालाल जी बजाज का पत्र मिला कि तुम बम्बई चले आओ। कोई काम शुरू कर दिया जायगा। पत्र मिलने के एक-दो दिन बाद ही बम्बई जानेका निश्चय कर लिया। मुहूत दिखाकर भाद्र सं० 1975 (अगस्त, 1918) में ये अकेले बम्बई चले गये। वहाँ अपनी बुआ के यहाँ ठहरे। दूसरे दिन श्रीजमनालाल जी बजाज से मिलने गये। उनके स्नेह को देखकर वे गद्गद् हो गये। यह स्नेह-सम्बन्ध निरन्तर बढ़ता ही रहा।
सर्वप्रथम गुलाबराय जी नेमाणी के साझें में रुई की दलालीका कार्य आरम्भ किया। तीन-चार मास के बाद शेयरों की दलाली की ओर झुकाव हुआ और श्रीमदनलाल जी चौधरी के साझेमें शेयरों की दलाली का कार्य करने लगे। यह काम बारह महीने चला पर विशेष आमदनी नहीं हुई। नया आयोजन सोचने लगे। श्रीजमनालाल जी के कौटुम्बिक भाई श्रीगंगाविष्णु के साथ 'गंगाविष्णु हनुमानप्रसाद' के नाम से शेयरों की दलाली करने लगे। इसमें भी लाभ हुआ पर परिवारके आने से बम्बई में खर्च भी बढ़ गया था। रामकौर जैसी दादी और भाईजी जैसे पौत्र की जोड़ी मिल जाने से दान-पुण्य भी बहुत बढ़ गया था। सं० 1977 (सन् 1920) में 'ताराचन्द घनश्यामदास' फर्म के मालिक श्रीबालकृष्णलाल जी एवं श्रीश्रीनिवासदास जी पोद्दार के साझे में 'एस. डी. पोद्दार के नाम से शेयरों की दलाली की नई व्यवस्था हुई। लाखों रुपयों का व्यापार होने लगा। अचानक तीन लाख रुपये व्यापारियों से लेने रह गये। दो लाख तो किसी तरह आये पर एक लाख तो नहीं आये। मुनीमों ने भाईजी की शिकायत की। किन्तु श्रीनिवासदासजी ने मुनीमों को डाँट दिया मेरी सम्मतिसे सब कार्य हुआ है। घाटा हुआ तो हो गया। भाईजी के हृदय पर इस घाटे का गहरा धक्का लगा और वे रुग्ण हो गये। स्वास्थ्य-सुधार के लिये नासिक जाना पड़ा। वहाँ एक मास रहने से स्वास्थ्य में लाभ हुआ। जमनालालजी को पता लगा तो उन्होंने अपने साले श्रीचिरंजीलालजी जाजोदियाके साथ काम शुरु करवा दिया। चिरंजीलाल हनुमानप्रसाद के नाम से तीसी आदि के सट्टेकी दलाली, निजी व्यापार एवं आढ़त का काम होने लगा। यह काम जब तक बम्बई रहे तब तक चलता रहा।

देश-प्रेम एवं समाज-सेवा की प्रवृत्तियों का पुनर्जागरण
भाईजी ने जब से होश सँभाला तब से ही देश-सेवा एवं समाज सेवा की प्रबल इच्छा उत्तरोत्तर बढ़ रही थी। यदि नजरबन्दी का प्रतिबन्ध-बीच में न आ जाता तो न जाने उसका मूर्त-रूप अब तक क्या होता ? पर भगवान्ने इनको दूसरे कार्य के लिये भेजा था। अतः शिमलापाल की साधना के बाद इनका हिंसात्मक राजनीति में विश्वास नहीं रहा। बम्बई में अनुकूल वातावरण मिलने से पुराने संस्कार फिर जागने लगे। जमनालालजी का संग इसमें अत्यधिक सहायक बना। वे उस समय राष्ट्रनेताओं के एक प्रकार से आश्रयदाता थे। सभी नेता प्रायः इनके ही अतिथि-गृह में ठहरते एवं उनकी व्यवस्था का भार भाईजी पर ही था। भाईजी का राष्ट्रनेताओं से परिचय तो कलकत्ते से ही था, अब और निकटता बढ़ने लगी। गाँधीजी से तो अत्यन्त आत्मीयता हो गयी थी। यहाँ तक कि गाँधीजी जब भी बम्बई आते, तो दादी