एक सहज, स्वाभाविक अभिव्यक्ति
लेखक --प्रताप नारायण सिंह
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मित्रों! नमस्कार
स्पष्ट करना चाहती हूँ कि मैं समीक्षक नहीं हूँ | समीक्षा में गुण-दोष दोनों की विवेचना की जाती है| मुझमें उस समालोचना का गुण नहीं हैं अत: मैं जो भी कुछ कह पाती हूँ केवल प्रतिक्रिया स्वरूप ही कह पाती हूँ | यह उपन्यास है तीन मित्रों की ऐसी वय से गुज़रते हुए लम्हों का जो बड़े स्वाभाविक रूप में आते-जाते रहते हैं | मैंने इसे पढ़कर निम्न प्रतिक्रिया देने का प्रयास भर किया है | इस विश्वास के साथ कि मित्र मेरे भावों को समझेंगे |
वह फूलों की सुगंध से सराबोर होता है, पायल की छनक से उसका दिल झंकृत हो जाता है ,वह जमीन से लेकर आसमान तक के सारे मार्गों में सुगंधित पुष्प बिछाने की कल्पना करता है,वह एक कल्पना का संसार बसाता है जिसमें भोर से लेकर स्वप्न तक खोया ही तो रहता है | इसमें कुछ भी अप्राकृतिक, अशोभनीय कहाँ है ? यह प्रकृति का वह स्वरूप है जिस पर दुनिया टिकी है | फ़र्क केवल इतना है कि इस प्रकार प्रेम को सरे आम प्रदर्शित करने का लाइसेंस उसके पास नहीं होता | जिससे वह खिलकर, खुलकर स्वयं को प्रेमी घोषित कर सके| इसके भी कारण है न !हम एक सामाजिक व्यवस्था में रहते हैं गो कि जीवन का आधार प्रेम की वह धुरी ही है जिसके चारों ओर हम घूमते हैं या कहो वह हमें अपने वृत्त में घुमाती है लेकिन सामाजिक परिस्थितियों के अनुकूल जीवन को चलाना जरूरी भी महसूस होता है |
प्यार दरअसल एक ऐसी संवेदना है जिसके सहारे साँस लेकर हम ज़िंदगी सहज बनाते हैं | मुझे इस उपन्यास को पढ़ते हुए कई बार आचार्य रजनीश की स्मृति हो आई | साथ ही बरसों पूर्व की एक और घटना याद आ गई | बरसों पूर्व दूरदर्शन किसी रेकॉर्डिंग के सिलसिले में गई थी | वहाँ एक सिन्धी युवक थे जो हिन्दी का कार्यक्रम संभालते थे| प्रारंभ से ही अधिक स्वतंत्र वातावरण में रहने के कारण किसी भी विषय पर चर्चा करने पर मुझे संकोच नहीं हुआ|
उन दिनों आचार्य रजनीश बहुत सुर्खियों में थे |
सिन्धी भाई ने मुझसे पूछा -
"डॉ.भारती ! आपने कभी रजनीश को पढ़ा है ?" मैं तब तक उनके बारे में कुछ लेखों के माध्यम से, कुछ उनके व्याख्यानों के माध्यम से थोड़ी सी परिचित थी किन्तु उनकी कोई पुस्तक कभी नहीं पढ़ी थी |
"ये पढ़कर देखिए ---" उन्होंने मुझे रजनीश जी की एक छोटी सी पुस्तक दी 'संभोग से समाधि तक'! बड़ा भला बंदा था लेकिन उस समय मेरे मन में उसके प्रति सहज रोष उत्पन्न हुआ | शायद अपने आपको बोल्ड दिखाने के चक्कर में मैंने वह पुस्तक ले ली | किन्तु मन में हो रहा था कि उन्होंने मुझे यह पुस्तक क्यों दी?इतना खुला मस्तिष्क रखने के बावज़ूद भी मैं उसके प्रति एक धारणा बना बैठी |
पुस्तक लेकर घर आ गई और डाइनिंग-टेबल पर रख दी | अम्मा इंटर कॉलेज में संस्कृत की अध्यापिका थीं | अवकाश प्राप्त करने के बाद मैं उन्हें अपने पास ले आई थी | उनसे सभी विषयों पर खुलकर चर्चा होती लेकिन वे बड़ी संकोची प्रकृति की थीं, मेरे जैसी खुली प्रकृति की तो थीं नहीं |
"हाय ! अब तू ये क्या पढ़ने लगी ?" उन्होंने पुस्तक को उलटते-पलटते हुए मुझसे पूछा |
"अम्मा,पढ़कर देखने में क्या हर्ज़ है ? बहुत तारीफ़ सुनी है | उनके व्याख्यान तो आपने भी सुने हैं | " मैंने साहस बटोरकर उनसे कहा | मुझसे बात करते हुए वे काफ़ी सहज हो गई थीं और समय मिलते ही मन ही मन उसे पढ़ने की योजना बना चुकी थीं |
"आप ऐसा करिए,पहले पढ़ लीजिए फिर मुझे बताइएगा --"मैंने उन्हें सहज करने के लिए कहा और मुझे देखकर प्रसन्नता हुई कि उन्होंने शायद दो दिनों में वह पुस्तक पढ़ ली थी और मुझसे चर्चा भी की थी | धीरे-धीरे सहज रूप से हम ओशो की उस पुस्तक के कई विचारों पर चर्चा करने लगे और हमें कहीं से भी उनकी कही ,लिखी गईं बातें अशोभनीय नहीं लगीं | प्रश्न यह भी था कि जो संवेदन जीवन की वास्तविकता से जुड़ा हुआ हो, उसे अशोभनीय आखिर क्यों माना जाना चाहिए?
अपने इस उपन्यास के आमुख में प्रताप नारायण प्रेम के बारे में बड़ी स्पष्ट से लिखते हैं --
'प्राय:देखा गया है प्रेम की भावना को लेकर प्रत्येक व्यक्ति का अपना एक दर्शन होता है | कोई कहता है कि प्रेम जीवन में बस एक बार ही हो सकता | कोई इस बात का खंडन करता है| कोई कहता है कि सच्चा प्रेम किसी-किसी भाग्यशाली को ही मिल पाता है तो किसी की मान्यता है कि प्रेम मनुष्य की मौलिक भावना है जिसमें सच्चा-झूठ जैसा कुछ नहीं होता | "
अपने इस उपन्यास में प्रेम का स्पष्टीकरण करते हुए वे लिखते हैं --
'इस पुस्तक' में मैंने प्रेम शब्द का प्रयोग स्त्री-पुरुष के बीच प्रगाढ़ आकर्षण से उत्पन्न होने वाले प्रेम लौकिक भावों व अनुभवों के संबंध में किया है | इस उपन्यास का कथानक आम लोगों की सहज अनुभूतियों से बुना गया है | इसकी कथा देवदास, हीर-राँझा, लैला-मजनूँ या रोमियो-जूलियट जैसे विलक्षण वर्ग के प्रेमियों की नहीं बल्कि सामान्य व्यक्ति के अंदर उभरने वाली प्रेमानुभूति को दर्शाती है | '
प्रताप नारायण सिंह आजकल बहुत सुंदर लेखन कर रहे हैं | कुछेक पुस्तकें,उपन्यास जो अधिकांश इतिहास की खुदाई करने के बाद यानि पूरी शोध के बाद लिखे हैं जिनमें धनंजय, अरावली का मार्तण्ड,युग पुरुष : सम्राट विक्रमादित्य ,योगी का रामराज्य,जिहाद जैसे उपन्यास उनकी कलम से उद्धरित हुए हैं | मैं जानती हूँ उपरोक्त उपन्यासों में उन्होंने कितनी शोध की है और एक किताबी-कीट की भाँति अपने एक-एक क्षण का सदुपयोग करके फटाफट पुस्तकों को पाठक के समक्ष लाकर जीत का झण्डा फहरा दिया है | अचानक से जब 'प्यार, कितनी बार!' शीर्षक का उपन्यास मेरे सामने आया ,मैं किंकर्तव्य विमूढ़ हो गई | इस उपन्यास का परिवेश बिलकुल ही भिन्न है जो उन्होंने अपने चारों ओर से उठाया है | इसे कुछ इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि युवावस्था के ऐसे खुशगवार दिन सबके जीवन में एक बसंत बयार सी बनकर आते हैं| इस बयार में सभी भीगते हैं और यह जितना स्वाभाविक है उतना ही महत्वपूर्ण भी !