रामकौर से मिलने इनके घर पर अवश्य जाते थे। श्रीबालगंगाधर तिलक एवं लाला लाजपतराय से भी स्नेह का घनिष्ठ सम्बन्ध हो गया था। सं०1976 (सन् 1919) में अखिल भारतीय काँग्रेस का अधिवेशन पं० मोतीलाल नेहरु के सभापतित्व में अमृतसर में हुआ। उस समय वे गरम दल के नेता लोकमान्य तिलक के अनुयायी थे। सं० 1977 (सन् 1920) में काँग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में लाला लाजपतराय के सभापतित्व में हुआ उस में भी ये गये। उसी वर्ष नागपुर में काँग्रेस ने विजय राघवाचार्य के सभापतित्व में कुछ परिवर्तन के साथ असहयोग प्रस्ताव को स्वीकार किया। इस अधिवेशनमें भी भाईजी उपस्थित थे। सं० 1978 (सन् 1921) में हकीम अजमल खाँ के सभापतित्व में काँग्रेस का अधिवेशन अहमदाबादमें हुआ उसमें भी इन्होंने भाग लिया। पर काँग्रेस के साथ क्रियात्मक सहयोग की यहीं से इति श्री हो गयी। भाईजी की आध्यात्मिक प्रवृत्ति ही इसमें कारण बनी। जीवन में आध्यात्मिक प्रवृत्ति बढनेसे कांग्रेस वालों से धार्मिक विचारों में मतभेद रहने लगा। धीरे-धीरे राजनीति से ये पृथक हो गये। इतने वर्ष शीर्षस्थ नेताओं के घनिष्ठ सम्पर्क में रहने से, भाईजी को देशके प्रमुख नेताओं से मिलने और विचारों के आदान-प्रदान करनेका सुयोग प्राप्त हुआ। इनमें थे— श्रीविट्ठलभाई पटेल, श्रीवल्लभभाई पटेल, श्रीविनायक दामोदर सावरकर, श्रीमहादेव भाई देसाई, श्रीकाका कालेलकर, श्रीखान अब्दुल गफ्फार खाँ, श्रीविनोबा जी, श्रीमुहम्मद अली जिन्ना, श्रीशौकत अली आदि।
भाईजी देश-सेवा के साथ ही समाज सेवामें भी पूर्ण तत्परतासे लग गये थे। उस समय प्रमुख संस्था 'अखिल भारतीय मारवाड़ी अग्रवाल सभा के सं० 1976 (सन् 1919) से ही सक्रिय सदस्य थे। उसी वर्ष महासभा का पहला अधिवेशन हैदराबादमें हुआ। अपने नये व्यापारिक कार्य को गौण करके ये हैदराबाद गये। सं० १६७७ (सन् १६२०) में ये महासभा की बम्बई- शाखा के मन्त्री चुने गये। महासभा के प्रान्तीय मंत्री की हैसियत से
भाईजी ने अग्रवाल महासभा की बहुत सेवा की। इस वर्ष महासभा का अधिवेशन बम्बई में हुआ, जिसकी सफलता का श्रेय इन्हीं को था। तृतीय अधिवेशन कलकत्ता में एवं चतुर्थ इन्दौर में आयोजित हुआ, उनमें भी भाईजी ने सक्रिय
भाग लिया।
जैसे-जैसे आध्यात्मिक प्रवृत्ति प्रधान होने लगी, सामाजिक कार्यों में गौणता आने लगी, पर व्यक्तिगत रूप से सेवाके कार्य भी करते ही रहते थे। एक बार इन्होंने गुण्डों के चंगुल से एक लड़की का उद्धार किया था पर गुण्डों ने इनके विरुद्ध पुलिस में रिपोर्ट कर दी। सी० आई० डी० के इन्सपेक्टर श्रीपटवर्द्ध नने इन्हें बुलाकर समझाया कि आप तो विशुद्ध सेवाभाव से इस कार्य में पडे हैं पर यह खतरे का काम है, आप इस कार्य को छोड़ दें। हमलोग यथाशक्ति प्रयत्नशील हैं। भाईजी को बात युक्तिसंगत लगी। अतः इन्होंने उस कार्य से अपना हाथ खींच लिया। इन कार्यों के अतिरिक्त गुप्तरूप से अनाथों की सेवा, निर्धन विद्यार्थियों की सहायता, विधवाओं की आर्थिक सहायता, रोगियों की तन-मन-धन से सेवा करते रहते थे। आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी न होने पर भी इन कार्यों के लिये घरके खर्च कम करके रुपयों की व्यवस्था कर देते थे। इन कार्यों के कारण ये सभी के प्रिय हो गये थे।