NID 'राष्ट्रीय डिज़ाइन संस्थान में कई युवाओं व प्रेम के विषयों पर एनीमेशन फ़िल्म्स की स्क्रिप्ट लिखते समय प्रेम के कई आयामों पर डायरेक्टर से लेकर डॉक्टर्स तक से चर्चा करनी हुई क्योंकि शरीर की बनावट के बारे में शरीर के सभी अवयवों के बारे में लेखन से पहले जानना,समझना आवश्यक था| शुरू में थोड़ा अजीब महसूस हुआ लेकिन स्क्रिप्ट पर काम करते-करते बहुत जल्दी सहज भी हो गई | हाँ, यह अवश्य महसूस हुआ व अनुभव प्राप्त हुआ कि ऐसी चर्चाओं में शब्दों के उचित प्रयोग की आवश्यकता है | मुझे लगता है कि प्रत्येक क्षेत्र में इस प्रकार के अनुभव मिलते ही हैं | कुछ सभ्यता के दायरे में सिमटे हुए होते हैं तो कुछ उस वृत्त से बाहर भी चले जाते हैं जहाँ सावधान हो जाना श्रेयस्कर है |
इसका अर्थ यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि प्रेम के बारे में किसी की कोई भावना गलत या सही है| लेखक पहले ही स्पष्ट कर चुके हैं कि प्रेम के बारे में सबका अपना दर्शन होता है | युवाओं के जीवन में यह आकर्षण आना-जाना एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, कुछ खुलकर सबके सामने उसको स्वीकार कर लेते हैं तो कुछ पर्दे के पीछे से झाँककर दिल को बहला लेते हैं |
ज़िंदगी के हरेक पल में शरीर के जितने भी अवयव हैं अपने कार्यों में संलग्न रहते हैं | पाँच तत्वों से बने शरीर के पिंजरे में प्रेम की बाँसुरी की अनुगूँज एक स्वाभाविक, सहज अनुभूति है | वह सहज है इसीलिए स्वाभाविक है और स्वाभाविक है तो सहज है अन्यथा शरीर का प्रमुख आकर्षण केंद्र बैरागी बनाकर एक सामान्य जीवन से दूर चले जाने को बाध्य होता है | फिर भी सहज रह पाना उसके लिए कितना कठिन है | इसमें कुछ न तो अस्वभाविक है,न ही शर्मसार होने की बात है | सारी संवेदनाओं को जोड़ने वाली अनुभूति प्रेम के आगोश में मन को जैसे झूला झुलाती है और झकझोरती रहती है | यदि यह विभोरावस्था न हो तो दो विपरीत लिंगों का आपस में इतना सहज, स्वाभाविक आकर्षण न हो |
उपन्यास इतनी सरल, सहज शैली में लिखा गया है कि पाठक पात्रों व घटनाओं के साथ बहता चला जाता है | जैसा ऊपर स्पष्ट कर चुकी हूँ, कहानी तीन मित्रों की घटनाओं को बांधती भी है, अलग भी करती है | जहाँ दो मित्रों के जीवन को एक ठहराव मिल जाता है वहीं तीसरा मित्र बरसों से प्रेम के ऊबड़-खाबड़ रास्तों पर चलता हुआ उपन्यास की अंतिम कड़ी तक एक अन्य कहानी को बुनने के लिए तत्पर दिखाई देता है |
'प्यार, कितनी बार!' पढ़कर ही पाठक संवेदनाओं से जुड़ सकेगा | 'डायमंड बुक्स' से प्रकाशित इस उपन्यास को अपने जीवन से जोड़कर पढ़ने में आनंद आएगा | संभव यह भी है कि पाठक अपने जीवन के बरखे पलटने में कामयाब हो जाएँ |
लेखक प्रताप नारायण सिंह को उनकी नई कृति के लिए अशेष आत्मीय साधुवाद व भविष्य के लेखन के लिए अनेक स्नेहिल शुभकामनाएँ !!
सस्नेह
डॉ.प्रणव भारती
अहमदाबाद