विदेशी-वस्त्रोंकी होली
भाईजी ने लार्ड कर्जनद्वारा सं० 1962 (सन् 1905) में बंग-भंग की घोषणा करने पर स्वदेशी-व्रत लिया था, उस समय उनकी आयु तेरह वर्ष की थी। बचपनका यह निश्चय जीवन-पर्यन्त निभा ही नहीं, उसमें और उज्ज्वलता आ गई। गाँधीजीसे भी डेढ़ साल पहले भाईजी ने खादी का प्रयोग आरम्भ किया और अन्त तक खादी ही पहनते रहे। बम्बई के जीवन में जब गाँधीजी से आत्मीयता बढ़ी तब खादी के प्रचार में भी सक्रिय सहयोग दिया। यहाँ तक कि भाईजी एवं उनके कुछ साथी अपने व्यापार से समय निकालकर खादी के बंडल पीठ पर लादकर घर-घर बेचने जाते थे।
इसके बाद गाँधीजी के स्वदेशी आन्दोलनने जोर पकड़ा तो केवल विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार ही नहीं हुआ, विदेशी वस्त्रों को जलाया जाने लगा। गाँधीजी का कहना था— जब विदेशी-वस्त्र पहनना ही पाप है तो उसे दूसरे को पहननेके लिये न देकर जलाया जाना ही उचित है। गाँधीजी भाईजी के घर आकर दादी रामकौरसे भी विदेशी वस्त्र माँगकर ले गये और उन्हें जला दिया गया।
भाईजी भी इस आन्दोलन के पूरे पक्ष में थे। उन्हें पता था कि दादी के द्वारा विदेशी वस्त्र दिये जाने के पश्चात् भी उनकी धर्मपत्नी के पास विदेशी वस्त्र थे । उनको भी जलाने के उद्देश्य से उन्होंने अपनी पत्नीसे कहा कि यदि तुम्हारी अनुमति हो तो घर के सारे विदेशी वस्त्र जला दिये जायँ। पत्नी की इच्छा थी कि जलानेके स्थानपर गरीबों को बाँट दिये जायँ। किन्तु भाईजी ने गाँधीजी की दलील रखकर समझाया। जब उन्होंने भाईजी की हार्दिक इच्छा देखी तो सच्ची पतिव्रता की तरह घरके सारे विदेशी वस्त्र एकत्रित करके सामने रख दिये। यह विचार भी नहीं किया कि अमुक साड़ी तो बहुत कीमती है। जब वस्त्रों का ढेर लग गया तो भाईजी ने पूछा— और तो कोई विदेशी वस्त्र घरमें बचा नहीं है न ? उत्तर मिला— नहीं। भाईजी ने सावधान किया कि फिर देख लो, शायद कहीं बचा-खुचा पड़ा हो। वही उत्तर मिला— कहीं कुछ नहीं है। भाईजी को एक साड़ी दिखलाई दे रही थी, अतः उन्होंने पत्नीकी पहनी हुई साडी को देखा। भाईजी के बार-बार आग्रह करने का अर्थ अब उनकी समझ में आया। अभी आती हूँ— यह कहकर वे कमरे में चली गयीं, अपनी साड़ी बदलकर उस अन्तिम अवशेष साडी को भी वस्त्रों के ढेरपर डाल दिया। देखते-ही-देखते वह ढेर राख में परिणत हो गया।
इसी तरह की दूसरी घटना घटी जब भाईजी गोरखपुर में गोरखनाथ मन्दिर के निकट बगीचे में रहते थे। एक सम्बन्धी उनकी एक मात्र सन्तान सावित्री के लिये कुछ विदेशी वस्त्र दे गया। शाम को भाईजी गीताप्रेस से लौटे तो उन्हें पता लगा। उसी समय वे वस्त्र माँगकर आँगनमें ही वस्त्रों को जलाकर होली मना ली।